संसारः प्रतिभा परिष्कार की प्रयोगशाला

January 1992

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सामान्यतया यह देखा जाता है कि अविकसित प्रतिभा वाले कठिनाइयों, परेशानियों का रोना रोते देखे जाते हैं । इनके अनुसार प्रतिभावान न बन पाने का कारण जीवन की जटिलताएँ रहीं । समूची अविकसित स्थिति का बोझ इन्हीं के मत्थे पर मढ़ कर छुट्टी पाने का प्रयास किया जाता है । ऐसे लोग हमेशा यही सोचा करते हैं कि अमुक परेशानी न होती तो हमारा इस तरह का विकास हो जाता ।

जबकि यथार्थता यह है कि इस तरह की सोच शत प्रतिशत भ्रामक है । विश्व के विभिन्न विचारक एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि अवरोध और विकसित प्रतिभा दोनों ही एक दूसरे के घनिष्ठतम सहयोगी हैं । प्रसिद्ध भारतीय चिन्तक रामचन्द्र दत्तात्रेय रानाडे का मानना है कि हमारी क्षमताओं के द्वार इन्हीं के कारण खुलते हैं इसी वजह से निष्क्रिय पड़ी क्षमताएं सक्रिय होती हैं । विख्यात चीनी दार्शनिक जाँग त्जाँग के अनुसार मानवीय विकास का समूचा इतिहास कठिनाइयों द्वारा जगाई गई क्षमताओं से भरा पड़ा है ।

मनोवैज्ञानिकों ने इन्हें जीवन की सहज स्वाभाविक स्थिति का एक अनिवार्य अंग बताया है । इन्हें स्वीकार किए जाने पर इनका सुन्दर उपयोग किया जाना सम्भव है । वस्तुतः परेशानियाँ इतनी भयंकर और कष्टदायक नहीं है जितना बहुत से लोग समझते हैं । जिस स्थिति में कई लोग रोते हैं, उसी में दूसरी व्यक्ति नवीन प्रेरणा पाकर सफलता का वरण करते, प्रतिभाशाली बनते हैं । इस तरी ये अपने आप में कुछ नहीं , मनःस्थिति द्वारा इनका स्वरूप गढ़ा जाता है । निर्बल मन तो अपनी कल्पनाजन्य परेशानियों में ही अशाँत हो जाता है । सबल मन वाला व्यक्ति विकट से विकट स्थिति को स्वीकार करके स्वयं में निहित शक्तियों को जाग्रत करता है ।

जर्मन मनोवैज्ञानिक ‘वान दे गियर’ ने अपनी पुस्तक “साइकोलॉजिकल स्टडी ऑफ प्राब्लम साल्विगं एण्ड एडवेंचर’ ‘ में शारीरिक परेशानियों, मानसिक जटिलताओं एवं उलझनों को जीवन में अनिवार्य बताया है । उनके अनुसार जटिल उलझनों को सुलझाते समय हम परिपूर्ण एकाग्र होते हैं । यह मन की गहरी परतों को कुरेदने की विधि है । इससे इन गहरी सतहों में जमी क्षमताएँ उभरकर सामने आती हैं । इसी कारण छोटे बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए गणितीय उलझनों को सुलझाने की प्रक्रिया बताई जाती है । यही बात जीवन के रोमाँचक क्षणों के विषय में है । भौतिक एवं मानसिक उलझनों के चरम बिंदु से जूझने पर हमारी समूची मानसिक शारीरिक क्षमताएँ उभरकर आती और नियोजित होती हैं । विभिन्न खेलों के पीछे यही मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है । कुश्ती, कबड्डी से जहाँ शारीरिक प्रतिभा विकसित होती है, वहीं शतरंज आदि खेलों से मानसिक विकास होते हैं ।

मनोविद् बी. घिसलिंग ने अपनी कृति “द क्रिएटिव प्राँसिस” में कहा है कि आजीवन कठिनाइयों से जूझते रहने वाला व्यक्ति तथाकथित सुखी जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्तियों से अनेकों गुना अधिक प्रतिभाशाली होता है । उन्होंने अनेक स्कूली बच्चों, किशोरों , युवाओं पर अनेकानेक प्रयोग करके यह सिद्ध किया कि प्रतिभा के अधिकाधिक जागरण के लिए कठिनाइयाँ अनिवार्य हैं । जीवनक्रम में इनको अनिवार्य रूप से स्वीकार कर असाधारण रूप से प्रतिभाशाली बना जा सकता है । मिलिट्री में प्रशिक्षण देते समय सिपाहियों को बिना मतलब की परेशानियों में डाला जाता है । उन्हें तरह-तरह की कठोरताओं में धकेला जाता है । प्रत्यक्ष में इनका कोई मूल्य और महत्व नहीं किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखने पर सारा तथ्य समझ में आ जाता है । इस तरह की जटिलताएँ उनकी शारीरिक और मानसिक शक्तियों को इस हद तक विकसित करती हैं कि मोर्चे पर उनके करतब देखकर दांतों तले उँगली दबानी पड़ती है । विश्वास ही नहीं होता कि एक व्यक्ति ऐसा भी कर सकता है ।

