अपनों से अपनी बात - प्रस्तुत वसंत से शक्ति-संचार उपक्रम का शुभारंभ!

January 1992

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शक्ति साधना वर्ष की पूर्णाहुति हेतु संकल्पित भागीदारी का आह्वान

प्रस्तुत समय अति विशिष्ट है । यह दो परस्पर विरोधी युगों का मिलन काल है । इस अवधि में विचित्र प्रकार की विसंगतियाँ दिखाई पड़ती हैं और दर्शाती हैं कि संधिकाल की इस संक्रमण वेला में कुछ अप्रत्याशित होने जा रहा है । ब्रह्ममुहूर्त का समय समीप आते ही तारे बुझने लगते हैं और तमिस्रा घनीभूत हो जाती है । तिरोहित होने से पूर्व अंधकार इतना गहन हो जाता है , जितना रात्रि के अन्य प्रहरों में नहीं होता । किन्तु साथ ही साथ ऊषाकाल का अरुणोदय प्राची दिशा में से धीमे उजाले व लालिमा के साथ मुस्काना भी आरंभ कर देता है । अंधकार का घटना व प्रकाश का धीरे-धीरे बढ़ना परस्पर विरोधी कार्य होते हुए भी एक साथ संपन्न होते हैं व इस प्रकार प्रातःकाल का आगमन होता है । बुझ रहा दीपक उद्दीप्त लौ के साथ तेजी से जलने लगता है तथा मृतक अपनी सांसें अंतिम क्षणों में परिपूर्ण तेजी के साथ चलाता है । बीज गलता है व साथ-साथ नवाँकुरों का उत्पादन भी करता जाता है । शिशु का जन्म अति कष्टकारी प्रसव-वेदना के साथ होता है किन्तु उसे दबाया नहीं जाता, झेला जाता है ताकि कुल का दीपक जन्मे व परिवार का सहारा बने ।

यहाँ दो परस्पर विरोधी घटनाक्रमों की चर्चा इन दिनों समग्र विश्व में चल रहे एक विराट परिवर्तन चक्र को दृष्टिगत रख कर की जा रही है । पाठकगण इन पंक्तियों को वसंत की पूर्ववेला में पढ़ रहे हैं । सभी इस तथ्य को जानते हैं कि वासंती शोभा सुषमा के आगमन के पूर्व अतिशीतल हेमन्त का साम्राज्य ही चारों ओर छाया होता है । पेड़ों से पत्ते गिरते व उन्हें कुरूप ठूँठ बनाकर रख देते हैं । घोर दिखाई पड़ती है । किन्तु क्रमशः कोपलों और फूलों का सिलसिला आरंभ होता है । वातावरण उल्लासमय बनता है व मधुर सुगंध चारों ओर फैलने लगती है । यह ऋतु परिवर्तन जिस वेला में होता है, वह वाँसतीवेला हलचलों से भरा दिखाई देने लगता है जिसमें निष्क्रियता उत्साह भरी सक्रियता में बदल जाती है । तपते ग्रीष्म व बरसते सावन की तुलना करने पर जमीन आसमान जैसा अंतर दिखाई देने लगता है जिसमें निष्क्रियता उत्साह भरी सक्रियता में बदल जाती है। तपते ग्रीष्म व बरसते सावन की तुलना करने पर जमीन आसमान जैसा अंतर दिखाई पड़ता है व प्रकृति की यह लीला बड़ी विचित्र-विलक्षण जान पड़ती है पर है यह सभी सुनिश्चित व आवश्यक उपक्रम । यदि ऐसा न होता तो इस सृष्टि में सर्वत्र स्थिरता जड़ता , नीरवता का साम्राज्य दृष्टिगोचर होता । परिवर्तन का मोहक नृत्य स्रष्टा का अतिप्रिय है एवं वह निरन्तर इसे संपन्न करता रहता है । इसके लिए वह चुनता है अपने ज्येष्ठ पुत्र व सर्वश्रेष्ठ कृति मनुष्य को ही ।

