धर्म धारण के चार चरण

January 1992

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प्रकृति और पुरुष के संयोग-समन्वय से इस निखिल विश्व-ब्रह्माण्ड की संरचना हुई है । जड़-चेतन के सम्मिश्रण से यह संसार बना है । पंच तत्वों में क्रियाशीलता तो है, पर विचारशीलता नहीं । चेतना निराकार होने से विवेचन निर्धारण तो करती है, पर कुछ करने के लिए उसे शरीर या पदार्थों का ही सहारा लेना पड़ता है । यह दोनों जब सही रूप में मिल जुलकर सुनियोजित क्रियाकलाप अपनाते हैं , तभी सुव्यवस्था एवं शान्ति-प्रगति की संभावना बन पड़ती है । बिजली के दोनों तार ठीक प्रकार मिल रहे हों , तभी करेंट चलता है । जड़ और चेतन के बीच सुनियोजित ताल-मेला बिठाये रहना ही सुखद संभावनाओं की संरचना करता है , अन्यथा विनाश और विग्रह के संकट आ धमकते हैं ।

पदार्थ सक्रिय नहीं , उसकी अपूर्णता इसलिए है कि वह संवेदनशील-विचारवान नहीं है । चेतना की अपूर्णता यह है कि वह बिना पदार्थों शरीरों की सहायता के जो उचित अभीष्ट है, उसे कर नहीं पाती । विसंगतियाँ विपन्नताएँ तो घुणाक्षर न्याय से अनायास भी बन जाती हैं । वस्तु स्थिति को समझने वाले तत्त्वदर्शियों ने दोनों की अपनी-अपनी मर्यादाएँ नियत की हैं । उदाहरण के लिए शरीर को कर्मनिष्ठ और चिन्तन को धर्मपरायण बनाना पड़ता है । यदि वे अपनी-अपनी मर्यादाओं को तोड़ने लगें, तो तटबंध टूट जाने पर जिस तरह नदियाँ बाढ़ का रूप धारण करके विनाश पर कटिबद्ध हो जाती हैं, उसी प्रकार कर्त्तव्यपरायणता और धर्मधारणा का व्यक्तिक्रम चल पड़ने पर वैसी ही विसंगतियाँ , विभीषिकाएँ उठ खड़ी होती हैं, जैसी कि वे इन दिनों घटाटोप बनकर सब कुछ उलट-पलट कर देने की चुनौतियाँ दे रही हैं । उपचार एक ही है कि दोनों पक्षों को अपनी मर्यादा में रहने के लिए बाधित किया जाय । न कर्म की उपेक्षा हो, और न धर्म की अवज्ञा भलाई इस अनुशासन के बने रहने में ही है ।

धर्म को समय समय पर आप्तजनों और शास्त्रकारों ने अपने-अपने ढंग से प्रतिपादित व निरूपित किया है, किन्तु समय के अनुकूल धर्म को आज चार चरणों के रूप में समझा जा सकता है । ये हैं- समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी ।इन चारों के समन्वित रूप को यदि धर्म का सारतत्व कहा जाय तो कोई भी अत्युक्ति न होगी ।

“समझदारी” का तात्पर्य है-दूरदर्शी विवेकशीलता को अपनाना। इसी कसौटी पर कस कर खरे खोटे की पहिचान करना । नीर-क्षीर विवेक एवं औचित्य के निर्धारण की विद्या के रूप में भी इसे समझा जा सकता है । किन्तु देखा यह जाता है कि आम लोग तात्कालिक सुविधा-प्रसन्नता और सफलता को ही सब कुछ मान बैठते हैं और इसी संकीर्ण दृष्टिकोण को अपनाकर वह कर बैठते हैं जो तत्काल भर में ही स्वादिष्ट प्रतीत होती हो पर बाद में उसकी प्रतिक्रिया विषतुल्य बनकर ही सामने आती है । चासनी के कढ़ाव में आँख मूँदकर टूट पड़ने वाली मक्खी यही भूल करती है और उस जल्दबाजी में प्राण संकट जैसे अनर्थ में जान गँवा बैठती है । जाल के साथ गुँथे हुए चारे का लोभ संवरण न कर पाने पर चिड़ियाँ और मछलियाँ भी बेमौत करती हैं । जिन्हें आज का, अभी का लाभ ही सब कुछ प्रतीत होता है वे चटोरे कामुक लोगों की तरह शरीर को रुग्ण-दुर्बल बना लेते हैं और अकाल मृत्यु के मुँह में जा पहुँचते हैं । नशेबाज अपव्ययी , दुर्व्यसनी , अपराधी किस प्रकार अपनाई गई उतावली का दुष्परिणाम भुगतते हैं यह किसी से छिपा नहीं है । समझदारी-विवेकशीलता में ही है । नासमझ ही आज को सब कुछ मानते और दुर्बुद्धिजन्य दुष्प्रवृत्ति में फँसकर अपना और अपनों का सर्वनाश करते हैं ।

धर्मधारण का दूसरा चरण है ईमानदारी । नेकनीयती, शालीनता , सज्जनता , प्रामाणिकता आदि का समुच्चय । दूसरों के साथ वही व्यवहार करना चाहिए जा अन्यान्यों से अपने लिए वाँछित है । इसी रीति को ईमानदारी कहते हैं । बेईमान तत्काल भले ही किसी की गिरह काट लें , धोखेबाजी के उपार्जन पर मूँछ मरोड़ लें, पर बाद में जब कलई खुलती है तो उपेक्षा, भर्त्सना, प्रताड़ना के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रह जाता । काठ की हाँड़ी दूसरी बार नहीं चढ़ती । ढोल की पोल खुल कर रहती है । धूर्तता अपनाने वालों के लिए अपनी मूर्खता की प्रतिक्रिया का परिणाम सामने आता है तो पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रह जाता ।

