आधुनिकता और प्रगतिशीलता के नाम पर पनप रहे अनेकों फैशनों में यौन उच्छृंखलता आज सर्वोपरि बनी हुई है । पश्चिम में पैदा हुई यह व्याधि धरती की समस्त भौगोलिक सीमा-रेखाओं का तहस-नहस कर एक छोर से दूसरे छोर तक फैल चुकी है । अन्तर कम और ज्यादा का भले हो पर शायद ही कोई ऐसा भूखण्ड बचा हो जिसके निवासी इस महामारी के कीटाणुओं की ओर ललचाई नजरों से न देखने लगे हों । अमरीका एवं योरोप जैसे देशों में कच्ची उम्र के किशोर-किशोरियाँ तो इससे बुरी तरह तबाह हो रही हैं । इंडियाना पोलिस में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार तकरीबन एक हजार में साठ प्रतिशत से अधिक ऐसे अनुभवों से गुजर चुके हैं । इंडियाना युनिवर्सिटी तथा इंडियाना पोलिस के मैरियन काउंटी द्वारा प्रस्तुत ये सर्वेक्षण रिपोर्टें नई पीढ़ी में फैल रहे इस खतरनाक रुझान को व्यक्त करती हैं । कैलीफोर्निया युनिवर्सिटी की सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री डा. लिलियन रियूबिन का कहना है कि साठ से सत्तर के दशक में आए सामाजिक परिवर्तनों से अमेरिका के किशोर वर्ग में इस भावना ने जन्म लिया । अस्सी के दशक में इसके प्रगतिशीलता का पर्याय बना दिये जाने के बाद तो इसने सारे सामाजिक और क्षेत्रीय बन्धनों को तोड़ कर फेंक दिया ।
इस संदर्भ में अनुसंधान कर रहे मिनेसोटा विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र की प्राध्यापक डा. इश-रीस का कहना है कि बात केवल नई पीढ़ी की नहीं है । उसका तो सिर्फ इतना दोष है जो वह पुरानी पीढ़ी द्वारा सौंपी गई विरासत का उपभोग कर रही है । ठीक भी है कोई जन्मतः प्रशिक्षित नहीं होता । अपने आचार, विचार, मान्यताओं चिन्तन जीवन शैली का ज्यादातर भाग उसे परिवेश से सीखने को मिलता है । सिखाने वाले प्रौढ़ जब स्वयं इस तरह के दूषित जीवन को अपने ऐश्वर्य का, प्रगति का पैमाना मानने लगें, तब उपचार दुष्कर हो जाता है । इस प्रक्रिया की घातक उपलब्धि जर्जर और निर्वीर्य समाज के रूप में होना स्वाभाविक है । जो आज सामने है । तथ्य सिर्फ पश्चिम के किसी एक या अनेक देशों तक सीमित नहीं है । भारत की महानगरीय जीवन दशा की लगभग वही स्थिति बनती जा रही है जो वहाँ की है यही कारण है कि परिवार का अस्तित्व ही खोता जा रहा है । इस आधार के टूटने पर न जाने कितने दम्पत्तियों को तनाव, मन मुटाव, कलह से लेकर विग्रह तक ढेरों दुष्परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं । यही हाल किशोर तरुण छात्र-छात्राओं का है । उनके निस्तेज धँसे गाल वाले चेहरे हीन मनोबल, हताशा, निराशा, कुण्ठा भरे जीवन के पीछे कुछ इसी तरह के तथ्यों की खोज मनोवैज्ञानिक करते हैं ।