परमपिता परमात्मा जो परब्रह्म के रूप में आद्यशक्ति महामाया गायत्री के रूप में इस धरित्री की शोभा सुव्यवस्था बनाये रखने का आश्वासन हमें देता है , जब-जब भी पतन के प्रवाह को द्रुतगामी होते देखता है रोकथाम करने और साज सँभाल का जुगाड़ बिठाने के लिए अवतार चेतना के प्रवाह के रूप में जन्म लेता है । आत्मशक्ति का जागरण होता है व छोटे-छोटे से तुच्छ से प्रतीत होने वाले मनुष्य भी युगपरिवर्तन का सरंजाम जुटाते दीख पड़ते हैं । मनुष्य अपनी मर्यादा व गरिमा को तिलाँजलि देकर जब जब भी अदृश्य वातावरण को विक्षुब्ध विषाक्त बनाता है , विनाश की विश्व विभीषिका जैसा संकट खड़ा करता है , जैसा कि आज है, तब-तब सृजन की पक्षधर सत्ता उसी ईश्वर अंशधारी जीवसत्ता मानव की देवात्मशक्ति के जागरण के रूप में अवतारी प्रवाह को जन्म देती व मानव में देवत्व जगाकर धरती पर स्वर्ग जैसा वातावरण लाती है । ऐसा ही कुछ विलक्षण समय यह चल रहा है ।

यह दैवी चेतना का प्रवाह ही है जो विगत वर्ष शक्ति साधना की प्रेरणा के रूप में जन्मा व अखण्ड जप प्रधान कार्यक्रमों द्वारा विगत गायत्री जयन्ती से पूरे राष्ट्र व विश्व की देवात्मशक्ति को मथने का कार्य शाँतिकुँज तंत्र द्वारा संपन्न किया गया । साधनात्मक पराक्रम का महत्व सभी की समझ में आया एवं सामूहिक तप साधना की एक शृंखला विश्वस्तर की समस्याओं के समाधान के लिए पूरे विश्व भर में संपन्न हुई । तज ही वस्तुतः शक्ति का मूलस्रोत है जिसके आधार पर सूक्ष्म जगत की प्रतिकूलताओं से मोर्चा लिया जा सकता है । गंगा को धरती पर लाने जैसा पुरुषार्थ करने के लिए भगीरथ को प्रचण्ड स्तर का तप करना पड़ा था । भगवान को अपनी गोदी में खिला सकें , इसके लिए स्वयंभू मनु और रानी शतरूपा को कठिन तपस्या करनी पड़ी थी । सृष्टि की संरचना में हाथ डालने से पूर्व ब्रह्माजी को भी उग्र तपस्या संपन्न करनी पड़ी थी । भारतभूमि व समग्र वसुँधरा को अनाचार से मुक्त करने के लिए पिछले दिनों महर्षि रमण तथा योगिराज अरविन्द जैसे महापुरुषों ने तपश्चर्या का मार्ग अपनाया व अनेकानेक महामानवों के एक साथ उत्पादन का कार्य संपन्न हुआ । परमपूज्य गुरुदेव के चौबीस-चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण जनकल्याण के निमित्त ही संपन्न योजना रूपी आँदोलन का विचार का जन्म हुआ जो आज ढाई करोड़ से अधिक व्यक्तियों के सामूहिक पुरुषार्थ के रूप में नजर आता है ।

2 जून 1990 गायत्री जयंती को महाप्रयाण के पूर्व परमपूज्य गुरुदेव का वंदनीया माताजी को एक ही संदेश था कि वे तप साधना द्वारा शक्ति का उपार्जन करें व आने वाले युग परिवर्तन के लिए जनमानस को साधना पुरुषार्थ में प्रवृत्त होने का मार्गदर्शन करें । उसी के निमित्त एक विराट श्रद्धाँजलि समारोह अक्टूबर 1990 में संपन्न हुआ तथा तब से परमपूज्य गुरुदेव की सूक्ष्म व कारण सत्ता के सतत् संरक्षण व परम वंदनीया माताजी के मार्ग दर्शन में इस विराट मिशन ने अपनी यात्रा तय करते-करते एक मंजिल पूरी की है । इसी क्रम में विगत गायत्री जयंती पर प्रथम पुण्यतिथि के अवसर पर पाँच दिवसीय अखण्ड जप प्रधान कार्यक्रम का आयोजन शाँतिकुँज में किया गया तथा पाँच दिन में दस हजार से अधिक व्यक्तियों द्वारा चौबीस करोड़ गायत्री मंत्रों का जाप एक ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के रूप में संपन्न हुआ । शक्ति साधना वर्ष की घोषणा तभी हुई व सारे भारत व विश्व भर में तीन दिवसीय अखण्ड जप आयोजनों की घोषणा हुई व दो सौ चालीस टोलियों द्वारा यह कार्य संपन्न किया जाने लगा । प्रथम पुण्यतिथि पर संपन्न अखण्ड जप व शाँतिकुँज की दैवी चेतना का एक अंश इस प्रकार सारे देश ही नहीं विश्व के कोने-कोने में यहाँ से भेजे गए अग्रदूतों के माध्यम से पहुँचा है व इसने प्रसुप्त देवात्म शक्ति को जागने व जन-जन में देवत्व का उभारने का एक महत्वपूर्ण कार्य पूरा किया है ।

