ब्रह्मवर्चस् की शोध प्रक्रिया

January 1992

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ब्रह्मवर्चस् की शोध प्रक्रिया के अंतर्गत विगत बारह वर्षों में किस आधार पर अध्यात्म उपचारों को विज्ञान सम्मत ठहराने का प्रयास किया गया इसका प्रारंभिक विवेचन विगत अंक में परिजन पढ़ चुके हैं। शरीर, मन व अंतःकरण संबंधी विभिन्न घटकों का विश्लेषण उसमें हो चुका है। इस अंक में उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए अध्यात्म उपचारों का विवरण प्रस्तुत है जिन्हें “इनपुट” के रूप में प्रयोग प्रक्रिया का अंग बनाया गया।

अध्यात्म उपचारों के माध्यम से शरीर, मन व अंतःकरण किस प्रकार प्रभावित होता है तथा इन प्रभावों का मापन किस रीति से संभव है, ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान ने चिरपुरातन भारतीय संस्कृति के निर्धारणों को आधार बनाकर अपने अनुसंधान का इसे विषय बनाने का प्रयास किया है। विभिन्न उपचार जो भिन्न-भिन्न रूपों में सूक्ष्म शरीर संरचना को प्रभावित करते हैं अपनी क्षमता की दृष्टि से विलक्षण-अद्भुत हैं। यह हमारे ऋषिगणों के अपनी काया में किये गए अष्टगयोग से लेकर हठयोग की जटिल प्रक्रियाओं तक तथा ग्रंथिभेदन से लेकर कुण्डलिनी जागरण के विविध प्रयोग ही हैं जिन्हें आधार बनाकर हम प्रतिपादित कर सकते हैं कि मानव जीवन को स्वस्थ, नीरोग, दीर्घजीवी सुख शाँतिमय बनाने के लिए इनका प्रावधान हमारी संस्कृति में रहा है व इनकी महत्ता आप्तवचनों में गाई जाती रही है।

मानवी काया व मन की संरचना इतनी विलक्षण है कि स्रष्टा की इस रचना को देखकर आश्चर्य से दांतों तले उँगली दबा लेनी पड़ती है। शरीर की अनुकूलन क्षमता भी अपरिमित है। वातावरण के विपरीत प्रभाव वाले प्रतिरोधों व दबावों के विरुद्ध भी इस में कार्य करते रहने की व परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढाल लेने की क्षमता प्रचुर परिमाण में विद्यमान है। यही स्थिति मन की है। मनः शक्ति के रूप में एक ऊर्जा का जखीरा, विराट भाण्डागार हमारे मस्तिष्क रूपी पिण्ड में भरा होता है। जिसे हम “माइण्ड स्टाफ” कहते हैं, वही स्थान हमारी आकाँक्षाओं, विचारणाओं, आदतों अभ्यासों, संस्कारों का केन्द्रस्थल है। यह सीधे अंतःकरण से उभरने वाली भाव संवेदनाओं द्वारा प्रभावित होता है व बुद्धि को तत्संबंधी निर्देश सतत् देता रहता है। भावसंवेदना रहित अंतःकरण से उभरी बुद्धि उच्छृंखल, उद्धत महत्वाकाँक्षाओं को जन्म देती है तथा मनुष्य के दुष्कृत्य व दुर्मतिजन्य दुर्गति के लिए जिम्मेदार होती है। इसके विपरीत अंदर से उभरी मानव मात्र के प्रति संवेदना, त्याग-बलिदान की भावना श्रेष्ठता के प्रति संवेदना, त्याग-बलिदान की भावना श्रेष्ठता के प्रति समर्पण की प्रेरणा व्यक्ति की उच्चस्तरीय महत्वाकाँक्षाओं व तदनुसार व्यक्तित्व की उत्कृष्ट ढलाई तथा सत्कर्मों के रूप में दिखाई देती है।

विभिन्न अध्यात्म उपचार वस्तुतः इस मनःशक्ति के माध्यम से ही शरीर की स्वचालित एवं नियंत्रित प्रक्रिया पर अपना प्रभाव डालते हैं। इन अध्यात्म उपचारों में प्रमुखता जिन्हें दी गयी, वे इस प्रकार हैं-(1) आहार में परिवर्तन न केवल पौष्टिकता वरन् सात्विकता का भी समावेश।

(2) नियमित योग व्यायामों का दैनन्दिन जीवन में समावेश। शरीर को चुस्त व मन को प्रफुल्लित रखने हेतु आसन, प्राणायाम प्रज्ञा व्यायाम गतियोग आदि उपचारों का प्रयोग।

