मनःस्थिति तो सही ही बनी रहे

January 1992

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सामान्यजनों की मनः स्थिति में परिस्थितियों के अनुरूप उतार चढ़ाव आते रहते हैं। बच्चा भूख लगने पर रोने और खिलौना मिलने पर हँसने लगता है पर बड़े होने पर व्यक्ति अपने पर नियन्त्रण करना सीखता है और ऐसे भाव प्रकट नहीं होने देता जिससे अपना उथलापन प्रकट होता हो। बचकानी मनोवृत्ति बच्चों को ही शोभा देती है । समझदार व्यक्ति यह भी ध्यान रखते हैं कि उन्हें अशोभनीय भावभंगिमा का प्रकटीकरण नहीं होने देना चाहिए ।

तिनके हवा के साथ उड़ते हैं पत्ते पानी के प्रवाह के साथ-साथ बहते हैं पर मनुष्य को मात्र सुविधा ही नहीं देखनी पड़ती यह भी सोचना पड़ता है कि औचित्य कहाँ है ? प्रतिष्ठा की रक्षा किस प्रकार होती है । जो ऐसा कुछ विचार नहीं करते उन्हें परमहंस या पागल कहते हैं व्यवहारवादी नहीं ।

मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अपने मनोवेगों पर नियन्त्रण करने का प्रयत्न करता है । पशु ऐसा नहीं कर पाता । आवश्यकताएँ या उत्तेजनाएं उसे तत्काल तद्नुरूप अनाचरण करने के लिए विवश कर देती हैं । किन्तु मनुष्य को सभ्य शिष्टाचार का भी पालन करना पड़ता है । उसे आवेगों को दबाना पड़ता है । इतना ही नहीं कई बार शिष्टाचार निर्वाह के लिए ऐसा भी कुछ करना पड़ता है जिसे करने के लिए वस्तुतः मन नहीं होता ।

भूखा बन्दर किसी की भी टोकरी से खाद्य पदार्थ लेकर भाग सकता है । पर मनुष्य शिष्टाचार का ध्यान रखता है और जहाँ से स्वेच्छापूर्वक न दिया जा रहा हो वहाँ से भूखा होते हुए भी बिना अपनी आवश्यकता प्रकट किये हुए चला जाता है । इसी प्रकार क्रोध आने पर उसे सर्वथा कार्यान्वित नहीं किया जाता है । आक्रमण करने या आवेश प्रकट करने में अधीर नहीं हुआ जाता । मन को रोका जाता है और अवसर न होने पर किसी प्रकार चुप रहकर काम चलाया जाता है । दूसरों का धन देख कर उसे उठाकर चल देने की जल्दबाजी नहीं की जाती । ऐसा करने पर होने वाले परिणामों पर भी विचार किया जाता है और ललक को मन में उठने के साथ ही उसे दबोच लिया जाता है । किसी का सौंदर्य देखकर मन ललचाया हो तो भी उस ओर टकटकी लगाकर देखने की इच्छा पर काबू रखा जाता है । शिष्टता के नाते आंखें नीची करके ही रखी जाती है ।

जन्म जन्मान्तरों की संचित पशु प्रवृत्तियाँ आये दिन ऐसा कुछ करने की प्रेरणा देती रहती हैं जिससे उठती हुई आकाँक्षा को तत्काल पूरा किया जाय । किन्तु सभ्य समाज का सदस्य होने के नाते वैसा ही कुछ कर गुजरने पर नियन्त्रण किया जाता है और मन को समझाने से लेकर धिक्कारने तक के तरीके अपनाकर उस प्रकार रहा जाता है जिसमें प्रतिष्ठा बनी रहे । इसी प्रकार लोक-लाज का ध्यान रखते हुए ऐसा क्रियाकलाप अपनाया जाता है जिससे प्रतिष्ठा बनी रहे और उँगलियाँ उठने का-लाँछन लगने का प्रसंग न आये ।

