दैनिक जीवन का व्यावहारिक अध्यात्म

January 1992

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उपयुक्त साधनों या अवसरों को सौभाग्य का चिन्ह माना जाता है। समझा जाता है कि जिसे जितने सुविधा साधन उपलब्ध हो सकेंगे, जितनी अनुकूलता रहेगी उतना ही सुखी रहा जा सकेगा। प्रगति की दिशा में बढ़ सकना उतना ही अधिक संभव होगा। यह मान्यता आँशिक रूप से ही सत्य है। क्योंकि देखा यह गया है कि अनुकूलताओं की प्रचुरता रहने पर भी लोग खिन्न उद्विग्न बने रहते हैं। परेशान होते और हैरान करते रहते हैं। यह विपन्नता सदुपयोग-दुरुपयोग के कारण बन पड़ती है। साधन दुधारी तलवार हैं उनका सदुपयोग कर सकने वाली विवेक बुद्धि साथ में हो तो ही समझना चाहिए कि उपयोगी लाभ मिलेगा। अन्यथा दुरुपयोग बन पड़ने पर तो विपत्ति ही आ खड़ी होती है। निहत्था व्यक्ति स्वयं को और दूसरों को कम ही हानि पहुँचा सकता है पर यदि कोई आत्मरक्षा के लिए मिले अस्त्र-शस्त्रों का दुरुपयोग करने लगे तो उससे मात्र अपना और दूसरों का अनर्थ ही हो सकता है।

मनुष्य जीवन इतना बहुमूल्य है कि उसकी तुलना में संसार की समस्त सम्पदा भी कम पड़ती है। आँखें न हों तो संसार भर में मात्र अँधेरा ही अँधेरा रहेगा। कान सुनना बन्द कर दें तो वार्तालाप सुनने का आनन्द समाप्त हुआ ही समझा जाय। शरीर रोगी हो तो किसी भी इन्द्रिय से कोई भी आनंद लाभ प्राप्त करने का अवसर नहीं हो।मस्तिष्क पर उन्माद चढ़ दौड़े तो समझना चाहिए कि समूचे की गतिविधियां उलटी दिशा में चल पड़ी। मर जाने पर तो यही अनुभव होता है कि यह भूलोक अस्तित्वहीन हो गया। अपनी सुसंस्कारिता ही असंख्यों का सहयोग सम्मान अर्जित करती है। दुर्बुद्धि घेरे हुए हो अनगढ़ आदतें स्वभाव में घुसी हुई हों तो पग-पग पर ऐसे आचरण बन पड़ेंगे कि निराशा असफलता और खीज ही हाथ लगे। इसके विपरीत गुण, कर्म, स्वभाव में शालीनता का बाहुल्य हो तो अभावों और प्रतिकूलताओं के बीच भी किसी प्रकार शान्ति से रहने और चैन से रहने देने का अवसर मिल जायगा। साधनों का अनुकूलता का, महत्व यहाँ नकारा नहीं जा रहा है पर कहा यह जा रहा है कि व्यक्तित्व पर छाई हुई कुसंस्कारिता हर सुयोग का दुरुपयोग ही करती रहेगी और उसके बदले विपन्नता ही अर्जित करती रहेगी। इसलिए जीवन की महत्ता महिमा के साथ ही उपलब्धियों का सदुपयोग कर सकने का दूरदर्शी विवेक भी जुड़ा रहना आवश्यक है। उसके अभाव में ईश्वर की दी हुई यह अनुपम धरोहर भारभूत ही बनी रहेगी। पूर्णता प्राप्त करने का श्रेय प्राप्त करने के लिए इस धरती पर आया मनुष्य निरन्तर घुटन और जलन ही अनुभव करता रहेगा। दिन-दिन पतन के गर्त में उतरेगा और मरते समय पाप का पिटारा ही सिर पर लाद कर ईश्वर के दरबार में पहुँचेगा। इसे सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदल देना ही कहा जायगा।

