प्राणशक्ति संवर्धन के तीन प्रयोग उपचार

January 1992

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हृदय द्वारा रक्त संचार होता है । रक्त प्रत्यक्ष दीखता है, इसलिए उसकी उपयोगिता आवश्यकता सर्व साधारण की दृष्टि में रहती है । हृदय पर पड़ने वाले प्रभावों को बहुमूल्य माना जाता है और उन्हें महत्व भी अधिक मिलता है । इसके अतिरिक्त एक दूसरा क्षेत्र है जिसकी गरिमा लगभग इसी स्तर की है किन्तु उसे महत्व रहीं दिया जाता वह है- “श्वसन प्रक्रिया” । श्वास-प्रश्वास नाक से ली जाती है । फेफड़े में पहुँचती है, इसके बाद उसका प्रवाह शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचता है । इस पहुँचने के कारण ही तापमान सन्तुलित मिलता है । साथ ही हर क्षण शरीर के हर क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली गंदगी का भी एक बड़ा भाग यही बुहारी कर लौटते समय अपनी टोकरी में समेट ले जाती है । यह क्रिया अदृश्य रूप में होती है । उसका प्रत्यक्ष दर्शन न होने से अनुभव भी नहीं होता इसलिये महत्व भी नहीं समझा जाता ।इतने पर भी उसका महत्व इतना ही है जितना हृदय द्वारा किए जाने वाले रक्त संचार का ।

अन्न , जल और वायु को जीवन का प्रमुख आधार माना जाता है । बिना भोजन किए मनुष्य प्रायः एक महीने जीवित रह सकता है । बिना पानी के भी एक सप्ताह जिया जा सकता है किन्तु बिना श्वास लिए तो एक मिनट से भी अधिक समय जीवित रह पाना कठिन है । फाँसी लगने पर प्रथम आघात श्वास प्रणाली का बन्द हो जाना ही होता है । गरदन की हड्डी टूटने पर भी कुछ समय जीवित रहा जा सकता है । पर दम घुटने पर तो प्राणान्त ही समझा जाना चाहिए । क्योंकि समस्त अवयवों को प्राणवायु की उपलब्धि रुक जाती है और जो गंदगी पैदा होती है उसे बाहर निकालने की व्यवस्था न रहने के कारण विपन्नता फैलती है और जीवन का अन्त हो जाता है । इससे प्रकट है कि शरीर में जो भी तत्व काम करते हैं उनका रक्त के अतिरिक्त दूसरा आधार श्वसन प्रक्रिया ही है । शरीर के समस्त छोटे-बड़े अवयवोँ का परिपोषण प्रायः उसी पर निर्भर है ।

साँस लेने का सही तरीका विरलों को ही मालूम होता है । आमतौर से लोग उथली साँस लेने के आदी होते हैं । बिना परिश्रम के समय बिताने पर झुक कर बैठने पर तो यह प्रवाह और भी अधिक मंद हो जाता है । उथली साँस में हवा की मात्रा प्रायः आधी ही शरीर में पहुँचती है । वह फेफड़े के मध्य भाग को ही प्रभावित करती है । शेष भाग निष्क्रिय पड़ा रहने के कारण अशक्त बनता चला जाता है । उसमें खाँसी टीबी, प्लुरिसी , दमा आदि रोग अपने लिए आसानी से जगह बना लेते हैं और घर बनाकर मजबूती के साथ अपने वंश की वृद्धि करते रहते हैं । इसके अतिरिक्त दूसरी हानि यह होती है कि शरीर के अंग प्रत्यंगों को पोषक आक्सीजन की मात्रा कम पहुँचती है । उस कमी के कारण उनकी समर्थता घटती जाती है । सफाई भी पूरी तरह नहीं हो पाती । इसलिए सभी जीवाणु अशक्त हो जाते हैं । क्रियाशीलता छंटती जाती है और गंदगी बढ़ने से रुग्णता मंदगति से बढ़ते-बढ़ते अदृश्य से दृश्य बन जाती है । बीमारियाँ भीतर से जन्म लेकर बढ़ते- बढ़ते बाहरी क्षेत्र में फूट पड़ती दीखने लगती हैं । कारण साधारण होते हुए भी उसकी विकृति असाधारण रूप से दृष्टिगोचर होने लगती है । अधूरी साँस लेना ऐसा ही है जैसा आधे पेट भोजन करना या पानी की प्यास को मार कर गला तर करने जितना पानी पीकर काम चलाना । उनके कारण जो क्षति हो सकती है उसका अनुमान लगाया जा सकना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए ।

इस भूल का आरंभ छोटी सी गलती से होता है और उसका निराकरण थोड़ी सी सावधानी से पूरा हो सकता है । सीने को आगे की ओर झुकाकर बैठना तथा काम चलाऊ आधी अधूरी साँस लेकर काम चलाते रहना गलत है । इस प्रकार की अधूरी साँस असावधान रहने के कारण चलती तो रहती है किन्तु इस असावधानी का ही अभिशाप कहना चाहिए जिसके कारण आधी स्वस्थता-सम्पदा, एक तिहाई आयु व्यक्ति की नष्ट हो जाती है । आहारों से पोषण, मिलता है, इस तथ्य को सभी जानते हैं । इसी प्रकार यह भी जाना जाना चाहिए कि साँस भी जीवन प्रदान करती है पर वह करती तभी है जब वह पूरी और गहरी ली जाय । फेफड़ों को पूरी तरह भर दे । शरीर की सभी कोशिकाओं का पोषण करे । रक्त को स्वच्छ एवं सशक्त बनाए रहने की क्षमता साँस के द्वारा मिलने वाली प्राणवायु द्वारा ही पूरी होती है ।