परिस्थिति के अनुरूप अपनी भावभंगिमा प्रकट करना या आचरण करना हर किसी के लिए संभव नहीं है । उथली प्रकृति के लोग ही ऐसा करते रहते हैं पर जिन्हें मानवी गरिमा का बोध है स्वाभिमान का ध्यान है उन्हें मन के इशारे पर नहीं चलना पड़ता वरन् मन को पग-पग पर दबोचना पड़ता है । अनगढ़ पशु प्रवृत्तियों को उछलने न देने का प्रयत्न किया जाता है । यह द्वन्द्व अन्तःकरण में इस हद तक शमन किया जाता है कि वैसा कुछ आचरण बन पड़ने की नौबत न आये । इसी अभ्यास की सफलता का सुसंस्कारिता उद्विग्न, तृषित और असन्तुष्ट भ्रमण करता रहेगा । जिसे सच्चे प्रेम का एक कण भी मिल जाता है वह अपने भाग्य को सराहता है । अभाव और दरिद्रता के रहते हुए भी जिसे प्रेम के कुछ कण उपलब्ध हो जाते हैं वह अपने आपको किसी बड़े अमीर से कम सुखी नहीं मानता । माता का, पत्नी का , भाई का , मित्र का, जनता का प्रेम जिसे प्राप्त है उसे जीवन की सबसे बड़ी विभूति मिल गई यही मानना पड़ेगा ।

प्रेम के मूल में आत्मीयता रहती है । स्वार्थ, मोह , रूप यौवन, वासना, उपयोगिता, प्रतिभा, आदि के बाह्य आकर्षणों से भी कई बार प्रेम जैसी लगने वाली घनिष्ठता उत्पन्न हुई दिखाई देने लगती है, पर उसकी जड़ नहीं होती, इसलिये वे बाह्य कारण समाप्त होते ही वह तथाकथित प्रेम भी बालू की भीत की तरह ढह जाता है प्रेम में गहराई , स्थिरता एवं आत्मत्याग की स्थिति तभी रहेगी जब आत्मीयता की निष्ठ का समावेश हो । जो अपना है उसके साथ त्याग , सेवा, सौजन्य , स्नेह और उदारता के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार का व्यवहार नहीं किया जा सकता । जिस प्रकार ईश्वर को घट-घट वासी , सर्वव्यापी , निष्पक्ष और कर्मफल प्रदाता मानने वाला सच्चा आस्तिक मनुष्य कुविचारों और कुकर्मों से दूर ही रहेगा उसी प्रकार प्रेम की भावनाएँ जिसके उमड़ेंगी वह दूसरों के साथ सौजन्यपूर्ण सद्व्यवहार ही करेगा , उदारता बरतेगा और स्वयं कष्ट में रह कर दूसरों को सूखी बनाने का प्रयत्न करता रहेगा। आस्तिकता और प्रेम भावनायें जब भी विकसित होती हैं तब सदाचार और सद्व्यवहार ही उनका बाह्य रूप प्रकाश में आता है ।

आत्म-सन्तोष और आत्म-सम्मान यह दो ही आत्मा की प्रधान आवश्यकता, मुख्य क्षुधाएँ हैं । उनकी तृप्ति से-उनकी पूर्ति से ही आत्मा को सच्ची तृप्ति का अनुभव होता है और वह शान्ति तथा सन्तोष उपलब्ध करती है । इन दोनों की तृप्ति पूर्णतया अपने हाथ में है । शरीर से सत्कर्म करते हुए , मन में सद्भावनाओं की धारणा करते हुए जो कुछ भी काम मनुष्य करता है वे सब आत्मसन्तोष उत्पन्न करते हैं । सफलता की प्रसन्नता क्षणिक है, पर सन्मार्ग पर चलते हुए कर्तव्य पालन का जो आत्म-सन्तोष है उसकी सुखानुभूति शाश्वत एवं चिरस्थायी होती है । गरीबी और असफलता के बीच भी सन्मार्गगामी व्यक्ति गर्व और गौरव अनुभव करता है।

आत्म-सम्मान का आधार दूसरों को सम्मान देने में है। गुम्बज वाले मकानों में होने वाली प्रतिध्वनि की तरह हमें वही आवाज सुनने का मिली है जो हमने बोली थी । यदि गाली दें तो गली और भजन गावें तो भजन वह गुम्बज वाले मकान प्रतिध्वनि के रूप में दुहरा देता है । दर्पण में हमें अपनी ही परछाई दिखाई देती है । अपना जैसा ही कुरूप या रूपवान चेहरा होता है वही लौटकर दिखाई पड़ता है । इस संसार का व्यवहार भी गुम्बजदार मकान या दर्पण जैसा ही होता है यदि हम दूसरों का सम्मान करते हैं तो बदले में हमें सम्मान मिलते हैं । अपने मन में यदि दूसरों के प्रति प्रेम एवं आत्मीयता भरी रहे तो बदले में दूसरी ओर से भी हमें यही सब मिलेगा ।

