कौतुक से भरा-पूरा अपना आपा

January 1992

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अंधेरा होते ही आसमान में तारे खिल-खिलाकर हँस पड़ते हैं। तितली अपनी चित्रकला का प्रदर्शन करती हुई थिरकती रहती है। कोयल की मस्ती उसकी कूक में से प्रस्फुटित होती रहती है। मोर अपने सुन्दर पंख को जहाँ-तहाँ दिखाते फिरने के लिये नृत्य करते रहते हैं। भौंरों को गूँजे गुनगुनाये बिना चैन नहीं पड़ता है। प्रकृति ने जिसे जो उपहार प्रदान किया है, उन्हें पाकर वह स्वयं तो मोद मनाता ही है अपनी उपलब्धियों का प्रदर्शन करके दूसरों का मन बहलाने में भी नहीं चूकता।

चींटियाँ इस प्रकार पंक्तिबद्ध चलती हैं मानों किसी सैन्य शिक्षा कैम्प से अभी उत्तीर्ण होकर लौटी हों। दीमकें अपने वस्तु कौशल के प्रदर्शन में चूकती नहीं। दिखाती हैं कि वे अपने कलेवर की तुलना में कितने अच्छे किस्म का योजनाबद्ध घर बना सकती हैं। मधुमक्खियां रसायन वेत्ताओं की तरह निरत हुई निरत भाव से छत्ते बनाती हुई दीखती हैं कि ऐसा ही कुछ सृजन करके दिखाओ तो जानें? जिधर भी नजर उठा कर देखी जाय, उधर ही प्रतीत होता है कि हर किसी को उसकी हैसियत के अनुसार बहुत कुछ मिला है, इतना अधिक हैसियत के अनुसार बहुत कुछ मिला है, इतना अधिक कि उससे स्वयं तो प्रसन्न रह ही सके कि वह कितना सौभाग्यशाली और कृतकृत्य है। यही है सृष्टा की नियति और प्रकृति की वास्तविक कृति जिसे यदि उपेक्षा अवमानना का पर्दा हटाकर देखा जाय, तो यहाँ बहुत कुछ ऐसा देखा जा सकेगा, जिसमें न केवल उपलब्ध कर्ता को वरन् दर्शकों का मन भी उत्साह से भर चले। हिरनों का चौकड़ी भरना और खरगोशों का दौड़ लगाना किसी का भी मन मोहने के लिये पर्याप्त है।

मनुष्य को उसकी वरिष्ठता के अनुरूप कुछ अधिक ही मिला है। दर्पण सामने रखकर बैठा जाय और उसमें चेहरे के विभिन्न भाग उपभागों को देखा जाय, तो उसकी बनावट हर सौंदर्य पारखी को अद्भुत, असाधारण और मनमोहक प्रतीत होगी। क्या ऐसा सर्वथा सुन्दर चेहरा सृष्टि के किसी अन्य प्राणी को भी मिला है? इसका पता लगाने पर ‘नहीं’ में ही उत्तर मिलेगा। बालक, वृद्ध, नर, नारी, काले, गोरे, रूपवान, कुरूप सभी में अपनी-अपनी विशेषता पायी जाती है। यदि कलाकार की दृष्टि से देखा जाय तो हर किसी का चेहरा अपने ढंग का एक असाधारण सौंदर्य प्रकट करता हुआ दिखाई देगा।

हथेली और उँगलियों को देखा जाय तो प्रतीत होगा कि ऐसी लोचदार संरचना किसी असामान्य द्वारा ही बन पड़नी संभव है। फिर जिसे यह उपलब्ध, हस्तगत हुई है, वह कितना भाग्यवान है? इन्हीं के सहारे वह कैसे साहित्य का सृजन कर सकता है, चित्र बना सकता है, मूर्तियाँ गढ़ सकता है और न जाने कितने कला-कौशल दिखा सकता है, जिन्हें देखकर अजायबघरों को नमन करना पड़े। अपने हाथों को जितनी बाद देखा जाय उतने ही अधिक वे बहुमुखी कलपुर्जों के केन्द्र प्रतीत होते हैं, फिर अवसरों पर जो उनकी मुद्रायें बनती हैं उनसे प्रतीत होता है कि अभिव्यक्तियों का जितना प्रकटीकरण वाणी द्वारा नहीं बन पड़ा उसकी पूर्ति हाथों के सहारे बन पड़ने वाली मुद्रायें प्रकट कर देती हैं। वक्ता, अभिनेता, नर्तक, कलाकारों के हस्त कौशल को देखकर उन पर कुछ भी न्यौछावर करने को मन करता है। मैत्री की सघन अभिव्यक्तियों के साथ जब हाथ मिलते हैं, तो लगता है मानों दो-दो व्यक्तित्व मिलकर एकाकार होने जा रहे हैं।