इसके बिना उत्कृष्टता का अर्जन हो नहीं सकता सोने की शुद्धता भीषण आग में तपने पर ही दिखाई देती है । इसे तपाया न जाय , तो मटमैला और गँदला बना रहेगा। मनुष्य भी कठिनाइयों में तप कर उत्कृष्ट, सौंदर्यपूर्ण, प्रभावशाली और महत्वपूर्ण बनता है । इनका मनुष्य के विकास में महत्वपूर्ण स्थान है। किन्तु इसके बाद भी ये दुधारी तलवार हैं । जो व्यक्ति इनसे घबड़ा कर गिर पड़ा वह हार बैठा । जबकि इनको खिलाड़ी की तरह अपनाने वाला व्यक्ति सफलता प्राप्त करता है । दोनों ही स्थितियों का उत्तरदायी मनुष्य स्वयं होता है । वह चाहे इन्हें वरदान बनाये-चाहे अभिशाप । जो व्यक्ति इनका खुले दिल से स्वागत करता उनके साथ खेलता है । वह न केवल उनसे मिलने वाला लाभ प्राप्त करता अपितु दूसरों के लिए प्रेरणा व आदर्श बन जाता है ।

संसार के किसी भी महापुरुष की प्रतिभा का रहस्य खोजने पर कठिनाइयों का पूरा इतिहास हाथ लग जाएगा । महापुरुषों में अधिकाँश कठिन परिस्थितियों में पैदा हुए । जिन्होंने सुख-सुविधाओं में जन्म भी लिया उन्होंने बुद्ध , महावीर की तरह राज सुख को तिलाँजलि देकर जटिलताओं को स्वेच्छा से स्वीकार किया क्योंकि इसके बिना प्रतिभा का विकास निताँत असम्भव था। इनसे गुजरे बिना कोई भी अपने लक्ष्य को पा नहीं सकता । इनके द्वारा ही मनुष्य का व्यक्तित्व अपना पूर्ण चमत्कार प्रदर्शित करता है । इन्हें एक खराद की तरह समझा जा सकता है जो मनुष्य को तराशकर चमका दिया करती है । इनका जीवन में वही महत्व हैं जो उद्योग में श्रम का और भोजन में रसों का है ।

साँसारिक जीवन में टाटा, फोर्ड, जमनालाल बजाज आदि समृद्ध व्यक्तियों के जो उदाहरण मिलते हैं उनके मूल में भी यही रहस्य है । उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन में सुख-सुविधाओं की अपेक्षा परेशानियों को ही गले लगाया । जो धनिक और समृद्ध इस जीवन दर्शन को नहीं समझ पाते , वे अधिकाँशतया व्यसनी और विलासी होते देखे जा सकते हैं । जटिलताओं को अपनाकर प्रतिभा सम्वर्धन करते हुए व्यक्ति को संसार की फिजूल बातों के लिए अवकाश कहाँ ? इनका मूल्य बहुत गहरा हैं जिसे पुरुषार्थी, परिश्रमी और उत्साही लोग समझ कर अनेकानेक विभूतियों को उपलब्ध करते हैं किन्तु जो कायर क्लीव हैं तथा आत्मबल से हीन हैं वे परीक्षा बिंदु मात्र देखकर डर जाते हैं, फलस्वरूप “हाय-हाय” करते हुए किसी तरह जीवन के दिन पूरे करते हैं।

अवरोधों के बिना गति नहीं, विकास नहीं, का सिद्धान्त सुनने में विचित्र लग सकता है किन्तु सोचने पर इसकी महत्ता समझ में आ जाती है । यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि अवरोध के बिना हम एक तिल भी आगे नहीं बढ़ सकते । यदि जमीन के घर्षण को समाप्त कर इसे पूरी तरह चिकना कर दें तो फिसल कर गिर पड़ेंगे । अवरोध न होने के कारण रुई पर कील नहीं गाड़ी जा सकती ।

यह एक मनोवैज्ञानिक एवं व्यवहारिक रहस्य है कि जीवनक्रम में यथार्थ उपयोगिता कठिनाइयों की है न कि सुख साधनों की । खासकर प्रतिभा जागरण के अभ्यासियों को इसे अनिवार्य मानना होगा । छान्दोग्य उपनिषद् में प्रकृति परिवेश के लगातार परिवर्तित होने के पीछे यही कारण बताया गया है । इसके अनुसार परम-चेतना प्रत्येक प्राणी को सतत् विकसित कर पूर्ण बनाना चाहती है । यही कारण है कि प्रकृति लगातार अपने स्वरूप को परिवर्तित करती रहती है । इस स्वरूप परिवर्तन के कारण पहले ढूँढ़े गए हल व्यर्थ और अनुपयोगी हो जाते हैं । नए परिवर्तित-परिवेश में नई तरह की चुनौतियाँ उलझनें सामने आती हैं । मनुष्य को बाधित किया जाता है कि वह वर्तमान के संदर्भ में इनके समाधान सोचे ।

इसका एक ही उद्देश्य है कि मनुष्य की प्रतिभा का सम्वर्धन हो परिष्कार हो । महान चिन्तक इब्नसिना ने समूचे संसार को माँ प्रकृति द्वारा संचालित प्रतिभा विकास की प्रयोगशाला कहा है । उनके अनुसार प्रकृति अपनी गोद में हम सभी को लेकर तरह-तरह की परेशानियाँ, जटिलताएँ उत्पन्न कर हमें विकसित कर रही है । हमारे अपने प्रतिभाशाली बनने के लिए चित्र , विचित्र भयावह दीखने वाली स्थितियाँ प्रकृति द्वारा प्रदत्त उपकरण मात्र हैं । जिस तरह स्कूल में छोटे बच्चों का बौद्धिक विकास तरह-तरह के उपकरणोँ के सहारे करते हैं , ठीक उसी तरह प्रकृति भी रोज-रोज नयी परिस्थितियाँ पैदा कर मनुष्य की प्रतिभा को, सुप्त क्षमता को, जाग्रत करना चाहती है । उचित यही है कि हम इन्हें इसी रूप में स्वीकारें - अपनाएँ । इस ढंग से इन्हें अपनाकर हममें से प्रत्येक स्वयं में निहित शक्तियों को जाग्रत और विकसित कर सकता है ।


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