प्रस्तुत अंक में ब्रह्मवर्चस् शोध सत्रों के अवसर पर परमपूज्य गुरुदेव द्वारा 23 नवम्बर 1979 को दिया गया उद्बोधन यथासंभव अविकल रूप में दिया जा रहा है। इस उद्बोधन में पूज्यवर ने मनीषा का आह्वान करते हुए उनसे युगानुकूल दायित्व निर्वाह हेतु उसे झकझोरा है। यह निमंत्रण आज तो और भी प्रासंगिक है, जब हम विश्वमानवता की कराहें सुन रहे हैं पर कान बन्द किए बैठे हैं । विशेष रूप से बुद्धिजीवियों के प्रति, जो उनकी जिम्मेदारियाँ हैं। उनका मर्मस्पर्शी चित्रण इस में है। प्रस्तुत है अमृतवाणी। गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलिए
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियों, भाइयों। मनुष्य को भगवान के अनुदान अन्यान्य प्राणियों से भिन्न मिले हैं। सामान्य प्राणी दो काम कर पाते हैं। एक तो अपना पेट भर पाते हैं,दूसरा सन्तान पैदा कर पाते हैं। किन्तु दूसरी ओर। दूसरी ओर मनुष्य के जिम्मे कैसे-कैसे शानदार अनुदान मिले है। अन्य प्राणी तो एक छोटी सी कल्पना रखते हैं जो ख्वाब के रूप में दिमाग में केवल एक सीमा तक ही काम आती है जो शरीर की जरूरतों को पूरा करती है। उससे आगे उन्हें कोई चिन्ता नहीं होती। चिन्तन की परिधि इन प्राणियों में उतनी ही है जिससे कि शरीर की जरूरतें पूरा कर सकें। चारा इकट्ठा कर सकें, घास खा सकें, दौड़ सकें, बच्चे पैदा कर सकें। बस इससे ज्यादा चेतना नहीं है।
आदमी को अन्य प्राणियों की तुलना में क्या-क्या मिला? शरीर ऐसा शानदार मिला कि कलाकार ने अपनी सारी की सारी कला एक ही केन्द्र पर खत्म कर दी, ऐसा मालूम पड़ता है। हाथ हमारा इतना शानदार है कि कि मालूम प्रकृति ने इसे बड़ा सोच समझकर मन लगाकर बनाया है। इतनी जगह से मुड़ने वाला, इतनी जगह से घूमने वाला इतने तरह के काम करने वाला हाथ किसी अन्य प्राणी के हिस्से में नहीं आया। दिमाग के बारे में हम क्या कहें। आँखों के लिए क्या कहें? हर इन्द्रिय के लिए क्या कहें? अनोखा प्राणी है मनुष्य। भगवान ने इस हाड़-माँस में जखीरे में एक ऐसी चेतना भर दी है जो अनोखी मालूम पड़ती है? बड़े सौभाग्यशाली है हम व आप जो ऐसा शरीर धारण करने में समर्थ हो चुके, सौभाग्यशाली सिद्ध हो सके। भगवान का अनुग्रह हम सब पर कि हम मनुष्य शरीर प्राप्त कर सके।
अगली वाली बात-और थोड़ी सुरक्षित रखी है, जिसे पात्रता के अनुरूप भगवान दिया करते हैं । सब प्राणियों को नहीं , किसी-किसी को देते हैं, जिसे सुपात्र पाते हैं । पात्रता आपकी बढ़ेगी तो भगवान की चार नियामतें , चार विभूतियाँ आपको मिलती चली जाएँगी । एक विभूति का नाम है । ऋत क्या है ? ऋत उसे विभूति का नाम है ऋत क्या है ? ऋत उसे कहते हैं जिसमें कई कीमती चीजें जुड़ी हुई हैं साजो सुरक्षा-शालीनता-अंतःप्रेरणा । ऋत जिस किसी के हिस्से में आता है , वह अपना कल्याण करता है और अपना कल्याण करके वह सीमित नहीं रह जात समाज का उत्तरदायित्व सँभालता है, सारी मनुष्य जाति का