आगामी नौ वर्ष अति महत्वपूर्ण

January 1992

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स्वाति की बूंदें सीप में मोती, केले में कपूर और बाँस में वंशलोचन पैदा करती हैं। वैसे बरसात तो अन्य नक्षत्रों में भी होती है, पर उनकी बूँदें इस प्रकार का परिणाम प्रस्तुत करने में सर्वथा अक्षम होती हैं। रबी की फसल यदि खरीफ के मौसम में बोयी जाय, तो खाद-पानी सब कुछ के होते हुए भी परिणति अकाल जैसी सामने आती है। भाँति-भाँति के फल-फूल अपनी-अपनी ऋतु में समय आने पर ही फलते-फूलते हैं, हथेली में सरसों जमाने की तरह वे तुरन्त उगते, पनपते और फल नहीं देने लग जाते, पर कई अवसरों पर ऐसा अचम्भा होते देखा जाता है, जिसमें कम समय व श्रम में आशातीत सफलता हस्तगत होती दृष्टिगोचर होती है। यह समय विशेष की महत्ता है। उपासना उपक्रमों में भी इसकी उपादेयता स्पष्ट परिलक्षित होती है।

सर्वविदित है कि इन दिनों हम युगसंधि वेला से गुजर रहे हैं, जिसमें एक युग-कलियुग की समाप्ति और दूसरे, प्रज्ञायुग का शुभारंभ होने जा रहा है। इन्हीं कारणों से प्रस्तुत समय को युगसंधि काल कहा गया है। संक्रान्ति काल को शास्त्रों में विशेष महत्व का माना गया है और कहा गया है कि इन अवसरों पर की जाने वाली उपासना तत्काल फलदायी होती है। अन्य मौकों पर जिनके सुखद सत्परिणाम के लिए वर्षा और जन्मों तक इन्तजार करना पड़ता है, वे उपरोक्त अवधि में अत्यन्त सरलतापूर्वक सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं।

प्रायः दिन और रात्रि के मिलन काल को संध्याकाल कहते हैं। इस हिसाब से प्रतिदिन दो संध्याएँ होती हैं- एक प्रायः एवं दूसरे सायं की। एक में रात्रि का गहन अन्धकार छँटता और प्रकाश में बदलने लगता है, तो दूसरे में दिनमान का स्थान निशा की सघन तमिस्रा तीसरी संध्या भी बतायी है। पूर्वाह्न और अपराह्न की मिलन वेला होने के कारण ही उन्होंने इसे संध्या की मान्यता प्रदान की है। इस प्रकार संध्या का सामान्य अर्थ दो कालों को समन्वय हुआ किन्तु इस शब्द की व्युत्पत्ति की दृष्टि से विचार करें तो यह सम ध्यै अन् अप (स्त्री) से बना प्रतीत होता है। ‘ध्यै’ धातु का अर्थ होता है- ध्यान करना। इस तरह व्याकरण की दृष्टि से संध्या का तात्पर्य हुआ भगवद् सत्ता का स्मरण करना, उस पर चित्त को एकाग्र करना इसलिए इस अवधि को इतना महत्वपूर्ण माना गया है और उसे प्रमाद में न गुजार देने की सलाह दी गई है। अतएव इस दौरान भोजन करना, सोते रहना, मैथुन करना आदि कितने ही कार्य निषिद्ध घोषित किये गये हैं और उक्त समय को ईश्वराराधन, सन्ध्यावन्दन जैसे आत्मोन्नति के कार्यों, में लगाने का निर्देश किया गया है। क्योंकि वह समय जिन कार्यों के लिए सूक्ष्म दृष्टि से अधिक उपयोगी है, वही कार्य करने में थोड़े ही श्रम से अधिक व आश्चर्यजनक सहायता मिलती है। इसी तरह जो क्रियाएं वर्जित हैं, वे उस समय में अन्य समयों की अपेक्षा हानिकारक होती हैं। कोई विद्यार्थी ब्रह्ममुहूर्त काल में किसी विषय को जितनी अच्छी प्रकार याद व गहराई से हृदयंगम कर सकता है, वैसा अन्य वेला में सहज ही संभव नहीं हो पाता।

