भूमि (Kavita)

January 1992

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जैसे बिना भूमि के, बीज नहीं बोया जात। वैसे ही है प्रखर प्राण का, इस तन से नाता॥

जितनी सक्षम भूमि, बीज उतना ही फलता है। बंजर में तो श्रेष्ठ बीज भी, कहाँ अँकुरता है॥

श्रेष्ठ भूमि ही एक बीज के, कई बनाती है। अपनी उर्वरता द्वारा, फसलें लहराती है॥ वसुन्धरा की गोद प्राप्त कर, बीज श्रेय पाता॥

मानव-तन में ही प्रतिभा के बीज पनपते हैं। इस तन को पाकर देवों के प्राण पुलकते हैं॥

स्वस्थ शरीर, आत्मा की सामर्थ्य व्यक्त करता। राम-कृष्ण, गौतम-गाँधी का, रूप यही धरता॥ इसीलिये देवों को दुर्लभ, यह तन कहलाता॥

आत्म-स्वाति की बूँद, इसी में मोती बनती है। इसी दीप में दिव्य चेतना, की लौ जलती है॥

मानव-तन की गरिमा को , बदनाम न करना है । सुधा-पात्र से विषयों का, विषपान न करना है ॥ भोगों का उन्माद, इसे पशु जैसा मदमाता ॥

मानव-तन की धरती में , सद्गुण अँकुराना है । करें देव अवतरण , इसे वह स्वर्ग बनाना है ॥

इस नन्दन-वन में , समता-ममता के फूल खिलें । सद्भावों के पंछी कलरव करते गले मिलें ॥ जनमंगल के गीत साँस का सुआ रहे गाता ॥

-मंगल विजय


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