पीढ़ियों के अन्तर और सभ्यता की यात्रा के साथ इन विकृतियों को आज हम कुछ भी नाम क्यों न दे लें, पर किसी समय यौन पवित्रता और संयम को सारी पृथ्वी पर परिवार की, दाम्पत्य सम्बन्धों की और स्वस्थ जीवन की रीढ़ समझा जाता था । इनका उल्लंघन करने वाला कोई भी क्यों न हो दंडनीय माना जाता था । क्लियोपेट्रा की कहानी सभी जानते हैं , जिसने अपने भाई को उन्मुक्त जीवन में बाधा मान कर मौत के घाट उतार दिया । यहाँ तक कि रोमन सम्राट सीजर को अपने रूप का दास बना लिया । पचास साल के बूढ़े सीजर और बीस वर्ष की क्लियोपेट्रा की कोई संगीत न थी ? पर वासना और महत्वाकाँक्षा की अन्धी दौड़ में सीजर को जन रोष का शिकार होना पड़ा । तथा क्लियोपेट्रा मो सर्प दंश से आत्म हत्या करनी पड़ी । फिलिस्तीन में अतिथि बनकर आयी इथोपिया की महारानी शीषा की कामवासना भड़काकर वहाँ के सम्राट सोलोमन ने क्षणिक सन्तुष्टि भले पाली हो, पर इसके लिए अपने सहयोगियों के रोष और विरोध का भाजन बनकर अपराधियों के कटघरे में खड़े होना पड़ा।
यौन शुचिता के सम्बन्ध में लोक मर्यादाओं और आवश्यक नियमों का पालन सिर्फ सामाजिक मर्यादा बनाए रखने के लिए नहीं बल्कि स्वयं के व्यक्तित्व को समर्थ बनाने के लिए जरूरी है । इस मामले में ढीले और कमजोर व्यक्तियों को हर कहीं अप्रामाणिक और अविश्वसनीय माना जाता है । उन्हें कोई गम्भीर दायित्व नहीं सौंपे जाते । मनोविज्ञानियों के अनुसार स्त्री हो या पुरुष उच्छृंखल भावना जिनमें भी होगी, वे अस्थिर स्वभाव के होंगे। जहाँ उन्हें आकर्षक व्यक्तित्व दिखाई दिया सौंपे गए कार्यों का दायित्व अनुभव करने की जगह उनके चित्त में प्रतिपक्षी को प्राप्त करने की इच्छा उठने लगेगी। यहाँ उच्छृंखलता का मतलब इतना भर नहीं कि ऐसे वातावरण में रहकर स्त्री पुरुषों के संपर्क में आते ही व्यक्ति अपनी योजना को पूरा ही कर ले। वरन् सिनेमा देखने से लेकर रोमांटिक कथाओं या युवतियों के चित्रों के साथ प्रचारित विज्ञापनों पर नजरें गड़ाने का लगाव भी व्यक्ति की अनियंत्रित वासना का ही परिचय देता है। मानस शास्त्रियों के मुताबिक यह भी भोग ही है। भारतीय दर्शन में तो आठ प्रकार के मैथुनों में सात इसी तरह के माने गए हैं।
मनोविज्ञान के जानकार इस तथ्य को भली प्रकार जानते हैं कि व्यक्ति की भावनाएँ उसके शरीर स्वास्थ्य और क्रिया शक्ति को कितना प्रभावित करती हैं। जब मनोभूमि ही दूषित होगी तो कार्य और प्रवृत्तियाँ कहाँ स्वस्थ रह पाएँगी? इन प्रवृत्तियों को उभारने एवं पनपने के लिए समाज व्यवस्था और व्यवसाय तन्त्र भी कम जिम्मेदार नहीं है। व्यावसायिक प्रतिष्ठान तो एक तरह से मनुष्य की इस कमजोरी का लाभ उठाने पर उतारू दीखते हैं विज्ञापनों में मॉडलिंग का व्यवसाय इसी कमजोरी से लाभ उठाने का अंग है।
वस्तुतः मनुष्य इसके लिए स्वयं उत्तरदायी है क्योंकि वह खुद ही अपनी वासना को अनियन्त्रित विस्तार देता है। फ्रायडवादी कतिपय बुद्धिजीवियों द्वारा किये जाने वाला यह प्रचार कि मनुष्य को उन्मुक्त यौन जीवन की छूट मिलनी चाहिए, नितान्त उथली दृष्टि से किया गया चिन्तन है। यह उस निर्बल मन की उपज है-जिसे विषय की पर्याप्त जानकारी नहीं। मानवीय चेतना के जानकार मनीषी प्राण और उसके अनेक स्तरों को भली प्रकार जानते हैं। उनके अनुसार प्राण का एकमेव उद्देश्य है उर्ध्वगमन ताकि मनुष्य दिव्यता के चरम शिखर पर स्वयं को प्रतिष्ठित कर सके। इसका अधोगामी प्रवाह मनुष्य को पशुता की ओर बरबस घसीट ले जाता है। जहाँ पहुँचकर वासनाओं का उद्दीपन तो होता है, पर संतृप्ति नहीं। वासनाओं की अनियंत्रित आग में ईंधन की भाँति सुलगता प्राणतत्व अपने साथ समूचे जीवन को राख के ढेर में बदल देता है।
