परमपूज्य गुरुदेव : लीला प्रसंग

January 1992

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परमपूज्य गुरुदेव की प्रथम पुण्यतिथि पर प्रकाशित जून 1991 के विशेषाँक में “लीला प्रसंग“ शीर्षक से कुछ सामग्री से कुछ सामग्री दी गयी थी। परिजनों के अत्यधिक आग्रह से इस अंक से वह स्तम्भ जब पुनः आरंभ किया जा रहा है। इन पृष्ठो पर पूज्यवर के जीवन से जुड़े अभिव्यक्त एवं अलौकिक घटना प्रसंग दिए जाते रहेंगे। इससे उन अन्य अनेकों को भी लाभान्वित होने का मौका मिलेगा, जो बाद में मिशन से जुड़े व सूत्र संचालक के बारे में और अधिक जानने की जिनकी जिज्ञासा बनी हुई है। इस स्तम्भ के लिए उन सभी की अनुभूतियाँ भी आमंत्रित हैं, जिन्हें भिन्न-भिन्न रूपों में उस महाशक्ति के अनुदान विगत साठ वर्षों में मिले हैं।

चेतना स्तर पर मानवीसत्ता ब्रह्म के समतुल्य है। मूल अस्तित्व की दृष्टि से दोनों में अद्भुत साम्य है। जिन कारणों से विभेद की स्थिति उत्पन्न होती है, महापुरुष उन आवरणों को हटा देते हैं और अपनी सत्ता का विकास नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम के रूप में कर लेते हैं। सुविकसित आत्मा ही परमात्मा है व प्रगति का, विकास का यह मार्ग सब के लिए खुला पड़ा है, ऐसा हमारे ऋषि-मुनि, उपनिषद्कार कहते आए हैं। सिद्धपुरुष, देवदूत, अवतार, माया के आवरण से परे सच्चिदानंदोऽहम् की स्थिति से देखने वाले सामान्य जीवनक्रम में उलझे व्यक्ति उन्हें उनके रहते पहचान नहीं पाते। कभी-कभी घटने वाले घटनाक्रमों की गहराई तक जाने पर उनकी अन्वेषण बुद्धि प्रत्यक्षवाद के तर्कों में उलझकर असमंजसता उत्पन्न कर देती है। किंतु जो विवेकशील हैं, वे दृश्य घटनाक्रम के मूल में छिपे प्रसंग को समझ लेते हैं। सिद्धपुरुषों, महामानवों की परख कर पाना इस संसार का सबसे दुष्कर कार्य है। जिन्हें यह चक्षु प्राप्त हो जायँ व अपनी श्रद्धा का अभिसिंचन वे इससे करना आरंभ कर दें, समझना चाहिए कि उनकी आत्मा का विकास आरंभ हो गया, इनिशिएशन की प्रक्रिया चल पड़ी है।

यह भूमिका इस संदर्भ में प्रस्तुत की जा रही है कि परम पूज्य गुरुदेव के दृश्य जीवन को जिनने देखा है, वे उन अनेकानेक सिद्धि पराक्रमों से अभी भी अपरिचित हैं, जो संपन्न होते रहे किन्तु वे समझ नहीं पाए। प्रायः उनके स्तर के संत अपने अंतरंग स्वरूप को प्रत्यक्ष परिलक्षित नहीं होने देते यही कारण है कि हम ऐसे महामानवों के साधारण समझने की भूल कर जाते हैं। हमारे घरों में जैसे हमारे पिता, दादाजी, नानाजी, होते हैं, कुछ ऐसा ही स्वरूप पूज्यवर का था। खादी की धोती व एक सामान्य मोटे कपड़े का खादी का कुरता उनकी वेशभूषा थी। न दाढ़ी न जटाजूट न गले में माला, जो महामण्डलेश्वर अक्सर धारण किए रहते हैं। बोलचाल से लेकर सामान्य व्यवहार ऐसा कि कहीं भी विशिष्टता का आभास तक न हो। ऐसा कुछ उनका बहिरंग रूप था पर उस सबके पीछे जो “ऑकल्ट” था वह बहुत विलक्षण था एवं कई घटना प्रसंगों में इसकी झलक देखने को मिलती है।

