ब्रह्मचर्यं परं तपः

January 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भगवान धन्वन्तरि के शिष्यों ने एक बार उनसे प्रश्न किया-’भगवन् ! कोई ऐसा उपचार बताइये जिसे एक का पालन करने से मनुष्य सब रोगों का नाश कर सके तथा दीर्घायुष्य प्राप्त कर सके ।

भगवान् ने कहा “मैं सत्य कहता हूँ कि मृत्यु, रोग तथा जरावस्था का विनाश करने वाला , अमृतरूपी सबसे बड़ा उपचार ब्रह्मचर्य रूपी महापुरुषार्थ है । जो शान्ति, सुन्दरता, स्मृति, ज्ञान, आरोग्य और उत्तम स्वास्थ्य का आकाँक्षी है वह इस संसार में सर्वोत्तम धर्म ब्रह्मचर्य का पालन करे । यही परम ज्ञान और परम औषधि है। यह आत्मा निश्चय रूप से ब्रह्मचर्यमय है और इसकी स्थिति भी मनुष्य शरीर में ब्रह्मचर्य साधन सर्वोत्तम उपाय है ।”

ब्रह्मचर्य का अर्थ है- ब्रह्म में परमात्मतत्व में विचरण करना अर्थात् अपने संयम, निग्रह और पवित्र आचरण द्वारा मन, वचन ,कर्म से उसकी ओर अग्रसर होना । इसे एक प्रकार का महाव्रत कहा गया है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी जीवनीशक्ति की रक्षा कर उच्चस्तरीय जीवन की साधना करता और तद्नुसार शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों का पूर्ण विकास करता है । शास्त्र कथन है कि जिस प्रकार समुद्र को पार करने का नौका एक उत्तम उपाय है , उसी प्रकार इस संसार से पार होने का उत्कृष्ट साधन ब्रह्मचर्य है ।

गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है -” ब्रह्मचर्य परं तपः” अर्थात् ब्रह्मचर्य ही सबसे श्रेष्ठ तप है । सूत्रकृताँक 6/23 में भी इसे उत्तम तप बताया गया है । ब्राह्मण ग्रन्थों में इस संयम का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि इसका परिपालन करने से व्यक्ति को बलिष्ठता का, ओजस्-तेजस् का लाभ मिलता है । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार -’बीर्यम् वे भर्गः’ अर्थात् वीर्य निश्चय ही ब्रह्मतेज है । इसे ऊर्ध्वगामी बना लेने वाला मनुष्य काल पर भी विजय प्राप्त कर लेता है । उसके लिए इस संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं रह जाता । शिव, हनुमान , लक्ष्मण, मेघनाद, शुकदेव, भीष्म जैसे महान ब्रह्मचारियों से पौराणिक कथा-गाथायें भरी पड़ी हैं । आधुनिक युग में भी बुद्ध , गाँधी , ईसा, सुकरात, शंकरचार्य , रामकृष्ण, विवेकानन्द, दयानन्द जैसे कितने ही महान संत-

तपस्वी हुए हैं जिन्होंने अपने प्रचण्ड शक्ति संयम एवं आत्मबल से सारी विश्व मानवता का हित साधन किया है । उनके बल, स्फूर्ति और पुरुषार्थ आज भी लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बने हुए हैं ।

शास्त्रकारों ने जहाँ ब्रह्मचारी की मनोभूमि उच्चस्तरीय आदर्शों में इस प्रकार संलग्न रहनी चाहिए कि उसे कामुक आचरण तो दूर उस प्रकार के विचारों के लिए भी अवसर न मिले । प्रवाह को रोकने के लिए मजबूत बांध बाँधने चाहिये । यह मानसिक बाँध साधनात्मक मनोयोग का भी हो सकता है और परमार्थ परायण सेवा साधना के प्रति प्रबल उत्साह और प्रवाह के रूप में भी इसे मोड़ा जा सकता है । आदर्शवादी तत्परता ऐसी होनी चाहिए कि हर समय उच्चस्तरीय चिन्तन में ही मन रमा रहे । परमार्थ स्तर की योजनायें ही बनती रहें । इतना ही नहीं , वरन् क्रियाकलाप भी ऐसे होने चाहिए जिसमें शरीर का श्रम, समय और मन का एकाग्र भाव पूरी तरह नियोजित रहे ।

इस प्रकार ब्रह्मचारी ऊर्ध्वरेता बनता है । विपरीत लिंग के प्रति आयु के अनुसार पुत्री , भगिनी , माता जैसे पवित्र भावनाओं का समावेश होने पर उसकी कामुक ललक अधोगामी योजनाएँ बनाने की अपेक्षा आदर्शों में रमण करने लगती हैं । महानता से सम्बन्धित क्रियाकलापों को अपना प्रिय विषय बना लेने पर अधोगामी प्रवृत्तियाँ रुकती है और वे उच्चस्तरीय विचारणाओं , भावनाओं और योजनाओं में नियोजित रहती हैं । फलतः दिशा बदल जाने पर मानसिक ब्रह्मचर्य भी सध जाता है और शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार का पोषण उज्ज्वल योजना के आधार पर मिलने लगता है । वीर्य रक्षा से शारीरिक बलिष्ठता , मानसिक उत्कृष्टता तथा आत्मिक प्रखरता के जो लाभ बताये गये हैं, वह इस अनुबंध के आधार पर उपलब्ध होने लगते हैं । शास्त्र का यह कथन शत प्रतिशत सही है कि “मरणं बिन्दु पातेन जीवनं बिन्दु धारणात्” अर्थात् “ ब्रह्मचर्य ही जीवन है और उसका उल्लंघन मरण ।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118