भारतीय संस्कृति में सुसंस्कारों के नैतिकता के स्थापित मूल्य प्रत्येक व्यक्ति के अन्तरंग में बिठाने का प्रयत्न किया जाता है और उच्छृंखल वासना की अवाँछनीयता पर कड़ा अनुशासन बरता जाता है। इस जीवन रेखा का उल्लंघन करने का मतलब है स्वयं को नष्ट करने पर उतारू हो जाना। ऐसा करने वाला सिर्फ अपने प्राण तत्व को नष्ट नहीं करता, बल्कि उसमें संस्कार गत जीवन मूल्यों को तोड़ने की एक अपराध भावना भी जन्म लेती है जो उसे कभी स्थिर एकाग्र नहीं होने देती। स्थिरता के अभाव में कार्य में असफलता तो मिलती ही है, समूचा अस्तित्व अपराध बोध की कालिमा से पुते बगैर नहीं रहता।
इन सबका परिणाम खंडित व्यक्तित्व के रूप में निराश और कुँठित व्यक्ति के रूप में चित्त की अस्थिरता और चंचलता के रूप में मिलता है। व्यक्तिगत दृष्टि से टुकड़े-टुकड़े कर टूटा व्यक्तित्व और सामाजिक दृष्टि से अविश्वसनीयता अप्रामाणिकता यही उद्वेलित वासना की उपलब्धि है। अतः आवश्यक है कि जीवन के श्रेष्ठतम उपयोग और सफलता की प्राप्ति के लिए वासनाओं को यौन भावनाओं को नियंत्रित किया जाय।
तथ्यों का विश्लेषण और उन पर विचारपूर्वक मनन किया जाय तो यह बोध हुए बिना न रहेगा कि प्रगतिशीलता विवेक के विकास की यात्रा है। आधुनिकता का सही मतलब है परिवेश और जीवन में सामंजस्य स्थापित करते हुए उच्चतर उद्देश्यों की ओर बढ़ना, यद्यपि स्वयं की अधोगामी प्रवृत्तियों को ऊर्ध्वमुखी बनाना सरल है। इसमें कठिनाई इतनी भर है कि विगत अभ्यास को छोड़कर नए अभ्यास का प्रारम्भ करना होता है संकल्प को प्रखर बनाना पड़ता है।
कुछ ही काल बाद कठिनाई सहजता में बदल जाती है और सहजता उस उपलब्धि में जीवन भर संघर्ष किया। अपनी भावनाओं को सृजनात्मक दिशा देने वाले
मोहनदास करोड़ों में प्राण फूँकने वाले महात्मा गाँधी हो गए। यौन भावना को ऊर्ध्वमुखी बनाकर संसार में आश्चर्यजनक सफलता पाने वाली ज्ञात अज्ञात विभूतियों का विवरण इकट्ठा किया जाय तो उनकी संख्या हजारों में नहीं लाखों में हो सकती है। यदि इतना संभव न बन पड़े तो कम से कम निज की अनियंत्रित वासनाओं को नियंत्रित तो किया ही जाना चाहिए। स्वयं की शक्तियों को अनेक छिद्रों से न बहाकर उन्हें एकाग्र कर शक्ति संचय कर जिस कार्य में भी जुटा जाय सफलता का राजमुकुट उसी क्षेत्र में प्रतीक्षारत मिलेगा। इसके विपरीत यदि दीपक की पेंदी में छेद हो, तेल की दिशा अधोमुखी हो तो न दिया जलेगा न तेल बचेगा। यह तथ्य प्रत्येक उम्र प्रत्येक परिवेश और प्रत्येक जीवन के लिए सत्य है।