सच्ची सिद्धि

January 1992

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भौतिक सिद्धियाँ तो उन जीव जन्तुओं में भी पाई जाती हैं जो चलते समय पैर के नीचे कुचले जाते हैं । मक्खी आकाश में उड़ सकती है, बतख पानी पर चल सकती है, मछली जल में रह सकती है, गीध दूर तक देख सकता है , मकड़ी को वर्षा का भविष्य ज्ञान रहता है, जुगनू का तेज चमकता है, सर्प दंश से क्षण भर में मृत्यु होती है, कहते हैं नीलकंठ पक्षी के दर्शन से लक्ष्मी मिलती है । गिरगिट कई तरह के रंग बदलता है । यदि इन्हीं सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए साधना की जाय तो सफलता के अंतिम शिखर पर चढ़ते-चढ़ते वहाँ पहुँचा हुए हैं ।

लोगों को कौतूहल दिखाकर अपनी विशेषता सिद्धि करने की आत्मश्लाघा पूरी करने की ही यदि हविस हो तो इसके लिए इतनी कष्ट साध्य-गतिविधि अपनाने और सामान्य सुख-सुविधाएँ छोड़ने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है । लोगों को अचम्भे में डालने का काम बाजीगर बड़ी अच्छी तरह करते हैं । वे इतनी अच्छी तरह प्रदर्शन करते हैं कि आश्चर्यचकित होना पड़ता है उन्हें करना भी मुश्किल नहीं है। हाथ की सफाई का अभ्यास थोड़े दिनों में हो जाता है और बाजीगरी सिखाने वाले उन रहस्यों को सिखा भी सकते हैं ।

देखना यह है कि इससे अपना क्या लाभ हुआ और क्या दूसरों का हित साधन हुआ ? दो रुपए नाव वाले को देकर नदी पार हो सकती है । रोज तो कोई पानी पर चलता नहीं हर जगह पुल हैं । नावें मौजूद हैं इस सिद्धि को कोई व्यक्ति बहुत कष्ट सहकर प्राप्त कर ले तो उसे दो रुपये नाव वाले को न देने भर की बचत हुई । बीमार को अच्छा करने में सिद्ध पुरुष जितना लाभ पहुँचाते हैं उससे हजारों गुने अधिक रोगी एक डाक्टर अच्छे करता है । योगी कितने अन्धों को आँखें देगा पर आँख के डाक्टर तो अपनी जिन्दगी में हजारों अन्धों को अच्छा करते हैं । योगी बनने की अपेक्षा डाक्टर बनना क्या बुरा है ? उसमें कष्ट भी कम और लाभ भी अधिक। भारत से इंग्लैंड उड़कर जाने की सिद्धि बहुत तप के बाद मिलेगी परन्तु हवाई जहाज में थोड़ा सा किराया देने पर यह कार्य आसानी से हो सकता है । दूर दर्शन दूर श्रवण के लिए अब रेडियो, टेलीफोन, टेलीविजन मौजूद हैं तो फिर उन सिद्धियों को प्राप्त करने की क्या जरूरत रह गई।

उपासना, तपश्चर्या और योगाभ्यास का मात्र एक ही प्रयोजन है अपने अन्तःकरण में प्रस्तुत अगणित सत्प्रवृत्तियों का जागरण, सद्भावनाओं का उन्नयन। दृष्टिकोण में परिष्कार। कर्तव्य में देवत्व के समावेश का अभ्यास। उपासना की उत्कृष्टता साधना की प्रखरता इसी कसौटी पर परखी जाती है। इसी से अपना भला होता है इसी से संसार का।

जीवात्मा को परमात्मा से जोड़ देना। अन्तःकरण को प्रेम से लबालब भर देना-निश्छल निर्मलता विकसित करना और लोकमंगल के लिए आत्मोत्सर्ग करना। ये सिद्धियाँ जिनके पास हैं असल में वे ही सच्चे उपासक और सिद्ध पुरुष हैं। जब भी कभी साधना से सिद्धि का प्रसंग आए तो हमें जानना चाहिए कि पात्रता का विकास आत्मशोधन, परोपकार के अर्जन से बड़ी कोई योग साधना नहीं। यह असंख्य सिद्धियों का द्वार खोलती है। रास्ता लम्बा जरूर है, श्रम साध्य एवं कष्ट साध्य भी। किन्तु इस मार्ग का अवलम्बन लेने वाले किस तरह श्रेयार्थी बनते प्रगति के उच्चतम सोपानों का पार करते चले जाते हैं, यह महामानवों के जीवन को देखकर भली भाँति जाना जा सकता है।

जन-जन में बहुत बड़ी भ्रान्ति सिद्धियों को लेकर संव्याप्त है। थोड़ा सा पुरुषार्थ करने से ही सब कुछ मिलने की बात न जाने कहाँ से लोगों के दिमागों में घर कर गयी है। यह भी मान्यता है कि इसके लिए आत्मशोधन जरूरी नहीं। वस्तुतः सारी सिद्धियाँ विकसित परिष्कृत व्यक्तित्व के चारों ओर मँडराती रहती हैं। आध्यात्मिक साधनाएँ यही सिखाती हैं कि कैसे अनगढ़ता से सुगढ़ता की यात्रा पूरी की जाय। चिंतन को कैसे परिष्कृत किया जाय तथा आत्मसत्ता को विराट सत्ता के प्रति समर्पित होने का शिक्षण कैसे दिया जाय? इतना भर करने से ऋद्धि-सिद्धियों का रहस्योद्घाटन अपने ही अंतराल से होने लगता है।


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