शारीरिक संरचना और बौद्धिक विशेषता के कारण मानवी सत्ता कुछ इस प्रकार की बन पड़ी है कि उसके द्वारा इस आनंद से भरे पूरे संसार का पग-पग पर असीम लाभ उठाया जा सके। मनः स्थिति का सही रखना पूरी तरह अपने हाथ की बात है। यदि वैसा बन पड़े तो किसी को भी परिस्थितियों की प्रतिकूलता का रोना न रोना पड़ेगा। अपनी शालीनता के चुम्बकत्व से अनुकूलताएँ खींच बुलाई जा सकती हैं। जो हाथ में है उसी का सदुपयोग बन पड़े तो समझना चाहिए कि सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुल गया। पात्रता के अनुरूप ही किसी को कुछ मिलता है। घनघोर वर्षा होने पर भी अपने हिस्से में उतना ही पानी आता है जितना गहरा बर्तन पास में हो। यह गहराई कितनी हो, इसका चयन और निर्धारण पूरी तरह अपने हाथ की बात हैं। जो कमी दीख पड़ती है और उसकी पूर्ति पुरुषार्थ के सहारे अर्जित की जा सकती है । मनुष्य पराक्रम का पुँज है। उसका यदि वह सुनियोजित रीति

के साथ उच्चस्तरीय उद्देश्य के लिए जीने के लिए योजनाबद्ध विधा अपना ले तो निश्चय ही इस स्तर का जीवन जी सकता है जिसमें न तो निर्वाह के सुविधा साधन कम पड़े और न तृप्ति, तुष्टि और शान्ति से वंचित रहना पड़े।

मनुष्य जीवन इतना भारी नहीं है कि उसका वजन न ढोया जा सके। वह इतना उलझा हुआ भी नहीं है कि उसकी उलझनों को सुलझाया न जा सके। समस्याएं कई प्रकार की आती हैं पर वे सभी सुधारी जा सकने, हल किये जा सकने योग्य हैं।दुनिया में बेशक काँटे और कंकड़ पड़े हैं पर वे इतने नहीं कि मजबूत जूते पहनकर उन्हें रौंदते हुए न चला जा सके। पहाड़ों की चट्टानों के बीच में जरा सी मिट्टी और नमी पाकर बीज उगना आरंभ कर देता है और जगह बनाते हुए विशाल वृक्ष का रूप धारण करता है। इसके लिए उन्हें सतत् प्रयत्न करते रहना पड़ता है। जड़ें अपने लिए फैलने की जगह तलाश करती हैं और जिधर गुंजाइश देखती हैं उधर ही प्रवेश पाकर पेड़ को खुराक पहुँचाती हैं। पर्वत शिखरों पर उगे हुए अधिकाँश वृक्ष इसी रीति-नीति का अपनाकर समूचे वन प्रदेश को आच्छादित करते हैं। दूसरी ओर वे छुई मुई जैसे जीवट विहीन पौधे हैं जो तनिक सी सर्दी गर्मी पाकर अपना अस्तित्व गँवा बैठते हैं। मनुष्य जैसा कुछ है अपनी निज की विचारणा का प्रतिफल है। श्रमशील-तत्परता और संकल्प-निष्ठ-तन्मयता के आधार पर हर कोई अपने में इतनी शक्ति अर्जित कर लेता है जिसके अनवरत प्रयोग से क्रमिक प्रगति की दिशा में निरन्तर आगे बढ़ा जा सके। प्रगतिशील अनुकरणीय और अभिनंदनीय जीवन जिया जा सके।