मार्गदर्शन करता है और इस पृथ्वी पर खुशहाली लाता है , ऋत उस वेग के हिस्से में आता है, जिसको हम सभी ब्राह्मण कहते हैं । ऋत उसे कहते हैं, जिसमें आदमी का चिन्तन और जीवन देवोपम बन जाता है । वह अपने लिए कर्तव्यों का निर्धारण करता है । क्या निर्धारण करता है ? “वयं राष्ट्रेजागृयाम पुरोहिताः “ । हम पुरोहित अर्थात् हम ब्राह्मण हम संत हम ऋषि यह उत्तरदायित्व ग्रहण करते हैं और यह घोषणा करते हैं कि “वयं” अर्थात् हम सब, “राष्ट्रे” सारे राष्ट्र को नागरिकों को विश्व मानवता को “जागृयाम” जीवन्त और जाग्रत रखे रहेंगे, जीवन्त और जाग्रत रखने की जिम्मेदारी केवल एक ही वर्ग के लोगों की है, जिनका नाम है ब्राह्मण। देवता और ब्राह्मण एक ही बात है। देवता आसमान में रहते हैं। देवता वे भी हैं, जिनके दिमाग आसमान में हैं। बाकी लोगों के दिमाग जमीन पर गड्ढे में-खड्डे-खंदक में रहते हैं। ब्राह्मण का दिमाग आसमान में रहता है। वह ऊँचा सोचता व ऊँचा ही चिन्तन करता है ऊँचा ही उसका लक्ष्य होता है। ऊँची ही उनकी विचारणा होती है। वैसे ही देव होते हैं। देव ऋत का पा करके-भगवान का अनुग्रह पाकर के अपना कल्याण करते हैं और समाज का हित भी साधते हैं।
“ऋतं च सत्यं च विद्धा तपसो द्विजायता” ऋत से सत्य की सत्य से तप की उत्पत्ति होती है और तप से गर्मी की उत्पत्ति होती है, जिससे दिन और रात पैदा होते हैं, जिससे संसार की व्यवस्था पैदा होती है। यह भगवान का अनुग्रह आप में से किन-किन के हिस्से में आया पता नहीं। पर यह जिस किसी के भी हिस्से में आया होगा, उसे ही बुद्धिजीवी कहेंगे। जो भी सुशिक्षित है-बुद्धिजीवी है, उनको अगर भगवान का प्यार मिल जाता है तो पहले मिलता है ऋत। ऋत से वे पहले अपना उद्धार करते हैं और फिर सारे विश्व का उद्धार करते हैं।
दूसरा वाला अनुदान दूसरी श्रेणी के लोगों को मिलता है। उसका नाम है शौर्य और साहस। तीसरा अनुदान है साधन और चौथे का नाम है श्रम। वर्णाश्रम व्यवस्था के हिसाब से यही चार प्रकार के वर्गीकरण हैं। भगवान के अनुदान एक के बाद एक मिलते हैं। जिनके हिस्से में पराक्रम है शौर्य है, साहस है हिम्मत है, वे दुनिया में अपने तरीके से काम करते हैं। कोलम्बस के तरीके से, नेपोलियन के तरीके से, सिकन्दर के तरीके से भौतिक दुनिया में बहुत काम कर जाते हैं और आध्यात्मिक जगत में फरहाद से लेकर मीरा तक वे विवेकानन्द से लेकर दयानन्द तक जाने क्या से क्या कर डालते हैं। ये गजब कर देने वाले प्राणी साहसी कहलाते हैं। साहसी को क्षत्रिय कहते हैं। तीसरे वर्ग के पास संपदाएँ रहती हैं और चौथा वर्ग है श्रमिक जो अपने पसीने से अपनी मेहनत-मशक्कत से दुनिया को खुशहाल बना देते हैं।