जिस दैवी संचालन तंत्र के मार्ग दर्शन में शक्ति-अनुग्रह अनुदान के साधना आयोजनों की शृंखला चली है, उसके सारे अब तक के महत्वपूर्ण निर्धारण चली है, वसन्तपर्व पर होते रहे है । वसंत पंचमी परमपूज्य गुरुदेव का आध्यात्मिक जन्म दिवस है । अपनी परोक्ष मार्गदर्शक सत्ता से बाल्यकाल में साक्षात्कार उनका इसी दिन हुआ था । अखण्ड दीपक का प्रज्ज्वलन से लेकर चौबीस महापुरश्चरणोँ का शुभारम्भ, “अखण्ड-ज्योति “ पत्रिका से लेकर गायत्री परिवार की स्थापना, आर्षग्रन्थों के भाष्य से लेकर वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की परिकल्पना तथा युग निर्माण योजना के सूत्रपात से लेकर देश भर में चौबीस सौ प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण के संकल्प इसी पावन वेला में लिये गये । ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान व गायत्री नगर की स्थापना इसी पावन दिन हुई । महाकाल की युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया के अंतर्गत क्राँतिधर्मी साहित्य की सृजन शृंखला इसी दिन आरंभ हुई । मिशन की समस्त स्थापनाओं की प्रेरणा का मूलस्रोत वसंतपर्व ही रहा है।

अब सूक्ष्मजगत से यह प्रेरणा उभरी है कि शक्ति साधना वर्ष की समापन अवधि के अंतिम चार माह “शक्ति संचार” प्रक्रिया के हों, शक्ति साधना के अखण्ड जप आयोजनों का उद्देश्य था कि शक्ति का बीजारोपण विश्व मात्र में कण-कण में हो । सामूहिक शक्ति के , देवात्मशक्ति के जागरण की प्रक्रिया का यह पूर्वार्ध था । अब उत्तरार्ध है व्यक्ति की निज की आत्मशक्ति का जागरण । इसके लिए शक्ति उन्हें केन्द्र से मिलेगी न्यूनतम व्यक्तिगत साधना वे करेंगे तथा चार माह बाद इसकी पूर्णाहुति शाँतिकुँज आकर गायत्री जयंती , जो परमपूज्य गुरुदेव की पुण्यतिथि है, पर 8-9-10 जून 1992 की तारीखों में आयोजित तीन दिवसीय सत्र में करेंगे। यह विशिष्ट सत्र एक विशिष्ट समारोह में रूप में मनाया जाएगा जिसमें देव संस्कृति के उद्धार एवं विश्वव्यापी विस्तार की शपथ सभी उपस्थित मूर्धन्य साधकों द्वारा ली जाएगी। युगसंधि की विषम वेला में एक विराट अभियान की शुरुआत का यह प्रारंभिक चरण होगा जिसकी फलश्रुतियाँ परिजन अगले दिनों साकार होती देखेंगे।

