विज्ञान आत्म जगत की शोध करे

January 1992

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भूकम्प आने, ज्वालामुखी फटने जैसे प्राकृतिक आपदाओं के पूर्व-जीव-जन्तुओं के व्यवहार में विलक्षण परिवर्तन आते दिखाई पड़ते हैं-यह सर्वविदित तथ्य है, किन्तु इन विचित्र परिवर्तनों के आधार पर जीवशास्त्री अब यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि जन्तु का कौन-सा व्यवहार किस विपत्ति का सूचक है।

गत दिनों सोवियत रूस के मास्को विश्वविद्यालय के शोधकर्मियों ने कई वर्षों के अथक परिश्रम के उपरान्त एक शोध-पत्र प्रकाशित किया है, जिसमें इसी आशय के निष्कर्ष हैं कि कौन सा पक्षी किस प्रकार का बरताव करें, तो प्राकृतिक विपदा के संदर्भ में उसका क्या अर्थ निकलता है। उनके अनुसार मरुस्थल में यात्रा करने वाले ऊँट यदि चलते-चलते अकस्मात बिना कारण के रुक जायँ, तो यह समझा जाना चाहिए कि तूफान कुछ ही समय में आने वाला है। बतखों में जब चरबी चढ़ने और मोटापा बढ़ने लगे, तो यह इस बात का संकेत हो सकता है कि आने वाली वसन्त ऋतु अधिक ठंडी और लम्बी अवधि की होगी। यदि नभचर अपने घोंसले धूप वाले स्थान में बनाने लगें। तो यह इस ओर इंगित करता है कि गरमी का मौसम ठंडक लिए हुए होगा। मधुमक्खियों के छत्ते बन्द हो तो ये इस बात को सूचित करते हैं कि जाड़े में शीत अधिक पड़ेगी। उनका खुला रहना सामान्य तापमान की सूचना देता है। शोधरत वैज्ञानिकों ने मकड़ियों के व्यवहार-परिवर्तन पर भी अध्ययन किया है। इसके आधार पर वे कहते हैं कि यदि उनके जाले पौधों में सिमटे-सिकुड़े दीख पड़ें तो यह समझ लेना चाहिए कि जाड़े का मौसम अधिक ठंडा नहीं होगा।

इस प्रकार के सैंकड़ों जीव-जन्तुओं पर उन्होंने अध्ययन किये हैं-यथा कौवे की भिन्न-भिन्न समय में भिन्न प्रकार की आवाजें, किसी एक स्थान पर चील-गिद्धों का इकट्ठा होना, शृंगालों का “हुआ-हुआ” करना, कुत्तों और बिल्लियों का रोना, हिरनों का अचानक भागना, शेरों का दहाड़ना आदि-आदि। इनके पृथक्-पृथक् निष्कर्ष भी उन्होंने निकाले हैं। प्राचीन भारत में इस संबंध में अनेक ऐसे ग्रन्थ भी उपलब्ध थे, जिनमें जीव-जन्तुओं की बोलियों की ही व्याख्या की गई थी। ‘भड्डरी’ एवं ‘घाघ’ नामक ज्योतिषी इस विषय के विशेषज्ञ माने जाते थे, और उन्होंने इस पर कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी लिखे थे। अब वे सब तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु उनके कुछ पृष्ठ अब भी मौजूद हैं, जिनके आधार पर ऐसी भविष्यवाणियाँ की जा सकती हैं, जो उनकी बोलियों में निहित हैं और शत-प्रतिशत सही साबित होती हैं। ‘उत्पात-सागर’ ऐसा ही एक ग्रन्थ था, पर अब वह दुष्प्राप्य है।

उपरोक्त विवरण से निष्कर्ष यह निकालता है कि जीव-जन्तुओं के व्यवहार से परोक्ष जगत में हो रहे परिवर्तनों को जाना जा सकता है। तथ्य यह भी सही है कि जितना पुरुषार्थ यह सब जानने को किया गया, उसका स्वल्प सा अंश भी आत्मजगत को टटोलने में किया जाय तो अगणित चमत्कारी सिद्धियों के स्रोत की जानकारी मानवी अन्तराल में हो सकती है। वस्तुतः विगत सौ वर्षों में मनुष्य ने स्वयं छोड़कर सभी पर विशद शोध की है। आत्मसत्ता की महत्ता प्रतिपादित करते हुए यदि यह वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षण किये जा सकें कि सद्भावनाओं को अपना कर व्यक्ति किस प्रकार अपना कल्याण करता है, अपने चिन्तन को परिष्कृत कर वह स्वकेन्द्रित शक्ति प्रयोगों से कैसे प्रसुप्त को जगा सकता है तथा अदृश्य जगत से बरस रहे अनुदानों से स्वयं को किस प्रकार लाभान्वित कर सकता है, तो यह अनुसंधान मानवहित का होगा, विज्ञान की उपलब्धियाँ मानवी काया व मन की सूक्ष्म व और भी गहन परतों का रहस्योद्घाटन कर सकें, इस दिशा में उसके प्रयास अब मुड़ने ही चाहिए।


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