आदिकाल में दुनिया कैसी रही होगी? आरंभ में शायद वह ऊबड़−खाबड़ रही होगी, जैसी कि चन्द्रमा की खबर लेकर वैज्ञानिक आए हैं। एक इंसान ही रहा होगा, जिसने अपनी मशक्कत से अपनी मेहनत से इस जमीन को समतल किया होगा। इसी तरह से जानवरों को जो उच्छृंखलों के तरीके से, अस्त-व्यस्तों के तरीकों से हानि पहुँचाते हैं-प्यार से सहकारिता से डरा धमका करके मनुष्य का सहयोगी बनाया होगा। उसकी मशक्कत ने ही दुनिया में तरह-तरह की नई चीजें लाकर खड़ी कर दीं। इमारतें बनाने से लेकर घर, कपड़ा बनाने से लेकर अन्न उपजाने तक यह आदमी का श्रम है। श्रम का अनुदान मिलने से आदमी निहाल हो गया।
ताकत दूसरे प्राणियों में भी है, पर वे श्रम नहीं कर सकते। नियोजित श्रम उनके पास नहीं है।हाथी के पास घोड़े के पास ताकत है पर वह उस ताकत का उपयोग नहीं कर पाता। पर इंसान अपनी ताकत का जानकार है, उसका उपयोग कर सकता है और यह भगवान का अनुदान है और इसी से वह साधन पाता है।
आदमी की बुद्धि का श्रेष्ठतम भाग है ऋत। यह ऋत यदि आदमी को मिल जाय तो बुद्धि सार्थक हो जाती है। विद्या सार्थक हो जाती है। प्रज्ञा सार्थक हो जाती है और मनुष्य की जिन्दगी सार्थक हो जाती है। जिनमें से कुछ को भगवान ने शिक्षा दी है, वे आप मेरे समक्ष बैठे हैं। अब कमी एक ही रह जाती है कि इस सीप में कहीं से स्वाति की बूंदें टपक जायँ, जिनके पास दिमाग है शिक्षा है उनके अन्दर श्रद्धा की-स्वाति की बूंदें गिर जायँ तो आप ऋषि हो सकते हैं, महामानव हो सकते हैं। यह अक्ल का दुर्भाग्य है कि वह पेट भरने के काम आज आती है। उससे भी अधिक दुर्भाग्य आदमी का यह कि यह अक्ल जाल बुनने के काम आती है, वाक्पटुता के काम आती है व दूसरों को धोखा देने का कुचक्र रचने के काम आती है। अक्ल से जो हम कमाते हैं तो क्या बतायें आपको कि हम उसे कहाँ खर्च करते हैं? अक्ल की कीमत बाजार में ज्यादा मिलनी चाहिए। मिलती भी है। लेकिन उस मिलने के बाद हम करते क्या हैं? न जाने कहाँ उसे खर्च कर देते हैं। ऐसे में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर हमारे सामने आकर खड़े हो जाते हैं और बताते हैं कि अक्ल की कमाई कहाँ खर्च होनी चाहिए।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को उन दिनों जो वेतन मिलता था, उनने कहा उसमें से हमें औसत नागरिक के गुजारे की हैसियत से पचास रुपये से अधिक नहीं चाहिए, उनने अपने खानदान वालों को बुलाया और यह कहा कि हिंदुस्तान में जिस मुल्क में हम पैदा हुए हैं उस स्तर के मुताबिक हमें अपने पर व कुटुम्ब पर इससे अधिक खर्च नहीं करना चाहिए बाकी जो वेतन बचेगा उसे हम अन्य कामों में खर्च करेंगे जैसा कि भावनाशीलों-विचारशीलों को करना चाहिए। आपकी अक्ल भी उसी तरह खर्च होनी चाहिए जिस तरह से ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की हुई। उनके दिल में दर्द था। उनके भीतर था ऋत। ऋत उसे कहते हैं जिसमें शिक्षा की सार्थकता छिपी होती है। आप कौन हैं। आप वकील हैं तो अच्छा, करते क्या हैं? सबेरे से शाम तक झूठ बोलते हैं व बुलवाते हैं। फरेब करते हैं और करवाते हैं। इसी अक्ल से पेट भरते हैं। ऐसे पेट के ऊपर लानत है। ऐसे पेट को फट जाना चाहिए। जो पेट आदमी की अक्ल की कमाई से देश के लिए, धर्म के लिए, इंसानियत के लिए, भगवान के लिए गुनाह करता हो ऐसे पेट को आग लग जानी चाहिए।