देव स्थापना अभियान के साथ चले अखण्ड जप के शक्साधना आयोजनों की एक अभूतपूर्व व महत्वपूर्ण फलश्रुति है-जन-जन में आत्मबल का संचार, प्रतिकूलताओं से लड़ने हेतु साहस का अभिवर्धन तथा सूक्ष्मजगत में संव्याप्त विषाक्तता का शमन। प्रत्येक के मन में आशावादी उत्साह का संचार हुआ है व उसे लगा है कि आत्मशक्ति के उपार्जन-गायत्री महाशक्ति के आश्रम में की गयी साधना द्वारा भविष्य को उज्ज्वल बनाया जा सकता है। गायत्री उपासना की सार्वभौम सत्ता को सबने एक स्वर से सादर स्वीकारा है व सामूहिक आध्यात्मिक पुरुषार्थ की दिशा में संघबद्ध प्रयास गतिशील हुए हैं। अब इस वसंतपर्व से एक कदम और इस दिशा में आगे बढ़ाया जाना चाहिए। वह है ब्राह्मीचेतना से और अधिक तादात्म्य जोड़ने-शक्ति स्रोत से स्वयं को संबंधित करने के लिए व्यक्तिगत उपासना का स्तर बढ़ा देना। निजी स्तर पर शाँतिकुँज की दैवीचेतना के ध्यान के साथ न्यूनतम आधा घण्टा गायत्री जप अब अभी संकल्पित साधकों द्वारा किया जाना चाहिए।

इस शक्ति−संचार साधना के उपक्रम में हर परिजन को ब्राह्ममुहूर्त में सूर्योदय से 1/2 घण्टे पूर्व से 1/2 घण्टे बाद तक की अवधि में कोई समय निकालकर उपासना विशेषाँक (अक्टूबर 91) में बताए गए विधि-विज्ञान द्वारा न्यूनतम 1/2 घण्टे जप की व्यवस्था बनानी चाहिए। इस अवधि में शाँतिकुँज पहुँचने, प्रखर-प्रज्ञा-सजल श्रद्धा का दर्शन कर अखण्ड दीपक का दर्शन तथा वंदनीया माताजी के आशीर्वाद से तीनों शरीरों में शक्ति−संचार का ध्यान करना है। सप्ताह में एक बार अग्निहोत्र की भी व्यवस्था बनायी जाय। गायत्री चालीसा का पारायण जितना संभव हो सके, स्वयं भी करें व दस सहयोगी परिजनों को करायें, प्रेरित करें। आत्मशक्ति का उपार्जन हर साधक कर सके इसके लिए यह न्यूनतम उपाय-उपचार हैं कहना न होगा कि दैवी विभूतियाँ बरसने से लेकर सम्मान-सहयोग की प्राप्ति तथा मनोकामनाओं की पूर्ति से लेकर वातावरण अपनी इच्छानुकूल बनने जैसे चमत्कार इसी उपासनापरक पुरुषार्थ की ही फलश्रुति है। शक्ति की उपासना ही इस संधिकाल में अभीष्ट है एवं विशिष्ट अवसर पर किये गए इस साधना पराक्रम का प्रतिफल भी अति विशिष्ट होगा, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।

जो भी परिजन “शक्ति संचार” के इस उपक्रम में भाग लेना चाहते हों, वे अपना नाम, पूरा पता तथा जन्मतिथि लिखकर शाँतिकुँज हरिद्वार के पते पर पत्र व्यवहार करें। उन्हें यहाँ से अतिमहत्वपूर्ण कलावा (संकल्प सूत्र) वंदनीया माताजी के आशीर्वाद सहित भेजा जाएगा। जन्मतिथि के माध्यम से वंदनीया माताजी अपने दिव्य चक्षुओं से परोक्ष जगत के अंतर्ग्रही प्रभावों का पर्यवेक्षण कर उसका उपाय उपचार यहाँ से करेंगी तथा संकल्प सहित की गयी इस साधना से निश्चित ही सिद्धि की दिशा में पथ प्रशस्त होगा। जो भी संकल्प सूत्रों से बँधेंगे, उन्हें पूर्णाहुति यहीं आकर गायत्री जयंती (8,9,10 जून 1992) पर करनी होगी। स्मरण रखा जाना चाहिए कि आहुतियाँ यज्ञ में किसी की व्यक्तिगत भी हो सकती हैं पर पूर्णाहुति सभी एक साथ एक स्थान पर ही करते हैं।

संधिकाल के इस अतिमहत्वपूर्ण वर्ष में आयोजित शक्ति−संचार साधना में हर भावनाशील को अपनी भागीदार सुनिश्चित करनी चाहिए। यह अवसर कभी-कभी ही आते हैं, ऐसा मानते हुए फरवरी माह के प्रथम सप्ताह तक सभी पत्राचार द्वारा अपना पंजीकरण शाँतिकुँज में करा लें।


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