नयी दिल्ली का एक परिवार है श्री बशेशरनाथ एण्ड सन्स। लाला बशेशर नाथ 1943-44 की अवधि में पूज्य गुरुदेव से जुड़े। उनके बेटे थे श्री शिवशंकर गुप्ता। अब वे तो नहीं है। उनके भाई, पुत्र आदि फर्म का काम संभाल रहे हैं। इन सभी के जीवनक्रम में बड़े अन्तरंग तक जुड़े रहे हैं-गुरुदेव। यह परिवार काफी बड़ा है पर प्रत्येक को ढेरों अनुदान ऐसे मिले हैं जिनके यह सभी जीती जागती साक्षी हैं। सबसे विलक्षण मामला तो स्वयं शिवशंकर जी का हैं। वे एल.एल.एम. थे व प्रखर प्रतिभा संपन्न। पूज्य गुरुदेव के निर्देशानुसार 1948, 49 से ही गायत्री व सविता का ध्यान नियमित करने लगे थे, फलतः व्यापार भी प्रगति पथ पर बढ़ता रहा। प्रति सप्ताह दिल्ली से मथुरा व बाद में हरिद्वार आना व उसी दिन पूज्य गुरुदेव से

मिलकर दर्शन कर वापस चले जाना, यही उनकी दिनचर्या थी। कुछ ऐसा कांट्रेक्ट था गुरु व शिष्य के बीच कि सप्ताह में एक दिन सबसे मिलना होता रहे।

प्रस्तुत प्रसंग 1981 का है। जब वे नहीं आए उनके स्थान पर उनके भाई व भतीजे ने आकर सूचना दी कि उन्हें ब्रेन हेमरेज (मस्तिष्कीय रक्त स्राव) हो गया है व वे अचेतावस्था में पड़े हैं। पूज्य गुरुदेव तत्काल साधना कक्ष में चले गए व एक घण्टे बाद निकल कर बोले कि कोई भी शिवशंकर का बाल नहीं बांका कर सकता, उनने अपने समीपस्थ एक चिकित्सक कार्यकर्ता को उनके साथ दिल्ली रवाना किया व घरवालों को आश्वस्त करने को कहा। उनकी पत्नी के लिए कहलवाया कि तेरा सुहाग हम अभी जिन्दा रखेंगे, अभी उसका समय नहीं आया है। सभी इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके थे कि मस्तिष्क में बढ़ रहे रक्त के दबाव को कम नहीं किया गया तो वाइटल सेर्ण्टस पर प्रभाव पड़ने से कभी भी जान जा सकती है व यह निर्णय तुरन्त लिया जाना चाहिए। दिल्ली से हरिद्वार फोन करने पर यही कहा गया कि ऑपरेशन नहीं कराना है। बेहोशी माँ गायत्री की कृपा से टूटेगी। चिकित्सकों के आग्रह को विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया गया व धीरे-धीरे न केवल बेहोशी मिटी, धीरे-धीरे वे बोलने, सबको पहचानने लगे। प्रायः तीन माह से अधिक की अवधि में रिकवरी भी हो गयी व धीरे-धीरे चलने फिरने लगे। बिना किसी औषधि के यह परिवर्तन कैसे हुआ कोई समझ नहीं पाया। उन्हें बराबर रट लगी थी कि हरिद्वार जाना है। प्रायः चार माह के अंतराल पर वे हरिद्वार आए। पूज्यवर ने उनसे कहा कि डेढ़-दो वर्ष में बच्ची की शादी व अन्यान्य सारी व्यवस्था कर लो। इससे अधिक हम तुम्हें नहीं रोकेंगे। वे समझ गए।

जो एक्सटेंशन की अवधि मिली थी उसमें उनने व्यवस्था−क्रम बिठाना आरंभ किया। फर्म की इनकम-टैक्स रिटर्न की सारी सूचनाएँ उनके ही पास थी। किसी मिलने वाले न विभाग को गलत सूचना देकर उनके हिसाब-किताब की इनक्वायरी चालू करवा दी। सब कुछ ठीक पाया गया किन्तु तीस वर्ष पूर्व के आँकड़े किस को याद रहते । जिस मस्तिष्क में रक्तस्राव हुआ था, उसी मस्तिष्क ने 1950 से अब तक के हर वर्ष के रिटर्न व फाइलों के नंबर बोलना चालू किए तथा अधिकारी हतप्रभ हो अपना रिकार्ड उनके बोले हुए से मिलाते चले गए। वे हक्का बक्का रह गए ऐसी विलक्षण स्मरण शक्ति देखकर वह भी इतनी लम्बी बेहोशी के बाद। उनके दिमाग की कैटस्कैनिंग फिल्में न्यूरोलॉजी की कान्फ्रेन्स में सर्जन्स के समक्ष रखी गयीं व सबने यही कहा कि ऐसे व्यक्ति को तो मर जाना चाहिए था। किन्तु उनके चिकित्सक ने बताया कि अपने “भगवान” की कृपा से वह व्यक्ति जिन्दा है व वे सभी उसे चेक कर सकते हैं। सब आश्चर्यचकित थे कि विज्ञान जिसकी व्याख्या नहीं कर सकता, वह चमत्कार क्यों व कैसे संभव हुआ? बाद में सारे दायित्व निभते ही ढाई वर्ष बाद दूसरी बार की तकलीफ में उनका देहान्त हो गया पर वे अपने बाद की सारी व्यवस्था कर गए थे अपने गुरु के निर्देशानुसार। मृत्यु को भी टालने की यह कौन सी नियन्ता के स्तर की व्यवस्था है? इसे तर्क बुद्धि से नहीं समझा जा सकता।