आवश्यकता इस बात की है कि सृष्टि के समस्त प्राणियों की तुलना में असाधारण रूप से समुन्नत स्तर के इस जीवन का महत्व,स्वरूप और उद्देश्य समझा जाय। उसके सदुपयोग का सुनियोजित निर्धारण किया जाय। इतना बन पड़ने पर आगे की मंजिल अपने आप खुलती और मिलती जाती है। अड़चन एक ही है कि बाहर की वस्तुओं में रस लेते-लेते चेतना इतनी तद्रूप हो जाती है कि उसे अपने स्वरूप और उद्देश्य तक का स्मरण नहीं रहता। खेल की तन्मयता कई बार खिलाड़ी को भी एक प्रकार की गेंद होने जैसा अनुभव कराने लगती है। खेल की हार जीत ही मानस के हर कोने पर छाई रहती है। यह स्मरण नहीं रहता कि खेलने का मानस क्यों किस निमित्त बनाया था और उस उद्देश्य की पूर्ति किस सीमा तक बन पड़ रही है। इसी को आत्म विस्मृति कहते हैं। गहरा नशा पीकर आमतौर से लोग गहरी विस्मृति के शिकार बन जाते हैं। उन्हें अपनी हानि, निंदा अस्वस्थता, दरिद्रता और भविष्य की अँधेरी रात दीख नहीं पड़ती। आत्म विस्मृति भी एक प्रकार से नशेबाज की गहरी खुमारी जैसी स्थिति है। उसके रहते न अपने हित अनहित की भविष्य की बात सूझती है और न यह होश रहता है कि यह अलभ्य अवसर हाथ से निकल जाने के उपरान्त कुछ करने धरने की संभावना भी हाथ न रहेगी। मनुष्य जीवन के सुयोग को ऐसे ही उद्देश्यहीन

अस्त-व्यस्तता में गँवा देना अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने के समान कुकृत्य है। दूसरों को हानि पहुँचाकर अपना लाभ अर्जित करने वालों को बुरा कहा और कोसा जाता है पर उन्हें क्या कहा जाय जो जीवन सम्पदा का दुरुपयोग करके अपना अहित तो प्रत्यक्षतः करते ही हैं साथ ही अपने परिवार को, संपर्क क्षेत्र को भी बुरी तरह बरबाद, बदनाम करते हैं। ऐसा एक ही कारण बन पड़ता है और वह है आत्म विस्मृति।

तत्वदर्शी पग-पग पर आत्मबोध की बात कहते रहते हैं। अपने को जानने, देखने, सोचने, ढूँढ़ने का उपदेश देते रहते हैं। यह कोई रहस्यवाद नहीं है, अपितु सीधे अर्थों में इतना भर समझना चाहिए कि मनुष्य जीवन की महत्ता और गरिमा असाधारण है। इसका उच्च प्रयोजनों में ही सदुपयोग होना चाहिए। किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करते रहना अबोध पशु पक्षियों और कीट पतंगों के लिए तो क्षम्य हो सकता है पर मनुष्य द्वारा बरते जाने वाला यह प्रसाद अक्षम्य है। जो जीवन का लाभ न उठा सका समझना चाहिए कि उसने हाथ में आई विपुल सम्पदा की होली जलाकर अपना सर्वस्व अपने हाथों स्वाहा कर दिया।

अध्यात्म तत्वज्ञान का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। अनेक शास्त्रों और तत्वदर्शियों ने उसके अनेकानेक पक्षों पर बहुत विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है। पर यदि उन सब का सार संक्षेप समझा जाय तो बात इतनी भर है कि मनुष्य जीवन अगणित विभूतियों से लदा है। उसके अन्तराल में इतना कुछ है कि यदि उसे प्रसुप्ति से जाग्रति में परिणत किया जा सके तो देवोपम आनंद का रसास्वाद हर घड़ी हस्तगत होता रह सकता है। जीवन का सदुपयोग ही धर्म है। उसी के निमित्त उपासना, साधना, आराधना का अवलम्बन अपनाया जा सकता है। ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिवेणी का अवगाहन का पुण्य फल इतना ही है कि जीवन को परिष्कृत, समुन्नत, एवं सुसंस्कृत बनाया जा सके। इतना बन पड़े तो खिले हुए फूल पर मंडराने वाले भौरों की तरह अनेक दैवी अनुग्रह और वरदान अनायास ही अपनी समीपता का परिचय देने लगते हैं।