नेत्रों पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाय, तो उनकी तुलना पुतलियों में देखने वाला स्वयं अपने को विराजमान देखता है। आँखों के साथ मुखर होने वाली अभिव्यक्ति कितनी रहस्यमयी और कलापूर्ण है कि वाणी के द्वारा कहे गये शब्दों का वास्तविक भावार्थ नेत्रों की भाषा समझे बिना अधूरा ही रह जाता है। नाक है तो लम्बी मांसपेशी ही, पर उसके उतार-चढ़ावों के साथ सौंदर्य की असाधारण परतें जुड़ी होती हैं। एक प्रकार से व्यक्तित्व का अधिकाँश स्तर ही नाक की बनावट द्वारा प्रकट हो जाता है और फिर होंठ और दाँत, इनका तो कहना ही क्या? उनका हिलना, खुलना यह बताता है कि भावनाओं का उतार-चढ़ाव इनके माध्यम से किन रहस्यों को उजागर कर देता है। अन्य अंगों की भी ऐसी ही विशेषता है। प्रौढ़ जननेंद्रियों की झलक-झाँकी मिलने मात्र से मनुष्य विह्वल हो उठता है। सिनेमा वाले अंग प्रदर्शन की कुछ झलक-झाँकी दिखाकर ही दर्शकों को मोहित कर लेते हैं। उन्हें देखने के लिये बार-बार दौड़ते और साथियों को दिखाने के लिये आग्रहपूर्वक खींच-खींचकर लाते हैं। विज्ञापन करने वाले जानते हैं कि अपनी वस्तुओं की अधिक बिक्री बन पड़े, इस निमित्त सुन्दर चेहरे की छवि कितनी सफल सिद्ध होती है। यह है प्रकृति प्रदत्त मनुष्य के अंग-अवयवों की कुछ अकिंचन-सी झलक-झाँकी, जिसका सिनेमा, नाटक वाले पूरा-पूरा मूल्य सहज ही भुना लेते हैं। इन उपलब्धियों वाले तो उतने भर से न जाने किस-किस स्तर का कितना लाभ उठाते हैं।

मस्तिष्क के भीतर उमड़ती-घुमड़ती कल्पनाओं का यदि कोई चित्रकार अंकन कर सके, तो प्रतीत होगा कि वे कितनी शुभ-अशुभ विचित्रताओं से भरी-पूरी हैं। इसके आगे बुद्धि कौशल का क्षेत्र आता है। वहाँ ऐसे-ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय सेकेंडों में होते हैं, जिनकी गंभीरता खोजने में उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश वर्षों लगा देते हैं और न जाने कितनों का कितना श्रम नियोजित करा लेते हैं। मनुष्य की बुद्धि ही है, जिसने भाषा से लेकर दर्शन तक का सृजन किया है। ज्ञान और विज्ञान के अगणित पक्ष इसी गुहा से टिड्डी दलों की तरह सृष्टि के आदि से अन्त तक निकलते चलो की तरी सृष्टि के आदि से अन्त तक निकलते चले आये है और लगता है कि प्रलय और महाप्रलय के उपरान्त भी कल्प-कल्पान्तरों तक यह सिलसिला यथावत् चलता रहेगा। कहा जाता है कि इस सृष्टि को ईश्वर ने बनाया है किन्तु ईश्वर को किसने बनाया, इस प्रश्न का उत्तर यदि बिना पूर्वाग्रहों के अवरोध अटकाये विवेचनापूर्वक विचार किया जाय तो कहना पड़ता है कि ईश्वर की जिस में मान्यता है, वह मानवी बुद्धि का ही एक अनोखा निर्माण है। यदि ऐसा न होता तो अन्य प्राणियों को भी ईश्वर की मान्यता एवं अनुभूति हुई होती। केवल मनुष्यों का एक आस्तिक वर्ग ही है जो आप्तजनों द्वारा प्रतिपादित ईश्वर की मान्यता को स्वीकार करता है। नास्तिक तो अभी भी बुद्धि से बुद्धि गत उपादानों को काटते हैं और उसे अमान्य ठहराने वाले भूचाल तक पैदा करते हैं।