(3) ध्यान साधना द्वारा बिखराव का एकीकरण मनःशक्ति का सुनियोजन कर मनोविकारों एवं भ्रान्तियों का शमन तथा शरीर को स्वस्थता प्रदान करने वाले विचारों, बहिरंग के उद्दीपनों का प्रयोग। शिथिलीकरण के अभ्यास द्वारा शारीरिक व मानसिक तनाव का प्रबन्ध।

(4) मंत्रशक्ति को चेतना का ईंधन मानते हुए उसके विभिन्न रागों में प्रयोग द्वारा अतः शक्ति संवर्धन। विभिन्न रागों में गाए गए मंत्रों द्वारा दिनचर्या के भिन्न-भिन्न समयों पर शरीर मन तथा अंतःकरण पर उनका प्रयोग।

(5) यज्ञ विज्ञान के अंतर्गत पदार्थ की कारण शक्ति को उभारने वाली अग्नि होत्र प्रक्रिया द्वारा सूक्ष्मीकृत वनौषधि धूम्र से आत्मबल संवर्धन तथा जीवनी शक्ति संवर्धन। रोगोपचारों में यज्ञ की चिकित्सा के रूप में उपयोगिता। जड़ी बूटियों की प्रामाणिकता को स्थापित कर उनके सूक्ष्म चूर्ण रूप कल्क व क्वाथ रूप में प्रयोगों द्वारा स्वास्थ्य संवर्धन व रोगनिवारण।इस प्रकार एक वैकल्पिक चिकित्सा पति का प्रतिपादन

उपरोक्त पाँचों अध्यात्म उपचारों के भिन्न-भिन्न साधकों व प्रयोगार्थी व्यक्तियों पर प्रयोग करने से जो जानकारियां मिली है, वे बताती हैं कि सही विज्ञान सम्मत प्रक्रिया अपनाकर न केवल शरीर मन दोनों को स्वस्थ,सशक्त,सबल बनाया जा सकता है अपितु इससे जन-जन के मन में इन उपचारों के संबंध में छाई भ्रान्तियों का निराकरण भी होता है। आने वाले समय में जब आत्मबल सम्पन्न लोकसेवियों की समाज को प्रचुर परिणाम में आवश्यकता पड़ेगी ऐसे निरापद अपरिमित लाभ देने वाले उपचारों का रहस्योद्घाटन एवं तर्क-प्रमाणसम्मत प्रस्तुतीकरण समय की आवश्यकता है। परमपूज्य गुरुदेव विशुद्धतः एक वैज्ञानिक थे उनकी यह मान्यता थी कि भारतीय संस्कृति पूर्णतः विज्ञान सम्मत है। यदि आज पुनः बदले परिप्रेक्ष्य में उन सभी स्थापनाओं का प्रस्तुतीकरण सही तरीके से किया जा सके तो कोई कारण नहीं कि बुद्धिजीवी वर्ग से लेकर तर्क करने वाला संदेश रखने वाला युवावर्ग भी अगले दिनों इन अनुशासनों को स्वीकार न करे। ब्रह्मवर्चस् की शोध ने इस प्रकार वह प्रयोजन पूरा करने का प्रयास किया है, जिसे सामने रखते हुए परमपूज्य गुरुदेव ने यह महान स्थापना की थी।