मित्रो! यह ब्राह्मण के लिए लानत की बात है, शर्म की बात है। भगवान के दिये अनुदानों का सबको इस्तेमाल करना चाहिए। दूसरे लोग यदि अपनी अक्ल का इस्तेमाल न कर सकें तो कम से कम ब्राह्मण को तो करना ही चाहिए। दिमाग अगर खराब हो जाएगा, अक्ल अगर खराब हो जाएगी तो शरीर का क्या होगा? जिस समाज में, जिस देश में, जिस युग में, दिमाग ब्राह्मण अस्त−व्यस्त हो जाता है, तब उस देश की मुसीबत आती है। दूसरे लोग जब गड़बड़ा जाते हैं तो डाकू या उठाईगीरे बन जाते हैं और क्या करेंगे? गुण्डे की सामर्थ्य बस सामान उठाने, मारपीट करने, हत्या करने तक की है किन्तु जब ब्राह्मण बागी हो जाता है तो वह ब्रह्मराक्षस बन जाता है। अतः ब्रह्मराक्षस होने की लानत अपने सिर पर ओढ़ने से हमें इंकार करना आना चाहिए और समय रहते चेत जाना चाहिए।
युग की पुकार है कि ब्राह्मण जगे। आप कौन हैं? हम तो कायस्थ हैं। भई यहाँ वंश परम्परा का जिक्र नहीं हो रहा, विचार परम्परा की दृष्टि से आप जहाँ बुद्धिजीवी हैं, वहाँ आप एक ऐसी परम्परा के अनुयायी भी हैं जो आदमी को उसके कर्तव्यों-उत्तरदायित्वों की जानकारी कराती है। यदि ऐसा न होता तो आप हम से क्यों जुड़ते। मैं सोचता हूँ कि आप के भीतर कहीं न कहीं ऋत है। ऋत जो भगवान का सबसे बड़ा अनुदान है हमारे व आपके लिए एक बहुत काम करने को पड़ा है। काम यह है कि जो कुछ भी विचार का क्षेत्र हमारे सामने फैला पड़ा है, इसके भीतर से इसके आध्यात्म को हम निचोड़े। हमको साइंस की साइंस ढूँढ़ना है जिन सिद्धान्तों को लेकर के आदमी ने साइंस बनाने व बढ़ाने के लिए कदम बढ़ाया। यह दोनों काम किए बिना इतने बड़े वृद्धि का जंजाल-बुद्धि का भ्रम इतना बढ़ गया है कि क्या कहूँ मैं आप से। बुद्धि के ऊपर से पड़े आवरण इतने ज्यादा कँटीले इतने ज्यादा गहरे, इतने ज्यादा विषैले हैं कि इनकी काट छाँट करने के लिए हमको बड़े ऑपरेशन की जरूरत पड़ेगी। कैंसर का ऑपरेशन करने के लिए मामूली चाकू काम नहीं आते। अंदर लेसर किरणों से लेकर रेडियो आयसोटोप तक का इस्तेमाल करना पड़ता है और फूँक-फूँक कर कदम रखना होता है। फिलॉसफी की फिलॉसफी, नीतिशास्त्र का नीतिशास्त्र, मनोविज्ञान का विज्ञान हम गढ़ना चाहते हैं, पर यह कठिन काम है। ऑपरेशन जितना कठिन।
अगला हमारा काम है धर्मों का धर्म ढूँढ़ना। वह जो चार सौ करोड़ मनुष्यों में से अधिकाँश के सिर पर हावी है। मैं सोचता हूँ कि तीन सौ करोड़ के ऊपर धर्म है। सौ करोड़ मनुष्य ऐसे हो सकते हैं जो धर्म की लापरवाही करते हैं और बाद में परवाह नहीं करते। जो धर्म से नाखुशी जाहिर करते हैं उनको मैं मानता हूँ कि उन्हें धर्म की अहमियत समझ में आ गयी है। वे धर्म को समझते हैं । धर्म हेतु-विश्व धर्म की व्याख्या हेतु हमें आस्तिकता का-ईमान का प्रतिपादन करना होगा-धार्मिकता का-धर्मनिष्ठ-कर्तव्य परायणता का प्रतिपादन करना होगा। इसके लिए बुद्धिवाद का सहारा लेना होगा। तर्क और दलीलों को हम रोक नहीं सकते। बुद्धिवाद को हम सीमित नहीं कर सकते। आदमी के भीतर से जब तर्क का माद्दा उत्पन्न होता है तो अंकुश लगाना कठिन हो जाता है।