प्रामाणिकता की कसौटी पर खरे उतरने वाले ही सर्वसाधारण के विश्वास पात्र बनते हैं । उन्हें ही सघन सहयोग और भव भरे सम्मान का लाभ मिलता है । इस प्रकार के लोग ही छोटे से बड़े बनते, ऊँचे पद पाते और अपने कार्यक्षेत्र में बढ़-चढ़ कर सफलता प्राप्त करते हैं । बेईमान व्यक्ति भी ईमानदार नौकर तलाशता है । शराबी भी अपनी बेटी का विवाह किसी ऐसे से करना चाहता है जिसे कोई व्यसन न हो । इससे प्रकट है कि प्रगति पथ पर लम्बा सफर करने वालों के लिए ईमानदारी अपनाने के अतिरिक्त कोई और विकल्प रहता नहीं । संसार में सम्मानित विभूतिवान बनने वालों में से प्रत्येक को अपनी ईमानदारी हर कसौटी पर खरी सिद्ध करनी पड़ी है ।

धर्मधारणा का तीसरा चारण है-जिम्मेदारी । मनुष्य यों स्वतंत्र भी दीखता है और स्वेच्छाचार बरतने में भी अपने को स्वतंत्र मान बैठता है । पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं । जो जितना प्रतिष्ठित और परिष्कृत हैं उसे उतना ही अधिक कर्तव्य पालन की जिम्मेदारियों में बँधकर रहना पड़ता है ।

भगवान ने मनुष्य को सृष्टि का शिरोमणि पद ता दिया है, पर साथ ही वैयक्तिक पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों के साथ इस तरह कस दिया है कि स्वेच्छाचार बरतने की राई-रत्ती भी गुंजाइश नहीं रहती । ऊँचाई पर लहराने वाले झण्डों को गिर पड़ने का उपहास न सहना पड़े , इसलिए उन्हें कई जगह रस्सियों या तारों से बाँध दिया जाता है । बड़े तम्बू खड़े करने वाले भी इसी प्रकार उनकी सुरक्षा का प्रबन्ध करते हैं । गैर जिम्मेदारी भी प्रतिष्ठितों को एक बड़े अपराधी की तरह प्रताड़ित करती है । सेनापति का प्रमाद सहन नहीं किया जाता । उसे ड्यूटी पर से गैर हाजिर रहने पर कोर्ट मार्शल के सामने जवाबदेह होना पड़ता है ओर प्रमाद का परिणाम गोली से उड़ा देने के रूप में भुगतान पड़ता है । प्रहरी यदि अपनी जिम्मेदारी की उपेक्षा करके लम्बी नान कर कहीं जा सोये तो उस अवधि में हुई चोरियों के लिए उसी पर जिम्मेदारी लादी जाती और खिंचाई की जाती है ।

धर्मधारणा का चौथा चरण है-बहादुरी । गये गुजरे लोग कायरता धारण किये रहते हैं । अनीति सहते रहते हैं और गई गुजरी परिस्थिति के साथ समझौता करके किसी प्रकार आदर्श रहित जीवन जीते रहते हैं, पर यह स्थिति है सर्वथा मानवी गरिमा के प्रतिकूल ।

सृजन की तरह संघर्ष भी मानव जीवन का एक अनिवार्य पक्ष है । उसे सहयोग की नीति अपनानी पड़ती है और उदारता अपनाने के लिए भी कहा जाता है । इतने पर भी उस एकाँगी स्थिति से बात सर्वथा अधूरी रह जाती है । उसे अनौचित्य के प्रति असहयोग एवं विरोध का रुख अपनाना ही चाहिए । कायरतावश साहस के अभाव में जो शौर्य पराक्रम का परित्याग कर बैठते हैं उन्हें सज्जनता का आवरण ओढ़ने की बहानेबाजी से भी पीछा छुड़ाने का अवसर नहीं मिलता ।

आलस्य-प्रमाद दोष दुर्गुण अपने भीतर छिपे बैठे रहते हैं और चुपके-चुपके रोग-कीटकों की तरह व्यक्तित्व को खोखला करते रहते हैं । यदि उन्हें यथा स्थिति बने रहने दिया जाय, तो वह पौरुष प्रकट ही न हो सकेगा , जो दुष्प्रवृत्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए नितान्त आवश्यक है । अपने को सुधारने सुविकसित करने के लिए संचित कुसंस्कार से जूझना ही पड़ता है और अवाँछनीय प्रचलन के प्रभाव से जो पतन-पराभव सिर पर चढ़ता चला जाता है , उसके विरुद्ध विद्रोही के रूप में अड़ना और लड़ना पड़ता है । गंदगी न जाने कहाँ से आकर अपने इर्द-गिर्द जमती रहती है । इसके विरुद्ध बुहारी , साबुन , फिनायल आदि को प्रस्तुत रखना पड़ता है । समाज में अनेकों अनैतिकताएं बढ़ती ओर विस्तार पकड़ती जाती हैं । यदि इनका उन्मूलन सोचते या करते न बन पड़े , तो फिर समझना चाहिए कि दुष्टताजन्य अराजकता का ही बोलबाला दीख पड़ेगा ।

विडम्बनाएँ समाज में धर्म के नाम पर चलती रही हैं , धर्म के कारण नहीं । उसकी मूल प्रवृत्ति संरक्षण और सम्वर्धन की है । जिसके नाम पर भाई-से भाई लड़ते रहें हैं, वह मनुष्यकृत कल्पना-मान्यता , प्रथा एवं प्रक्रिया हो सकती है । उसे सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों से भरापूरा होना चाहिए । उसी के चार लक्षणोँ का प्रतिपादन ऊपर की पंक्तियों में हुआ है ।


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