सभी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि आहार का मन से गहरा संबंध है। कहा गया है ”अन्नौ वै मनः” अर्थात् अन्न मन को बनाता है। जो भी आहार हम ग्रहण करते हैं वह न केवल शरीर के अंग अवयवों घटकों को प्रदान करता है, अपितु हमारे चिन्तन को भी प्रभावित करता है। कई पदार्थ ऐसे हैं जो सीधे हमारे मस्तिष्क के स्नायु संस्थान सूक्ष्म रसस्रावों को जन्म देने वाले स्नायु-तन्तु जाल को प्रभावित कर विचार संस्थान पर गहरा प्रभाव डालते हैं। क्रोध, चिन्ता, बेचैनी, चिड़चिड़ाहट, तनाव जैसे मनोविकार अखाद्य पदार्थों को ग्रहण करने से होते देखे जाते हैं। व्यक्ति उनकी चिकित्सा हेतु बहिरंग को टटोलता है, चिकित्सकों की शरण में जाता है, जबकि कारण व निवारण उसके अपनी ही समीप है । माँसाहारी भोजन व अण्डों का सेवन मानवी काया व मन को कतई स्वीकार नहीं है, न ये उसकी शरीर संरचना के अनुकूल है । कुछ चिकित्सकों की तथाकथित वैज्ञानिक टिप्पणियों को आधार बनाकर बहुसंख्य व्यक्तियों ने अपनी स्वादेन्द्रियों की संतुष्टि के लिए यह मायाजाल रचा है । इसके लिए पाश्चात्य उपभोगवादी चिन्तन जिम्मेदार है, जो यह बताता है कि डेरी पदार्थों के लिए पशुओं का उपयोग करने के साथ उन्हें काटते चले जाना चाहिए व शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए पशुओं का दुहरा उपयोग किया जाना चाहिए । क्या यह एक विडम्बना नहीं कि ऐसा कहने वाले पाश्चात्य चिकित्साविद् ही अब पूरी तरह माँसाहार का समर्थन न कर अपने यहाँ तो शाकाहार के प्रचलन पर जोर दे रहे हैं व तृतीय विश्व व अविकसित देशों में माँसाहार समर्थक प्रतिपादन प्रस्तुत करते हैं । इससे भी बड़ी विडम्बना यह कि हमारे देश में उनके कथन को ब्रह्म-वाक्य मानकर पूजा जाता है तथा हम अपनी संस्कृति के स्वरूप को भूलकर अब अण्डा-माँस कल्चर की पूरी नकल पर उतर आए हैं । कितना व्यापक यह प्रचलन हो गया है , यह यात्रा करते समय दैनन्दिन जीवन में जनसाधारण द्वारा इनका उपयोग करते हुए नित्य देखा जा सकता है। होटल , ढाबों व ठेलों पर इनका अब खुला प्रदर्शन होता है व नई पीढ़ी से लेकर नव धनाढ्य सब इनकी शरण में जाते हैं। पत्र-पत्रिकाएं इस प्रचलन का खुला समर्थन करती देखी जाती हैं ।

ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान ने अपने प्रयोग निष्कर्षों द्वारा यह सत्यापित करने का प्रयास किया है कि सामिषाहार न केवल मन की उत्तेजना, तमोगुणी चिन्तन व अन्य विकारों के लिए बल्कि शरीर संबंध गठिया से लेकर कैन्सर तथा हृदयरोग से लेकर आज की नयी बीमारी “क्रॉनिक फटीग सिण्ड्रोम” व डिजेनरेटीव डिसआर्डर्स के लिए उत्तरदायी है यह अब एक स्थापित तथ्य है कि रक्त में कॉलस्ट्राल की सान्द्रता बढ़ाने से लेकर उत्तेजना के लिए उत्तरदायी सिरम कार्टीसाँल जैसे हारमोन्स की वृद्धि इस तमोगुणी आहार के कारण होती है । मिर्च-मसालों की अधिकता, भोजन को तल-भूनकर उन्हें अखाद्य बना देता भी इसी प्रक्रिया को जन्म देता है । जन-जन को उनकी आहार संबंधी आदतों को सुधारकर पौष्टिक , सुपाच्य व सात्विक आहार ही ग्रहण करने की प्रेरणा इस संस्थान ने दी है व यह सत्यापित किया है कि इनसे आनन्द-उल्लास व स्फूर्ति के लिए जिम्मेदार हारमोन रसस्रावों की उत्सर्जन क्रिया बढ़ती है। एन्केफेलीन वर्ग के अन्दर स्रवित होने वाले स्नायु रसायनों की मात्रा शरीर में बढ़ने लगती है व इससे न केवल अनावश्यक चर्बी घटती है, शरीर में स्फूर्ति सतत् तनाव शैथिल्य तथा काम करने की उमंग बढ़ती है।