तर्क-दलील आज के जमाने की सबसे अच्छी व सबसे वाहियात चीज है। अच्छी क्यों? क्योंकि उसमें सत्य को ढूँढ़ निकालने की सामर्थ्य है-सम्भावना है। वाहियात क्यों? क्योंकि दलील के पीछे अगर अंकुश न हो, नियंत्रण न हो तो यह सब कुछ कर सकती है। दलील आप किसी भी पक्ष में दे सकते हैं। संस्कृत की एक पुस्तक है जो एम.ए. में पढ़ाई जाती है “न्यायकुसुमाँजलि” । उसमें यह बताया गया है कि दलील कैसे दी जाती है, बहस कैसे की जाती है! बहस में यह भी किया जा सकता है और यह भी। उनने दो टॉपिक लिए हैं एक ईश्वर है दूसरा ईश्वर नहीं है। दोनों पक्षों में जोरदार बहस होती है। अंत में दलील देने के बाद यह लिखा है कि हमने तो बहस करने का तरीका सिखाया है। आप यह विचार मत करना कि पुस्तक का लेखक नास्तिक है या आस्तिक।
दलील कुछ भी दी जा सकती है। उल्टी भी हो सकती है, सीधी भी हो सकती है निकम्मी से निकम्मी, बेहूदी से बेहूदी, पाजी से पाजी बातों के पक्ष में दलील पेश की जा सकती है। दलील ने ही स्वच्छन्द यौनाचार का पक्ष लिया है। दलील इतनी स्वेच्छाचारी है कि वह कभी फ्रायड का समर्थ करती है तो कभी अस्तित्ववाद के लिए कामुक और नीत्से के तरीके से नास्तिकवाद का। यह अक्ल, यह दलील निरंकुश होने पर न जाने क्या कर सकती है। मित्रों हमें यहां चार सौ करोड़ व्यक्तियों का भाग्य बनाना है, नया युग गढ़ना है तो हमें दलील की माँ को पकड़ना होगा। अकेले दलील से काम नहीं चलेगा। चोर की मौसी को गिरफ्तार करना होगा। अक्ल का दिमाग का बहरूपिया न जाने कैसे-कैसे वेश बदल कर हमें परेशान कर रहा है। हमें इस बहरूपिये की जन्मदात्री को पकड़ना होगा। तभी यह ठीक हो सकती है।
शोध प्रसंग में दो बातों के बारे में हमें गंभीर होना पड़ेगा। आये दिन हमें जहाँ कहीं दो बोर्ड दिखाई देते हैं। एक बोर्ड है “योगा” एवं दूसरा है-”शोध-रिसर्च”। “योगा” सबसे बेहूदा मखौल है आध्यात्म का। गली-गली में योगा के नाम पर आश्रम खुले हुए हैं। इनसे पूछो कि योग का क्या मतलब है तो दाँत निकाल देंगे। क्या योग मात्र सर्वांगासन होता है, डीप ब्रिदिंग होता है, हाथ पैर चला लेना होता है, मेडीटेशन होता है? बंदूक चलाने वाले मैस्मेरिज्म करने वाले चिड़िया मारने वालों में सबमें मेडीटेशन होता है, यदि मेडीटेशन अक्ल इकट्ठी करने का नाम है। खबरदार! योगा अलग है और मेडीटेशन अलग है। योगा-योगा जहाँ देखो मखौल के लिए इन्हें और चीज नहीं मिली जो योग को बना दिया। दूसरे हर किसी को रिसर्च करते देख सकते हैं शोध करते देख सकते हैं आप। गली-गली में रिसर्च करने वाले-शोध संस्थान गली-गली में। शोध से कम में कोई बात ही नहीं करना चाहता। भाई साहब हमारे दिमाग में बड़ी चीजें है। हम शोध का मजाक नहीं बनाना चाहते। बड़ी चीज के लिए बड़ा सामान इकट्ठा करने की कोशिश कर रहे हैं।
