गायत्री प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष

January 1992

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सुख-शान्ति प्राप्त करने के लिए समूची मानव जाति लालायित है । वह किसी ऐसे कल्पवृक्ष की खोज में है जिसके द्वारा उसकी इच्छाएँ आकाँक्षायें आसानी से पूरी हो सकें । सुरलोक में अवस्थित एक ऐसे ही कल्पवृक्ष का वर्णन पुराणों में मिलता है जिसके नीचे बैठकर जिस भी वस्तु की कामना की जाय वहीं वस्तु तुरन्त सामने उपस्थित हो जाती है । जो भी इच्छा की जाय, तुरन्त पूर्ण हो जाती है ।

पृथ्वी पर भी एक ऐसा कल्पवृक्ष है , जिसमें सुरलोक के कल्पवृक्ष की सभी संभावनायें छिपी हुई हैं । अध्यात्म विद्या के अनुसंधानकर्ता मनीषी वैज्ञानिकों ने उस कल्पवृक्ष को ढूँढ़ निकाला है और प्रमाणित कर दिया है कि वह सर्वसुलभ है । उसे जो चाहे सो आसानी से पा सकता है और मनोवाँछित देवी सुख-सम्पदा का स्वामी बन सकता है । धरती के इस कल्पवृक्ष का नाम है-महाशक्ति गायत्री । गायत्री महामंत्र को स्थूल दृष्टि से देखा जाय तो चौबीस अक्षरों और नो पदों की एक शब्द-शृंखला मात्र है । परन्तु यदि गंभीरतापूर्वक अवलोकन किया जाय तो उसके प्रत्येक पद और अक्षर में ऐसे तत्वों का रहस्य छिपा हुआ मिलेगा, जिनके द्वारा कल्पवृक्ष के समान ही समस्त इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है ।

शास्त्रों में गायत्री कल्पवृक्ष का वर्णन मिलता है । इसमें बताया गया है कि - “ॐ“ ईश्वर अर्थात् अर्थात् आस्तिकता ही भारतीय धर्म का मूल है । इससे आगे बढ़कर उसके तीन विभाग होते हैं भूः, भुवः , स्वः । भूः का अर्थ है - आत्मज्ञान । भुवः का अर्थ है- कर्मयोग स्वः का तात्पर्य है- स्थिरता , समाधि। इन तीन शाखाओं में से प्रत्येक में तीन-तीन टहनियाँ निकलती है , उनमें से प्रत्येक के भी अपने-अपने तात्पर्य हैं । तत्-जीवन विज्ञान । सवितु-शक्ति संचय वरेण्यं-श्रेष्ठता । भर्गो-निर्मलता । देवस्य-दिव्य दृष्टि । धीमहि-सद्गुण । धियो-विवेक । योनः-संयम प्रचोदयात्-सेवा । भौतिक नौ रत्नों की तुलना में इन गुणों की महिमा-महत्ता कहीं अधिक है । गायत्री महाशक्ति हमारी मनोभूमि में इन्हीं को बोती है, फलस्वरूप अन्तराल रूपी खेत में जो उगता है, वह कल्पवृक्ष से किसी भी प्रकार कम नहीं होता ।

इनमें से प्रथम-जीवन विज्ञान की जानकारी होने से मनुष्य जन्म-मरण के रहस्य को समझ जाता है । उसे मृत्यु का भय नहीं लगता, सदा निर्भय रहता है । उसे शरीर का तथा साँसारिक वस्तुओं का लोभ भी नहीं होता । फलस्वरूप जिन साधारण हानि-लाभों के लिए लोग बेतरह दुख के समुद्र में डूबते और हर्ष के मद में उछलते-फिरते हैं, उन उन्मादों से वह बच जाता है ।

गायत्री कल्पवृक्ष की दूसरी देन है-शक्ति संचय की प्रेरणा । शक्ति संचय की नीति अपनाने वाला दिन-दिन अधिक स्वस्थ, विद्वान, प्रतिभाशाली, धनी, सहयोग सम्पन्न प्रतिष्ठावान बनता जाता है । निर्बलों पर प्रकृति के बलवानों के तथा दुर्भाग्य के आये दिन जो आक्रमण होते रहते हैं, उनसे वह बचा रहता है और शक्ति सम्पादन के कारण जीवन के नाना-विधि आनन्दों को स्वयं भोगता तथा अपनी शक्ति द्वारा दुर्बलों की पीड़ितों की सहायता करके पुण्य का भागीदार बनता है । अनीति वहीं पनपती है जहाँ शक्ति का सन्तुलन नहीं होता । शक्ति संचय का स्वभाविक परिणाम है-अनीति का अंत जो कभी के लिए कल्याणकारी है ।

