व्यक्तित्व विकास का शुभारंभ आचरण से

January 1992

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मनुष्य की योग्यता, क्षमता और प्रतिभा का सही मूल्याँकन सामाजिक स्तर पर ही किया जा सकता है । कौन कितनी योग साधना जप-तप करता है यह सब कुछ उसके व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित है, पर सामाजिक जीवन को कितना शिष्ट, सुसंस्कृत एवं सुव्यवस्थित बनाया गया, इस आधार पर ही उसके व्यक्तित्व की प्रभाव परिधि और सुविकसित स्तर को आँका जा सकना संभव है ।

सुप्रसिद्ध समाज मनोविज्ञानी सी. एच. कूली ने “ह्यूमन, नेचर एण्ड द सोशल ऑर्डर” नामक ग्रन्थ में लिखा है कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने चेहरे और वेश विन्यास को दर्पण में देख कर सचेत हो उठता है और उसे सँजोने-संभालने में अनवरत लगा रहता है, उसी प्रकार उसकी इच्छा, आकाँक्षा विचारणा और भावनाओं को भी सामाजिक शिष्टाचार के आइने में परिलक्षितों को देखा जा सकता है । श्री कूली ने व्यक्ति की बाह्य एवं व्यावहारिक गतिविधियों के आधार पर ही व्यक्तित्व के आधार पर ही व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की आशा अपेक्षा व्यक्त की है । मानवी व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाली इन गतिविधियों को तीन वर्गों में बाँटा गया है- (1) वैल्यू (2) पोटेन्सी (3) ऐक्टिविटी ।वैल्यू का अभिप्राय व्यक्ति के शैक्षिक स्तर से होता है कि वह कितनी उच्च शिक्षा ग्रहण कर चुका है । ‘पोटेन्सी’ को प्रतिभा के नाम से जानना जाता है और ‘ऐक्टिविटी’ का अर्थ व्यक्ति के क्रिया-कलापों से होता है । उनके कथानुसार व्यक्ति ने भले ही कितनी ऊँची शिक्षा प्राप्त क्यों न की हो, किन्तु उसकी योग्यता-क्षमता गिरों को उठाने और उठों को आगे बढ़ाने वाली प्रतिभा के स्वरूप में विकसित न हो सकी तथा सामाजिक सद्व्यवहार में नहीं उतरी तो वह व्यर्थ-निरर्थक ही साबित होगी । अपने व्यावहारिक क्रिया-कलापोँ के माध्यम से दूसरों को प्रभावित करके सन्मार्ग पर प्रेरित कर सकने वाली प्रतिभा को उनने “सब्जेक्टिव पब्लिक आइडैन्टिटी” के नाम से संबोधित किया है । दूसरे शब्दों में इसी को लोक श्रद्धा अर्जित करने और जन सहयोग प्राप्त करने की शक्ति सामर्थ्य के नाम से भी निरूपित किया गया है । वस्तुतः यह सामाजिक शिष्टाचार की ही परिणति है जो मानवी व्यक्तित्व को सब प्रकार से प्रखर एवं परिष्कृत बनाती चली जाती है ।

अमेरिका के ख्याति लब्ध मनः चिकित्सक हैरी स्टैक सुलीवान ने बालकों की मनोदशा पर लम्बे समय से विशद् अध्ययन अनुसंधान किया है तदुपरान्त वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं के बच्चा जन्म से कोई बुराई लेकर नहीं आता बल्कि पारिवारिक एवं सामाजिक शिष्टता और अशिष्टता के माहौल को देखकर ही वह भला-बुरा बनता है । घर तथा स्कूल के संपर्क-व्यवहार में आकर हरी उसमें सुसंस्कारिता कुसंस्कारिता के बीज आरोपित होते चले जाते हैं, जो श्रेष्ठ अथवा निम्न स्तर के व्यक्तित्व की आधारशिला रखते हैं । उनने मानवी व्यक्तित्व के दो स्वरूप बताये हैं एक एक्सट्रोवर्ट और दूसरा इन्ट्रोवर्ट । अन्य शब्दों में इन्हीं को बहिर्मुखी और अंतर्मुखी व्यक्तित्व कहा जाता है । मनुष्य की बाह्य गतिविधियों को देख कर ही अन्दर की उत्कृष्टता-निकृष्टता का अनुमान आसानी से लग जाता है । उनने ‘ऐक्सट्रोवर्ट’ स्तर के व्यक्तित्व को ही सामाजिक का दर्जा दिया है । क्योंकि इसी के सहारे जन समूह के हित साधन का ध्यान में रखते हुए शिष्टता का अनुशासन निभता और व्यक्तित्व प्रभावशाली बनता है । ऐसा व्यक्ति सदैव आशा-उत्साह की जीवनचर्या बिताता है । इन्ट्रोवर्ट को उनने संकोची स्वार्थी और संकीर्ण स्तर का बताया है । जो सदैव अपनी ही प्रगति-उन्नति का ताना-बाना बुनता रहता है ।

मानवी प्रगति के इतिहास पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि जहाँ अगणित व्यक्ति किसी प्रकार जीते करते रहते हैं वहीं कुछ ऐसे भी होते हैं, जो सामाजिक नियमानुशासनों का परिपालन करते हुए अपने व्यक्तित्व को निखारते और महामानव स्तर तक के कार्य कर दिखाते हैं । पिछड़े और प्रगतिशील लोगों का शारीरिक ढाँचा तो एक जैसा होता है, पर उनकी व्यावहारिक गतिविधियों में जमीन-आसमान जितना अंतर रहता है । यह अंतर ही यह बताता है कि कौन साधारण मानव है और कौन महामानव ।


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