आरोग्य शास्त्र के मर्मज्ञ जानते हैं कि चैत्र और आश्विन मास में जो सूक्ष्म ऋतु परिवर्तन होता है, शरीर पर उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। प्रत्यक्षतः तो इससे ऐसा जान पड़ता है, कि ये हारी-बीमारी और आधि-व्याधि को आमंत्रित कर व्यक्ति को अक्षम, अशक्त और रोगी बना रहे हैं, पर प्रकृति विज्ञान से परिचित व्यक्ति को यह बताने की तनिक भी आवश्यकता नहीं होती कि यह सब प्रकृति-व्यवस्था के अंतर्गत होने वाली सामान्य प्रक्रिया है। वे इसे भलीभाँति जानते हैं कि पिछले छः महीनों में व्यक्ति ने जो आहार-विहार में प्रमाद बरता है, अभक्ष्याभक्ष्य भक्षण किया है, संयम-नियम में जो व्यतिक्रम अपनाया है, उसी का परिमार्जन-परिशोधन इस रूप में सामने आ रहा है। इस प्रकार अन्नमयकोश का स्वतः शोधन आरंभ हो जाता है। ऐसे समय में उपासना के माध्यम से शेष कोषों के परिष्कार का उपक्रम अपनाया जाय, तो प्रतिफल दिव्य वरदान की तरह सामने आता है। इसी कारण से उक्त मासों में प्रतिपदा से लेकर नवमी तक के नव दिनों को विशेष महत्व का माना गया है और आर्ष ग्रन्थों में इसकी विरुदावली नवरात्रि के धर्मानुष्ठानों के रूप में गायी गई है तथा प्रत्येक व्यक्ति से इस अवसर पर उपासना-विधानों में संलग्न रहकर कम समय व श्रम में अधिक लाभ उठाने का परामर्श दिया गया है।

युगसन्धि के आने वाले नौ वर्ष ऐसे ही अतिशय महत्व के हैं, जिनमें की जाने वाली स्वल्प मात्रा की उपासना भी साधक को उस विभूति-अनुभूति से निहाल कर सकती है, जिसके लिए अन्य मौकों पर उपासक चातक पक्षी की तरह स्वाति-बूँद को पा लेने की आकाँक्षा लम्बे काल तक सँजोये रह कर उसे हस्तगत कर लेने की प्रतीक्षा उत्सुकतापूर्वक करता रहता है। संधिकाल के विगत वर्षों को चावल पकाने से पूर्व पानी गर्म करने की पूर्व भूमिका सम्पन्न करने जैसा माना जाना चाहिए। जब उबलते जल में चावल के दाने डाले जाते हैं, तो आधे घंटे जितनी स्वल्प अवधि में पक कर तैयार हो जाते हैं। प्रस्तुतः समय में बीते वर्षों को विभिन्न उपाय-उपचारों के माध्यम से वातावरण को गरम करने के समतुल्य समझा जाना चाहिए। सभी जानते हैं कि स्वाधीनता के दिनों में महर्षि अरविंद और रमण ने अपनी प्रचण्ड साधना पुरुषार्थ की परोक्ष भूमिका द्वारा वातावरण को इस कदर इतना गर्म किया कि एक साथ गाँधी, विनोबा, सुभाष चन्द्र बोस, भगतसिंह, आजाद प्रभृति इतने महामानवों का अवतरण हुआ जिनने गुलामी के पाश को एक झटके में तोड़ कर देश को स्वतंत्र बना दिया।

अब तक के शतकुण्डी सहस्रकुण्डी गायत्री यज्ञों दीपयज्ञों की शृंखला व सामूहिक एवं व्यक्तिगत गायत्री उपासना ऐसे ही अनुकूल वातावरण बनाने में रच-पच गई। अगले वर्ष से सन् 2000 तक का समय अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसे गर्भधारण और शिशु जन्म के नौ माह के मध्यान्तर के तुल्य समझा जात सकता है। इस काल में साधक यदि तनिक सा संयम-नियम का परिपालन करते हुए उपासना क्रम अनवरत जारी रख सके, तो प्रतिफल किसान के लहलहाते खेत की तरह प्राप्त किया जा सकता है।

यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि संधिकाल के नव वर्ष ही महत्वपूर्ण क्यों? इसका उत्तर आप्त ग्रंथ यह कहकर देते हैं कि भारतीय संस्कृति में नौ की संख्या अत्यन्त महत्वपूर्ण मानी गई है। नवदुर्गाओं की ही पुण्य वेला में भगवती दुर्गा का अवतरण हुआ था। चैत्र नवरात्रि के अन्त में जन्म लेकर भगवान राम ने इस धरती को पवित्र किया था। इसके अतिरिक्त अन्य कितने ही कारण ऐसे हैं, जिसके कारण आने वाले नव वर्ष को श्रेष्ठ व निर्णायक भूमिका अदा करने वाला माना जा सकता है। नवग्रह, नवधाभक्ति, वीभत्सादि नवरस, नवरत्न, गीतादि ग्रन्थों को नवान्ह पारायण, नवरंग (बैनीआह्पीनाल-अल्ट्रावायलेट, इंफ्रारेड) नवरात्रि, यज्ञोपवीत के नवसूत्र, तीन चरणों वाली गायत्री के नवशब्द, नवदुर्गा (शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री), नवनिधि, नवपत्रिका (केला, अनार, हल्दी, मानकच्चू, कच्चू, धान, अशोक, बेल और जयन्ती पवित्र माने जाते हैं और पूजन के काम आते हैं), नवब्रह्मा भृगु, क्रतु, पुलस्त्य, पुलह, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि वशिष्ठ-वायु. 9/68/69), नववर्ष (भारतवर्ष, किंपुरुषवर्ष, हरिवर्ष, इलावृतवर्ष, रम्यकवर्ष, हिरण्मयवर्ष, कुरुवर्ष, भद्राश्ववर्ष, केतुमालवर्ष, वायु 34.9) नववीथी (ब्रह्माँ 3.3.33.59), नवशक्ति (प्रभा, माया, जया, विजया, सूक्ष्मा, विशुद्धा, नन्दिनी, सुप्रभा, सर्वसिद्धिदा), नवकुमारी अथवा नवदेवी (कुमारिका, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, काली, चंडिका, शाँभवी, दुर्गा, सुभद्रा) आदि आर्ष वाङ्मय में ऐसे अगणित संदर्भ हैं, जो नौ की संख्या की महत्ता को उजागर करते हैं।

इस आधार पर आने वाले नव वर्ष को अतिमहत्वपूर्ण माना जाय, तो इसमें अत्युक्ति जैसी कोई बात नहीं है। वैसे भी संक्रमण काल होने के नाते उक्त समय की महत्ता बढ़ जाती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए एवं यह विचारते हुए कि हर समय में उपासना उतनी फलदायी नहीं होती, जितनी किसी समय विशेष में की गई। यदि साधक अपनी उपासनाक्रम थोड़ी तत्परता और निष्ठापूर्वक जारी रख सकें, तो आगामी समय में वह न सिर्फ स्वयं धन्य बन सकेंगे, वरन् समय को भी अपने बहुमूल्य योगदान से ओतप्रोत कर देंगे। वैज्ञानिक जानते हैं कि सूर्य संबंधी प्रयोग-परीक्षण चाहे जब कभी नहीं किया जा सकता। जब पूर्ण सूर्यग्रहण का योग बनता है, तभी उनके यंत्र-उपकरण खनकने लगते हैं और ऐसे ही अवसर पर वे तत्संबंधी किसी सुनिश्चित निर्णय-निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। आगामी समय को ऐसा ही महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए और इसका समुचित लाभ थोड़े ही श्रम में पा लेने में साधकों को कोई कोर-कसर उठा न रखना चाहिए।


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