आहार ग्रहण करने की इस संशोधित प्रक्रिया में इस शोध संस्थान ने अंकुरित अन्नों का भी प्रयोग बड़ी सफलता के साथ किया है। अनाज यथा मूँग, चना, मूँगफली व गेहूँ अंकुरित करने के बाद ग्रहण करने पर शरीर में ‘ट्रिप्टोफेन” नामक अमीनो अम्ल की मात्रा बढ़ाते हैं व इससे न केवल शरीर की प्रतिरोधी सामर्थ्य बढ़ती है वरन् सतत् स्वस्थ-तनावमुक्त बनाए रखने वाले रसस्राव भी प्रचुर परिमाण में निकलते रहते हैं। इनको चौबीस घण्ट पहले पानी में गलाकर अंकुरित किया जाता व बिना तले-भुने अपने प्राकृतिक रूप में नाम मात्र के नमक के साथ लेने को कहा जाता है। कच्चा खाने की कला विज्ञान सम्मत है तथा इसका प्रभाव शरीर की जैव-रासायनिक तथा अन्यान्य चयापचयिक जैविक गतिविधियों पर निस्सन्देह पड़ता है, यह अब आहार विज्ञानी माने लगे हैं। गेहूँ की घास (जवारे ) पर हुआ हमारा अनुसंधान यह बताता है कि नियमित रूप से यदि इसको पीसकर हरा रस लिया जाय तो इससे श्रेष्ठ जीवनीशक्ति वर्धक, बल्य रसायन तथा वार्धक्य निवारक (एजींग बुढ़ापा लाने वाली प्रक्रिया को रोकने वाला)कोई और नहीं । यहाँ तक कि कैंसर की विभिन्न प्रारंभिक स्थितियों में इसका प्रयोग अन्यान्य पाश्चात्य पद्धतियों से हुए दुष्परिणामों को रोककर उसकी वृद्धि को रोकने तक में सक्षम बताया गया है। वस्तुतः यह “सेलमीडिएडेड” इम्युनिटी (जीवनशक्ति प्रतिरोधी सामर्थ्य) को अप्रत्याशित रूप से बढ़ाता है।

नियमित रूप से यदि आहार की समीक्षा करते रहा जाय व हम नित्य आहार में जो लेते हैं, उन्हें वैज्ञानिक व आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से परखे रहा जाता रहे तो कोई कारण नहीं कि मात्र इतने ही परिवर्तन रक्तशोधन से व्यक्ति स्वस्थ न हो सके। यह पाया गया है कि जिन घरों में नित्य बलिवैश्व यज्ञ (अग्निहोत्र जिसमें भोजन के प्रारंभिक पाँच ग्रास गायत्री मंत्राहुति के साथ यज्ञ भगवान को समर्पित किए जाते हैं)संपन्न होता है, उनके घरों में रोगों का आक्रमण कम ही होता है। इस प्रक्रिया के बाद भोजन प्रसाद बन जाता है एवं जो भी उसे ग्रहण करता है, उसके संस्कारों को बल मिलता है। यह मात्र एक पौराणिक मान्यता नहीं, इस संस्थान द्वारा व्यापक स्तर पर जाँचा परखा गया एक ऐसा तथ्य है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। बलिवैश्व करने वाला व्यक्ति कभी भी परमसत्ता को अखाद्य नहीं खिलाता अतः क्रमशः उसकी आदतें धीरे-धीरे ठीक होती चली जाती हैं व उसी अनुपात में स्वस्थता व चिन्तन में सतोगुणी प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि होती चली है।

आहार वस्तुतः एक ऐसा पदार्थ है जिसे नित्य ग्रहण कर हम अपने स्थूल शरीर की दैनन्दिन प्रक्रियाओं का संचालन करते हैं। अन्न ही हमारे मन को बनाता है व जैसा हमारा मन प्रभावित होगा वैसा ही हमारा चिन्तन होगा। संस्कारों के रूप में पदार्थ की कारण सता भी हमारी भावनाओं को प्रभावित करती है। अतः अध्यात्म उपचारों द्वारा सर्वांगपूर्ण प्रगति की दिशा में अपना विकास करने वाले मुमुक्षु साधकों को अपने आहार पर विशेष ध्यान देना चाहिए ,ऐसी इस संस्थान की मान्यता है। परम पूज्य गुरुदेव ने अपने 24 वर्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण गौदुग्ध की छाछ तथा जौ से बनी रोटी पर संपन्न किए, इसके मूल में यही भावना थी कि तप किये बिना, वह भी स्वादेंद्रियों को साधे बिना जप में गति संभव नहीं,अभीष्ट की प्राप्ति शक्त नहीं। महर्षि पिप्पलाद ने पीपल के फलों व पत्तों पर जीवन भर रहकर अन्नमयकोश की शुद्धि की। हम हम इतना कठोर तो नहीं पर कुछ तो उस दिशा में प्रगति कर सकते हैं। आहार का परिवर्तन किस प्रकार व्यक्ति कर व्यक्ति का आमूलचूल कायाकल्प कर देता है। नीरोग-दीर्घजीवी होने के इच्छुक हर व्यक्ति के लिए यह सभी निष्कर्ष एक आशा भरी प्रेरणा देते हैं। (क्रमशः)


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