भव बंधनों की, नरक की, दुर्भाग्य की अनेकानेक विभीषिकाओं का वर्णन किया जाता है । यह सब और कुछ नहीं, जीवन सम्पदा के दुरुपयोग का दुष्परिणाम ही है । मौत को भूल जाने वाले, अपने कर्मों के आधार पर ईश्वर को प्रसन्न या अप्रसन्न करने की बात को भूल जाने वाले ही उस अन्धतम में प्रवेश करते हैं जहाँ पश्चाताप की आग निरन्तर जलती और जलाती रहती है । जिसने इतना समझ लिया उनने उस अमृत को प्राप्त कर लिया जिसे विद्या और प्रज्ञा कहा जाता है । जिसे हृदयंगम करने वाले मोक्ष प्राप्त करते और कृत-कृत्य होते हैं ।

स्वाध्याय सत्संग का सार इतना ही है । चिन्तन मनन से निष्कर्ष नवनीत इतना ही निकलता है । अनेकानेक साधनाओं की सिद्धि इतनी ही है कि मानवी चेतना को उस जाल जंजाल से परित्राण मिले जो लक्ष्य को विस्मृत करती और कुत्साओं के अनेकानेक प्रतिपादनों का एक मात्र उद्देश्य है कि व्यक्ति आत्मबोध की भूमिका से जाग पड़े । उस प्रसुप्ति से छुटकारा पाये जिसमें वासना, तृष्णा और अहंता का गुलाम बनकर नर वानर की तरह निरर्थक उचक मचक करते रहने की उसकी आदत पड़ जाती है । पेट और प्रजनन के लिए पशु जीते हैं । मनुष्यों में भी कितने ही नर पशु होते हैं जिन्हें लोभ और मोह के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं । वह सत्य को उतने तक ही सीमित मान लेते हैं जो इन्द्रियों की ललक के सहारे अनुभव में आता है । कृमि कीटकों के लिए तात्कालिक लाभ ही सब कुछ होता है । दूर की बात उन्हें सूझ ही नहीं पड़ती है । परिणति का , संभावना की दूरी तक उनका सोच चलता ही नहीं । ऐसे लोग अहंता के वशीभूत होकर तृष्णाग्रस्त होते हैं और अनाचार पर उतरते हैं । नर पामरों नर पिशाचों का यही दृष्टिकोण होता है । उनकी क्रियाशीलता और चतुरता इसी कुचक्र के घेरे में परिभ्रमण करती रहती है ।

विवेक जागने पर वे कर्तव्य सूझते हैं जो मनुष्य के भीतर बैठा हुआ देवता इंगित करता है । विवेक का दीपक बुझ जाने पर मात्र अंधकार का साम्राज्य चारों ओर फैला दीख पड़ता है । अँधेरे में बुद्धि विभ्रम का साम्राज्य छाया रहता है । रस्सी का साँप और झाड़ी का भूत दीख पड़ता है । संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि में सड़ी नाली में कुलबुलाने वाले कृमि कीटकों की तरह दुर्गन्ध भरा जीवन जीना पड़ता है ।

प्रचलन ऐसा ही है । लोगों को इसी स्तर का जीवन जीते देखा जाता है । संबंधी , कुटुम्बी, मित्र , हितैषी ऐसा ही परामर्श देते और दबाव डालते हैं जिसमें वह किया जाय जिसे नर पामरों की भीड़ चरितार्थ करती है । उत्कृष्ट आदर्शवादिता उस स्थिति में उभरती है जब मनुष्य के गहन अन्तराल में प्रसुप्त पड़ा नरनारायण, जागे एवं उसे उच्च स्तरीय जीवन जीने के लिए प्रेरित एवं बाधित कर दे ।


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