योग शास्त्र की तरह शरीर विज्ञान भी प्राणायाम की महत्ता स्वीकार करता है । उसकी आवश्यकता उपयोगिता का प्रतिपादन करता है । प्राणायाम के अनेक तरीके हैं । उनके अपने-अपने विधान लाभ भी हैं । योग सिद्धि से लेकर ध्यान धारणा एवं प्रसुप्त शक्ति केन्द्रों के जागरण में उनका अपना प्रभाव है । प्राण विद्या एक स्वतंत्र विद्या है । जिसके आधार पर सर्वतोमुखी सशक्तता का सम्पादन किया जाता है । उसके चमत्कारी लाभ भी दैनन्दिन जीवन में पाए जा सकते हैं । कहा गया है कि प्राण के वश में होने पर मन वश में हो जाता है । और जिसका मन नियंत्रित होता है, उसे योग पारंगत एक सिद्ध पुरुष कहा जाता है ।

इन पंक्तियों में विशेष प्राणायामों की चर्चा न करके केवल उन सर्वसुलभ विधियों पर प्रकाश डाला जा रहा है जिसे हर स्थिति का व्यक्ति हर परिस्थिति में कार्यान्वित करता रह सकता है ।

सरलतम और निरन्तर होते रहने वाला प्राणायाम यह है कि हमेशा गहरी साँस लेने की आदत डाली जाय । पूरी साँस खींची जाय ताकि हवा से पूरे फेफड़े भर जायँ । साँस को रोकना आवश्यक नहीं है । पुरानी प्राणायाम पद्धति में साँस को रोके रहने की कुँभक पद्धति को भी आवश्यक बताया गया है । पर आधुनिक शरीर विज्ञान उसका समर्थन नहीं करता है । ऐसी दशा में यही उचित है कि कुँभक पर विशेष जोर न दिया जाय । साँस को भरपूर मात्रा में खींचने की प्रक्रिया पूरक को भली प्रकार संपन्न किया जाय । इसके बाद साँस छोड़ने का क्रम भी धीमी गति से सम्पन्न किया जाय किन्तु फेफड़ों में भरी हुई साँस को पूरी तरह बाहर निकाल दिया जाय । यह एक प्राणायाम हुआ । इसे स्वाभाविक एवं उपयोगी श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया नाम भी दे सकते हैं । इससे पर्याप्त मात्रा में प्रायः दूरी आक्सीजन मिलने लगती है और प्रायः दूना ही पोषण प्राप्त होता है । चेहरे पर लालिमा बढ़ती और शरीर में स्फूर्ति काम करती दिखाई पड़ती है। ऐसे प्राणायाम नित्य पंद्रह मिनट तो करना ही चाहिए ।

दूसरे प्रकार का एक शक्तिशाली अभ्यास यह है कि प्राण चेतना को एक सचेतन विद्युत शक्ति मानते हुए संकल्प शक्ति के सहारे उसे साँस द्वारा खींच कर समूची सत्ता में धारण किया जाय । साँस लेते समय भावना की जाय कि विश्वव्यापी प्राण शक्ति साँस के साथ ही खिंचती चली आ रही है । उसे काया के कण-कण द्वारा अवशोषित किया जा रहा है । इसकी अनुभूति फुर्ती और मस्ती के रूप में हो रही है । साहस उभर रहा है और पुरुषार्थ गतिशील हो रहा है । यह प्राणाकर्षक प्राणायाम है । जब भी समय खाली हो तभी मेरुदण्ड सीधा रखकर इसे करने लगना चाहिए । दस-दस मिनट के चार से छह खण्ड तक हर दिन प्रयुक्त किए जा सकें तो इससे शक्ति संवर्धन की अनुभूति हाथों हाथ होने लगेगी । कुछ दिन के अभ्यास से प्रयत्नकर्ता अपने में सचमुच असाधारण पुरुषार्थ प्रकट होते देखता है ।

सरल प्राणायामों में तीसरा है- सोऽहम् साधना । इसमें साँस लेते समय सो, बाहर निकालते समय “हम्” की ध्वनि प्रकट होने की कल्पना करनी चाहिए । सो अर्थात् वह परमेश्वर वह साँस के साथ अन्तराल में प्रवेश करता है और अन्तःचेतना के कण-कण में अपनी विशिष्टता भर देता है । साँस छोड़ते समय जो “हम “ की ध्वनि होती है उस समय सोचना चाहिए कि अपना अहंकार तिरस्कृत बहिष्कृत होकर चिन्तर और भाव क्षेत्र को छोड़कर बहिर्गत हो रहा है । अहंकार मिट जाने पर आत्म सत्ता का स्वरूप “तत्वमसि” “अयमात्मा ब्रह्म “ जैसा बन रहा है और आत्मा में परमात्मा का रूप ओतप्रोत दृष्टिगोचर हो रहा है यह भावना नियमित अभ्यास द्वारा परिपक्व बनायी जाती है । धीरे-धीरे श्वास-प्रश्वास पर ध्यान भी जमने लगता है व अजपा जप की स्थिति आ जाती है । यह आध्यात्मिक लाभों से भरा-पूरा प्राणयोग का उच्चस्तरीय सोपान है ।

उपरोक्त तीनों ही प्राणशक्ति संवर्धन के प्रयोगों को नियमित किया जा सके तो अपरिमित लाभ मिलते हैं ।


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