ऐसी ही एक घटना शाँतिकुँज में अभी रह रहे शोध संस्थान में कार्यरत एक कार्यकर्ता से संबंधित है। किन्हीं कारणोंवश हम यहाँ उनका नाम नहीं दे रहे। उसकी बड़ी इच्छा थी कि डाक्टरी की पढ़ाई तो कर ली व अब बाहर विदेश जाना चाहिए। पूज्य गुरुदेव से पूछ कर ही हर निर्देश लिए जाते थे। उनने कहा कि घूमने के लिए जाना है तो भले ही चले जायँ पर नौकरी या अध्ययन की दृष्टि से जाना अब ठीक नहीं है क्योंकि परिस्थितियाँ बाहर धीरे-धीरे विषम होंगी, वापस लौटने की स्थिति बनेगी नहीं तथा भारत में रहकर काम करने के अवसर अधिक बेहतर हैं। यह बात तो उसे शायद समझ में भी नहीं आ पाती किन्तु उनने कहा कि एक संकट इस वर्ष संभावित है, जिसे तुम्हारे भारत में बने रहने पर ही टाला जा सकता है। कुछ सोचकर जाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया यहीं भारत में ही एक नौकरी मिल गयी। उसी वर्ष एक भयंकर एक्सीडेण्ट में उसके हाथ व खोपड़ी के 5-6 फ्रैक्चर हो गए। यह दुर्घटना संयोग से हुई भी हरिद्वार में उस स्थान पर जिस पर से पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी कुछ देर पूर्व होकर गुजरे थे। संभवतः वे आए ही थे कोई आसन्न विपत्ति को टालने। एक्सीडेण्ट के बाद की सारी व्यवस्था किसी भले आदमी द्वारा उसे शाँतिकुँज लाना, अस्पताल पहुँचाना व फिर दिल्ली व फिर भोपाल में आपरेशन की सारी व्यवस्था बन जाना, दो माह में स्वस्थ होकर पुनः नौकरी पर आ जाना एक चमत्कारी सिक्वेन्स थी जिसका तारतम्य किसी भी बुद्धि से सोचने वाले के दिमाग में शायद न बैठ पाए।

उपचार के बाद पुनः पूज्य गुरुदेव के पास लौटने पर उस कार्यकर्ता को बताया गया कि अकालमृत्यु का संकट उस पर आया था जो इस दैवी दुर्घटना के माध्यम से टाल दिया गया। इसकी पुष्टि उसके पिता द्वारा भी की गयी जिनके पास दृश्य गणित के आधार पर बनी उसकी जन्म कुण्डली थी। पूज्यवर ने प्रेरणा दी कि अब इस नयी जिन्दगी का उपयोग समाज के लिए करना चाहिए। धीरे-धीरे स्पष्ट संकेत देते हुए उनने मिशन के लिए समर्पित जीवन जीने व पूरी तरह यहीं आकर कार्य करने का मन बनाने की बात कही व तब से वह कार्यकर्ता पूरी तरह से यहीं जुटा हुआ मिशन में सक्रिय है। चर्चा चलने पर वह बताता है कि सतत् मन से यही पुकार आती रही कि अब यह जीवन पूर्णतः समाज को अर्पित करना है। ढर्रे का जीवन न जीकर इसे नयी जिन्दगी मानते हुए लोकहित के कार्यों का करना है, यही उमंग खींचकर उसे सपरिवार यहाँ ले आयी। यह समझा जाना चाहिए कि महामृत्युँजय स्तर की सिद्धि प्राप्त महापुरुष ही व्यक्ति को देखकर उसकी भवितव्यता पर चिंतन कर मृत्यु भी टाल सकता है व छोटे स्तर पर टली विपदा द्वारा नया जीवन जीने की प्रेरणा दे सकता है। गायत्री की सिद्धि जिन्हें सर्वोच्च स्तर की प्राप्त हो, ऐसे परमपूज्य गुरुदेव ने अगणित व्यक्तियों को मौत के मुँह से लौटाकर उन्हें सृजन कार्यों से जोड़ा। यहाँ तो मात्र दो ही उदाहरण दिए हैं किन्तु ऐसे उदाहरण ढेरों है, अगणित परिजन जिसके साक्षी हैं।