वरेण्यं-अर्थात् श्रेष्ठता गायत्री की तीसरी उपलब्धि है । श्रेष्ठता का अस्तित्व परिस्थितियों में नहीं विचारो में होता है । जो व्यक्ति साधन सम्पन्नता में बढ़े-चढ़े हुए हैं, परन्तु लक्ष्य, सिद्धान्त, आदर्श एवं अंतःकरण की दृष्टि से गिरे हुए हैं , उन्हें निकृष्ट ही कहा जायगा । ऐसे व्यक्ति अपनी आत्मा की दृष्टि में और दूसरे सभी विवेकवान व्यक्तियों की दृष्टि में, नीची श्रेणी के ठहरते हैं और अपनी नीचता के दण्ड स्वरूप आत्म-प्रताड़ना, ईश्वरीय दण्ड और बुद्धिभ्रम के कारण मानसिक अशान्ति में डूबते रहते हैं । इसके विपरीत गायत्री कल्पतरु का आश्रय लेने वाला साधक भले ही गरीब एवं साधनहीन क्यों न हो, उसका अन्तः करण उच्च तथा उदार बनता जाता है और वह श्रेष्ठता की श्रेणी में जा बैठता है । यही श्रेष्ठता उसके लिए इतने आनन्द का उद्भव करती रहती है जो बड़ी साँसारिक सम्पदा से भी संभव नहीं ।

निर्मलता-गायत्री कल्पतरु की चौथी उपलब्धि है- निर्मलता अर्थात् सौंदर्य, वह वस्तु है जिसे मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी एवं कीट-पतंग तक पसन्द करते हैं । कुरूपता एवं रुग्णता का कारण गन्दगी ही है, चाहे वह बाहरी हो अथवा आभ्यंतरिक । शारीरिक गन्दगी जब मनुष्य को अस्वस्थ, निकृष्ट एवं निन्दनीय बनाती है, तो यदि यही मलिनता मनमें, बुद्धि में, अन्तःकरण में भरी हुई हो तब कहना ही क्या । ऐसे व्यक्ति का स्वरूप हैवान और शैतान से भी बुरा हो जाता है । इन विकृतियों से बचने का एकमात्र उपाय सर्वतोमुखी ‘निर्मलता’ है । गायत्री का ‘भर्ग’ तत्व भीतर-बाहर सब ओर से अपने उपासक को निर्मल बनाता है । शरीर, मन एवं कर्म से जो शुद्ध है, निर्मल है, वह सब प्रकार सुन्दर, प्रसन्न , प्रफुल्ल, मृदुल एवं सन्तुष्ट दिखाई देगा ।

पांचवीं उपलब्धि है-दिव्य दृष्टि । दिव्य दृष्टि से देखने का अर्थ है संसार के दिव्य तत्वों के साथ अपना संबंध जोड़ना । हर पदार्थ अपने सजातीय पदार्थों को अपनी ओर खींचता है और उन्हीं की ओर खुद खिंचता है । जिनका दृष्टिकोण संसार की अच्छाइयों को देखने-समझने और अपनाने का है, वह चारों ओर अच्छे व्यक्तियों को देखते हैं । जिनकी दृष्टि दूषित है, उनके लिए प्रत्येक प्राणी बुरा है, पर जो दिव्य दृष्टि वाले हैं वे ईश्वर की इस परम-पुनीत फुलवारी में सर्वत्र आनन्द ही आनन्द बरसता देखते हैं ।

सद्गुणों-का उन्नयन एवं अवधारण इस कल्प वृक्ष की सबसे बड़ी देन है । गायत्री का अवलम्बन लेने वाले अपने में अच्छी आदतें , अच्छी योग्यतायें अच्छी विशेषतायें धारण करते और आनन्दमय जीवन व्यतीत करते हैं । विनयशीलता , नम्रता , शिष्टाचार, मधुरभाषण, उदार व्यवहार, सेवा-सहयोग, ईमानदारी, परिश्रमशीलता, समय की पाबन्दी, नियमितता , कर्तव्यपरायणता , जागरुकता, धैर्य, साहस, पराक्रम, पुरुषार्थ, आशा , उत्साह आदि सद्गुण हैं । इस प्रकार की सम्पदा जिसके पास है, वह आनन्दमय जीवन बितायेगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है ।