फिलहाल आपको एक छोटा सा काम सुपुर्द करते हैं। इन्टेलिजेंशिया जिस काम के लिए अभी बदनाम हैं, आप उस बदनामी को मिटायें। हर व्यक्ति जो इंटेलिजेंशिया से जुड़ा है, कहता है हम तो व्यस्त हैं। कुछ दो घण्टे स्कूल या कॉलेज में पढ़ा कर आते हैं व कहते हैं कि हम बिजी हैं? गप्पे हाँकते रहते हैं व कहते हैं कि हम व्यस्त हैं। यह झूठी बहानेबाजी की बातें हैं।
आप यह देखें कि ऋत के धारणकर्ता होने के नाते प्रज्ञा के विस्तार की आप पर जो जिम्मेदारी है, उसको निभाकर ही आप समाज के आप पर चढ़े ऋण को उतार सकते हैं। भगवान का-विश्वमानव का आप पर ऋण। इसके लिए पहली बात समय से चलती है। समय के साथ काम में तन्मय होने की कला। व्यस्तता इसे कहते हैं कि आदमी इस कदर लक्ष्य में तन्मय हो जाता है कि उसे समय का कोई ख्याल नहीं रहता। आप युग अनुसंधान, मानव धर्म की खोज, विज्ञान, अध्यात्म की शोध के विषय में गंभीर हैं तो आप बात वहाँ से शुरू कीजिए जहाँ से आपको टाइम देना पड़ेगा। यदि दे सकें तो समुद्र मंथन कीजिए। कभी देवता व असुरों ने मंथन किया था। देवता कौन? विचारणा, श्रद्धा, सद्भावना आदर्श तथा दैत्य कौन? दैत्य कहते हैं “जाइण्ट” को, शक्तियों को, पुरुषार्थ को, वैभव को, पदार्थ विज्ञान की शक्ति को। दोनों ने परस्पर लड़ाई झगड़ा करने की अपेक्षा समुद्र को मथना आरंभ किया। भगवान मदद के लिए आ गए व कच्छपावतार के रूप में मंदराचल के नीचे उनने स्वयं को लगा दिया। मथने के लिए शेषनाग आ गए व फिर विष निकला जिसे नीलकण्ठ-प्रलयंकर महादेव ने धारण किया। तत्पश्चात् चौदह रत्न निकलते चले गए जिसमें लक्ष्मी व अमृत भी थे।जो काम हम और आप करने चले हैं, उसकी उपमा समुद्र मंथन से दें तो कोई गजब की बात नहीं है।
समुद्र बहुत विशाल है। हमारा विचार परिकर बहुत विस्तृत है समुद्र के तरीके से। यदि हम इसमें गोते लगा सके तो बहुमूल्य मणि माणिक्य इसमें से निकल सकेंगे। आप अपनी बुद्धि का सही उपयोग करके, समय देकर अपने सही अर्थों में बुद्धिजीवी होने का प्रमाण दीजिए। आप पर सारे समाज का, युग का एक ऋण चढ़ा है, महती दायित्व है। उसे निभाइए। बताइए विज्ञान का विज्ञान व अध्यात्म का अध्यात्म। तभी तो दोनों मिल सकेंगे। अगली पीढ़ी का महामानव बनाने के लिए इससे कम स्तर के पुरुषार्थ से काम नहीं चलने वाला। हम बड़ा काम ही सोचते हैं, व करते हैं। क्या करना है हमें? हमें सूरज को, चन्द्रमा को धरती पर लाना है, जिससे इंसान निहाल हो जाय। आपने वैभव-विलास की जेल में बहुत जीवन बिता लिया। आप समय दीजिए व अपनी अक्लमन्दी का सही प्रमाण देकर युगशोध में खपिए, अपने को पूरी तरह लगा दीजिए। ज्ञान की जो धारा है उसे अपने साथ ले जाइए व पूरे समाज में प्रवाहित कीजिए बस अब यही करना है आप सब को।
मेरी बात समाप्त । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।