ईश्वर का एक नाम है प्रतिध्वनि । जैसी भी हम गहरी वादी में आवाज लगाते हैं वही लौट कर हमारे पास आती है । हम यदि कहते हैं “तुम बहुत अच्छे हो “ तो वही लौटकर हमें भी यही संदेश देती है कि हम बहुत अच्छे हैं । सम्मान जितना दूसरों को दिया जात है , उससे बढ़े चढ़े परिमाण में लौटकर आता है । स्मरण रखें ! सहयोग लिया जा सकता है पर सम्मान व श्रद्धा अर्जित की जाने वाली विभूतियाँ हैं। आत्मसन्तोष व आत्म सम्मान अन्तर्मुखी होने पर मनुष्य को सहज ही मिलने लगते हैं । कहते हैं । सुसंस्कारी व्यक्तियों के मन में भी हीन और हेय विचारणाएँ उठती रहती हैं पर उनकी विशेषता यही है कि वे विवेक को हाथ से नहीं जाने देते प्रतिष्ठा पर आँच आने का प्रसंग उपस्थित करने की स्थिति नहीं बनने देते । इसी प्रयोजन को पूरा करते रहने में सहायता कर सकने के लिए धर्म-नीति सदाचार अध्यात्म के तत्वज्ञान का सृजन हुआ है । उन विधाओं में एक ही तथ्य हृदयंगम कराने का प्रयत्न किया गया है कि पशु प्रवृत्तियों को उभरने से पूर्व ही उस दार्शनिक पद्धति द्वारा समाधान कर दिया जाय । चरित्र को उज्ज्वल रखने के लिए आवश्यक चिन्तन को ही तत्वदर्शन कहते हैं । ईश्वर, कर्मफल, परलोक आदि का ढाँचा मनीषियों ने इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया है कि व्यक्ति का स्वभाव और व्यवहार शालीनता से सुसम्पन्न बना रहे । व्यक्ति की गरिमा इसी एक तथ्य पर निर्भर है कि वह कुत्साओं और कुण्ठाओं पर काबू पाने आन्तरिक महाभारत अर्जुन की तरह निरन्तर लड़ता रहे ।

मनोनिग्रह साधना विज्ञान का अनिवार्य पक्ष है । उसके लिए यही करना पड़ता है कि चिन्तन क्षेत्र में अवाँछनीयताएँ उद्दण्डतायें पनपने न पायें । जब उठें तो तत्काल उन्हें खेत के खरपतवार की तरह उखाड़ फेंका जाय । आँगन के कूड़ा करकट की तरह बुहार दिया जाय ।

मनोनिग्रह का दूसरा पक्ष है उसे सौजन्य-सद्भाव के ढाँचे में ढाल लेना । अनगढ़ वस्तुएँ इसी प्रकार सुगढ़ बनायी जाती हैं । खदान से मिट्टी मिला लोहा निकलता है । भट्टी में तपाकर उसे शुद्ध किया जाता है । इसके उपरान्त उसे उपयुक्त साँचे में ढालकर महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में विनिर्मित किया जाता है । मन को भी इसी प्रकार कुसंस्कारी आवेगों से छुटकारा दिलाकर सुसंस्कारी बनाया जाता है ।

सुसंस्कारिता के अनेक प्रयोग और पक्ष हैं पर उनमें सबसे लाभदायक और सबसे सरल है प्रसन्नता की मुख मुद्रा । यदि यह अभ्यास बन पड़े तो व्यक्तित्व अनायास ही निखर पड़ता है और सौंदर्य से भरा पूरा आकर्षक दीख पड़ने लगता है । इस उपलब्धि से कुरूप भी सुन्दर लगने लगते हैं और अभावग्रस्त भी दूसरों को सफल सुसम्पन्न जैसे लगते हैं । दूसरों को प्रभावित करने में वे प्रकाश जैसे और आकर्षित करने में चुम्बक जैसे लगते हैं ।

मोटी परख यह है कि जो समर्थ और सफल हैं उनकी मुखाकृति प्रसन्नता भरी रहती है । दूसरे इसी आधार पर किसी की मनः स्थिति और परिस्थिति का अनुमान लगाते हैं । जिस प्रकार यौवन का सौंदर्य हर किसी की आँखों को सुहाता है उसी प्रकार प्रसन्नता का प्रकटीकरण यह बताता है कि इसने अभावों और विग्रहों पर विजय प्राप्त कर ली । ऐसे लोग पराक्रमी और भाग्यवान माने जाते हैं । उनकी निकटता सभी को प्रिय लगती है । खिले फूलों पर पर सभी की आँखें ललचाती हैं । मधुमक्खियों और तितलियों की तरह भीड़ उनसे कुछ पाने के लिए इर्द-गिर्द मँडराती रहती है । हँसता व्यक्ति ही दूसरे को हँसाते रहने में समर्थ होता


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