हृदय रोगी हों अथवा अतिघातक व कष्टदायी कैंसर “माँ गायत्री से प्रार्थना करेंगे” मात्र इतना कहकर जिसे आशीर्वाद दे दिया, वह स्वस्थ हो गया। यही सिद्धि उनने वंदनीया माताजी की शक्ति में समाहित कर हरिद्वार आने पर पीछे से संचालन का दायित्व संभाल लिया तथा प्रत्यक्ष भूमिका संगठन से लेकर परिजनों तक की वन्दनीया माताजी को दे दी। सैकड़ों व्यक्ति अभी भी साक्षी दे देंगे इस बात की कि जो बात ऊपर पूज्य गुरुदेव किसी को कहते थे, शब्दशः वंदनीया माताजी के मुखारविंद से भी उसे निकलता देखा जाता था। जो शिव व शक्ति में भेद करते हैं उनके लिए यह एक जीता-जागता नमूना सामने है।

सबसे बड़ी बात जो पूज्यवर के जीवन प्रसंगों एवं घटनाक्रमों पर दृष्टि डालने पर समझ में आती है, वह यह कि वे असाधारण रूप से शिष्य का, परिजन का, भक्त का मनोबल बढ़ाकर उस पर एक ऐसा शक्तिपात करते थे कि वह जीवन संग्राम में अपने को लड़कर सफल होता पाता था। वे स्वयं कभी जीवन समर से भागे नहीं, संघर्ष किया। सतत् कार्य करते रहने की , पुरुषार्थपरायण बनने की सबको प्रेरणा देते रहे। अनेकों व्यक्तियों को अपनी जीवन-यात्रा में जो अवरोधों से जूझने की सामर्थ्य मिली उसके लिए वे विकसित आत्मबल को ही श्रेय देते हैं। मात्र एक पत्र परमपूज्य गुरुदेव को लिखकर भक्त निश्चिन्त हो जाता था कि अब विपत्ति मेरी नहीं, आपकी है। आप संभालिए वे संभाल लेते थे। ऐसे कई पत्रों के हवाले पाठक परिजन अगले अंकों में पढ़ेंगे।

कहीं-कहीं उनके पत्रों पर दृष्टि डालने पर उनके उस रूप के दर्शन होते हैं, जिसे अलौकिक कहा जाता है, “ऑकल्ट” या “सुपरनेचुरल” माना जाता है। केशर बहिन विश्राम भाई ठक्कर (अंजार कच्छ) को 29 दिसम्बर 1967 के एक पत्र में वे लिखते हैं-”प्रिय पुत्री तुम्हारा पत्र पढ़ते समय लगा कि तुम हमारे सामने ही बैठी हो हमारी गोदी में खेल रही हो। शरीर से तुम दूर हो किन्तु आत्मा की दृष्टि से हमारे अतिनिकट हो। हमारा प्रकाश तुम्हारी आत्मा में निरन्तर प्रवेश करता रहेगा और इसी जीवन में तुम्हें पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचा देगा। हम अपनी तपस्या का एक अंश तुम्हें देंगे और तुम्हें पूर्णता तक पहुँचा देंगे। हमारा सूक्ष्म शरीर तीन वर्ष बाद इतना प्रबल हो जाएगा कि बिना किसी कठिनाई के कहीं भी पहुँच सके और दर्शन दे सके।”

इससे बड़ा और क्या आश्वासन कोई राम अपनी शबरी को दे सकता है। जो केशर बहिन को जानते हैं, उन्हें उनकी भावसमाधि की स्थिति भी ज्ञात है व किस प्रकार अंत तक उन पर उनके इष्ट की कृपा निरन्तर बरसती रही, यह भी जानकारी है। ऐसी केशन बहित एक नहीं, पूरे भारत व विश्व में सहस्रों हैं जिनसे परम पूज्य गुरुदेव अपने जीवनकाल में जुड़े रहे व अनुदान बाँटते रहे। ऐसे अगणित शिवशंकरजी गायत्री परिवार में व समाज में हैं, जिन्हें उनने नवजीवन दिया। हम ही ऐसे सिद्ध स्तर के पुरुषों को समझने में भूल कर जाते हैं, उसे हमारी नादानी नहीं तो और क्या कहा जाय? (क्रमशः)


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