शासन, समाज, नीति, न्याय जैसी परम्परायें बुद्धि के क्षेत्र में समुद्र मंथन किये जाने पर ही उत्पन्न हुई हैं। मंद बुद्धि वाले वनवासी कबीले अभी भी इस प्रतिपादन से अन्य प्राणियों की तरह अपरिचित रह जाते हैं। धर्मों, सम्प्रदायों, भाषाओं, देशों में, संस्कृतियों में विश्व इन्हीं दिनों बँटा हुआ है। सभी अपने प्रिय प्रदेश, को सही मानते और उसके जिये लड़ने मरने तक को तैयार रहते हैं, पर भूल जाते हैं कि यह सारा पसारा उसी के द्वारा परिपोषित होकर विभिन्न कलेवर ओढ़कर अपने-अपने ढंग की अपनी-अपनी भूमिका निभा रहा है अन्यथा इस संसार में मनुष्यों की भी एक जाति है। एक ही प्रकार का उनका स्वभाव, रुख, रुझान और क्रिया-कलाप होना चाहिये, किन्तु देखा जाता है कि एक ही बिरादरी के लोग इतनी विचारधाराओं और दायरों में बँटे हुए हैं कि इन्हीं विभेदों के कारण मरने-मारने तक को उतावले हो उठते हैं। यह कुछ नहीं मात्र बुद्धि के भानुमती पिटारे से निकले हुए अजूबे मात्र हैं। एक दिन ऐसा भी आने वाला है कि मस्तिष्क की यह धारा अपना सारा पसारा समेट लेगी तो सारा मकड़जाल इकट्ठा होकर एक गोली की तरह मकड़ी के पेट में चला जायेगा और समूची मानव जाति एक परिवार की तरह हिल-मिलकर रहने लगेगी।

बुद्धि से आगे चेतना का, भाव, संस्थान है। इसमें भावनाएँ, मान्यताएँ , आस्थाएँ भरी पड़ी हैं। श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा का इसी में निवार है। उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, करुणा, सहिष्णुता, संयम जैसे मनुष्य को देवता बना देने वाले सद्गुण इसी क्षेत्र में निवास करते हैं। इसी को परिष्कृत कर लेने पर मनुष्य स्वर्ग जैसे आनन्द में अहर्निशि डूबा रहता है। जीवन, मुक्ति और भाव समाधि जैसे परम लक्ष्य को इसी संस्थान के अंतर्गत प्राप्त कर लिया जाता है। महामानव पद प्राप्त करने से लेकर, ऋद्धि - सिद्धियों का अधिष्ठाता बना देने वाली संभावना इसी केंद्र पर केन्द्रीभूत है। ईश्वर का निवार इसी केन्द्र में है। आत्मा और परमात्मा का मिलन जब कभी होता है। तब इसी परम गुहा के कपाट खुलते हैं और क्षुद्र को महान बनाने का अवसर उपलब्ध हो जाता है।

हाड़ माँस का बना यह शरीर लम्बा अधिक चौड़ा-मोटा कम, देखने में अति सामान्य लगता है। ऊपर की चमड़ी उतार दी जाये तो फिर वह नितान्त घिनौना भर शेष रह जाता है। इतने पर भी उसके अन्तराल में ऐसी दिव्य चेतना भरी पड़ी है। जिसे स्रष्टा का अंशधर या प्रतिरूप कहा जा सकता है। कितना आश्चर्य है यह सब? कितना विचित्र, कितना अद्भुत, कितना असाधारण। इसके घटकों में से कुछ छोटे-छोटे जीवाणुओं और ऊतकों के रूप में ऐसी संरचना से विनिर्मित हैं, जिनमें कुछ पर ही ध्यान एकाग्रित करने पर हैरत में रह जाना पड़ता है। कितना मनोरंजक कितना कौतुक से भरा पूरा है यह- “अपना-आपा।”


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