धियो-विवेक एक प्रकार का वह आत्मिक प्रकाश है जिसके द्वारा सत्य-असत्य की , उचित-अनुचित की , आवश्यक-अनावश्यक की, हानि-लाभ की परीक्षा होती है । इस सम्बन्ध में देशकाल, परिस्थिति, उपयोगिता, जनहित आदि बातों को ध्यान में रखते हुए सद्बुद्धि से निर्णय किया जाता है, वही प्रामाणिक एवं ग्राहय होता है । जिसने उचित निर्णय कर लिया तो समझना चाहिए उसने सरलतापूर्वक सुख-शान्ति के लक्ष्य तक पहुँचने की सीधी राह पाली ।

संयम-अर्थात् तप स्वयं में कल्पवृक्ष के समान फलदायी है । गायत्री के यो नः अक्षर मानवी मनोभूमि को संयम की हर कसौटी पर कसने योग्य खरा बनाने की प्रेरणा देते हैं । जीवनी शक्ति का , विचार शक्ति का , अर्थ, समय एवं श्रम का, भोगेच्छा का सन्तुलन ठीक रखना ही संयम है । मानव शरीर आश्चर्यजनक शक्तियों का केन्द्र है । यदि उन शक्तियों का अपव्यय रोककर उपयोगी दिशा में लगाया जाय तो अनेक आश्चर्यजनक सफलतायें मिल सकती हैं और जीवन की प्रत्येक दिशा में उन्नति हो सकती है ।

गायत्री कल्पवृक्ष का नवाँ नवरत्न है-प्रचोदयात् सेवा। सहायता, सहयोग ,प्रेरणा, उन्नति की ओर, सुविधा की ओर किसी को बढ़ाना यह उसकी सबसे बड़ी सेवा है । इसी दिशा में हमारा शरीर और मन-मस्तिष्क सबसे अधिक हमारी सेवा का पात्र है क्योंकि वह हमारे सबसे अधिक निकट है । आमतौर से दान देगा , समय देना या बिना मूल्य अपनी शारीरिक मानसिक शक्ति किसी को देना सेवा कहा जाता है और यह अपेक्षा नहीं की जाती कि हमारे इस त्याग से दूसरों में कोई क्रिया शक्ति , आत्म निर्भरता, स्फूर्ति-प्रेरणा जाग्रत हुई या नहीं । दूसरों को आलसी , परावलम्बी और भाग्यवादी बनाने वाली हानिकारक सेवा भी एक प्रकार की सेवा है । सेवा वही उत्तम है जो दूसरों में उत्साह, आत्म-निर्भरता और क्रियाशीलता को सतेज करने में सहायक हो । सेवा का फल है-उन्नति । सेवा द्वारा अपने को तथा दूसरों को समुन्नत बनाना, संसार को अधिक आनन्दमय बनाना सबसे महान पुण्य कार्य है । इस प्रकार के सेवाभावी पुण्यात्मा साँसारिक और आत्मिक दृष्टि से सदा सुखी और सन्तुष्ट रहते हैं ।

यही है पृथ्वी का वह कल्पवृक्ष जो अपने उपासक को, आश्रित को भौतिक एवं आध्यात्मिक सम्पदाओं से भरा पूरा बनाता है । जिनके पास गायत्री के उक्त आध्यात्मिक नवरत्न हैं वे इस भूतल के कुबेर हैं । भले ही उनके पास धन-दौलत , जमीन-जायदाद न हो। यह नवरत्न मण्डित कल्पवृक्ष जिनके पास है वह विवेकयुक्त मनुष्य सदा सुरलोक की सुख, सम्पदा भोगता है । उसके लिए यह भूलोक ही स्वर्ग है । गायत्री को ‘सर्वकामधुक्’ अर्थात् समस्त कामनाओं को पूरा करने वाला कहा गया है । यही वह कल्पतरु है जो हमें चारों फल देता है । धर्म , अर्थ, काम , मोक्ष की चारों सम्पदाओं से स्थायी सुख-शान्ति से हमें परिपूर्ण कर देता है ।


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