आत्मा की प्यास बुझेगी, श्रेष्ठता के निर्भर से

January 1992

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सत्ता केवल प्रकाश है। अन्धकार कोई पदार्थ नहीं प्रकाश के अभाव का नाम ही अन्धकार है। प्रकाश की नाप-तौल और व्याख्या-विवेचना हो सकती है, अन्धकार का कोई प्रमाण परिमाण नहीं। अभाव अपने आप में भयावना है, इसलिए अंधकार डरावना लगता है। अनिश्चित से, अविज्ञात से डर लगता है। वस्तुस्थिति जब समझ ली जाती है तो डर चला जाता है। मौत इसीलिए डरावनी लगती है क्योंकि उसके उदर में जाने के बाद क्या होता है इसका निश्चय नहीं। यदि वस्तुस्थिति का सुनिश्चित ज्ञान रहा होता तो कोई भी उससे डरता नहीं। शरीर छोड़कर अन्यत्र जाने का भी डर निरस्त हो सकता था-यदि गन्तव्य स्थान के सम्बन्ध में समाधान कारक जानकारी रही होती। जो नहीं है वही अविज्ञात है वही डरावना। इतना जान लेने के बाद हमें ज्ञान का प्रकाश खोजना पड़ता है, ताकि उस बहुमूल्य सत्ता से लाभान्वित हो सकें और अभाव जन्य अन्धकार द्वारा पग-पग पर मिलने वाले त्रास से छुटकारा पा सकें।

इस संसार में केवल श्रेष्ठ है-अश्रेष्ठ कुछ नहीं। मनुष्य श्रेष्ठ से बना है। विलक्षण बहुमूल्यताओं से भरी उसकी संरचना में अश्रेष्ठ का राई-रत्ती उपयोग नहीं हुआ है। होता तो तभी न जब इस विश्व में कहीं अश्रेष्ठ की सत्ता रही होती। अन्धकार की तरह अश्रेष्ठ भी एक अभाव की, अविज्ञात की, अनिश्चय की स्थिति है। यद्यपि उसका कोई अस्तित्व नहीं, तो भी अनस्तित्व की भयानक विभीषिका तो है ही।

श्रेष्ठ को जब अपना आहार नहीं मिलता तो वह भूख-प्यास से व्याकुल होकर निकृष्ट बन जाता है।क्षुधा और तृषा की आशा में वह भटकता है, तृप्ति के शुद्ध साधन मिलते नहीं, तो ऐसा खाने-पीने लगता है जो कृमि कीटकों के लिए योग्य था मनुष्य के लिए अयोग्य । इस अयोग्य को गले से नीचे उतारने की स्थिति में जब भी जहाँ भी मनुष्य पाया जाता है तब उस पर निकृष्टता का दोषारोपण किया जाता है।

श्रेष्ठ और निकृष्ट के बीच की एक और भी स्थिति है-भ्रमित। पतवार रहित-चालक रहित नौका लहरों के इशारे पर निरुद्देश्य भ्रमण करती रहती है। वह डूबती तो नहीं, पर कहाँ पहुँचेगी इसका भी कुछ निश्चय नहीं। अन्धड़ के साथ उड़ते तिनके नष्ट तो नहीं होते, पर वे किस लक्ष्य तक पहुँच पावेंगे इसका क्या भरोसा?

श्रेष्ठ वह है जो अपनी आन्तरिक सम्पन्नता को समझता है और उससे उदारतापूर्वक दूसरों की झोली भरकर अपने को संतुष्ट और दूसरों को सुखी बनाता है। मनुष्य की मूलसत्ता श्रेष्ठ है और उसका स्वभाव श्रेष्ठता से भरा-पूरा है। निरुद्देश्य घृणा का पात्र नहीं-दया का पात्र है। भटकाव ने उसे दिशा नहीं दी और वह पानी की लहरों के साथ हवा के झोंकों के साथ इधर-उधर भटकते रहकर बहुमूल्य अवसर से हाथ धो बैठा। तोतली भाषा में बोलते बच्चे किसी का अनिष्ट तो नहीं करते-लंगड़ा कर चलने वाले अपंग उलटे तो नहीं चलते उनके साथ गति तो है। अगति का दोष उन पर नहीं मढ़ा जा सकता।

हम प्रकाश को देखें और समझें, यही उचित है। अपने स्वरूप, बल और लक्ष्य को समझें, यही बुद्धिमता पूर्ण है। हमारी प्यास श्रेष्ठता के सेवन से बुझेगी। आत्मा की प्यास श्रेष्ठता के शीतल निर्झर के तल तक पहुँचकर ही बुझ सकती है।

मानवीय गौरव के नीचे गिर कर जिस महाशून्य में उतरते हैं। वही भयावह है-सर्वथा निकृष्ट है। यदि अपनी मूल सत्ता के गरिमा भरे अस्तित्व को समझना है और उसके उपयुक्त जीवन नीति अपनाना सम्भव हो सके तो समझना चाहिए कि अपने सुखद संसार का और समुज्ज्वल भविष्य का निर्माण हो गया। इस निर्माण के विश्वकर्मा हम स्वयं है। इतनी भर जानकारी करा देना ही आत्मोन्मुखी करने वाली योग साधनाओं का लक्ष्य होता है। ध्यान जब भी किया जाय, इस चिन्तन के साथ किया जाय तो सार्थक भी होता है व अन्तरंग- बहिरंग में अनेकानेक परिवर्तन भी लाता है। हम अपने भाग्यविधाता स्वयं हैं, यह बोध सतत् करते हुए अंतर्जगत का प्रबल पुरुषार्थ करते चलें तो हमारी वह यात्रा आरंभ होती है, जिसका लक्ष्य है देवतत्व श्रेष्ठता-उत्कृष्टता। यही तो हम सबका इष्ट भी है गंतव्य भी।


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