व्यक्तित्व रूपी सिक्के के दो पहलू

January 1992

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निजी स्वभाव, स्तर और पराक्रम में , उत्कृष्टता का समावेश अभिवर्धन करना आवश्यक हैं, क्योंकि निजी व्यक्तित्व ही वह चुम्बकत्व है, जिससे आकर्षित होकर दूसरों का सहयोग मिलता है और अनुकूल वातावरण विनिर्मित होता है । अपना स्वभाव क्रोधी हो तो प्रतिक्रिया ऐसी ही बनती रहेगी कि दूसरे भी दुर्व्यवहार करें और प्रतिशोध लें । आवेशग्रस्त व्यक्ति का स्वभाव, व्यवहार सज्जनों को भी खिन्न-विपन्न बना देता है । वे उसका बदला न भी लें तो भी उपेक्षा अवश्य अपनाते हैं । बचकर रहने एवं रखने का प्रयास करते हैं । ऐसी दशा में सहयोग, परामर्श , स्नेह तो मिल ही नहीं पाता और उस आधार पर किसी प्रकार का लाभ उठा सकने का सुयोग तो बनता ही नहीं । इसके विपरीत आदर्शवादी चिन्तन, चरित्र और व्यवहार ऐसी परिणति उत्पन्न करते हैं कि पराये भी अपनों जैसा बरताव करने लगें । सज्जनता की सद्भावना अनेकों को अनायास ही आकर्षित करती है और सम्मान सहयोग को अनायास ही आकर्षित करती है और सम्मान सहयोग के व्यवहार में अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करती है ।

महामानवों में यह विशेषता रही है कि वे अपने चरित्र को, स्वभाव को ऐसा बनाते हैं, जिसके प्रति सहज सद्भाव उपजे । अपने व्यक्तित्व का चुम्बकत्व उसी स्तर के लोगों को खींच बुलाता है और स्वभावतः ऐसा सहयोगी मंडल बन जाता है जो सत्प्रवृत्तियों में संलग्न रहता दिखाई पड़े, एक दूसरे को ऊँचा उठावे आगे बढ़ावे , सत्परामर्श दे, प्रशंसा करे और ऊँचा उठाने वाले प्रयासों का सुयोग बिठाये । इस प्रकार अपनी उत्कृष्टता दूसरों की श्रेष्ठता को उभारती है, निकट लाती है और उस समन्वय का प्रभाव यह होता है कि उस मंडली का प्रत्येक सदस्य लाभ में रहता है । अधिक नफे में वह रहता है, जिसने श्रेष्ठता सँजोने में पहल की थी । कारण यह कि उसकी व्रतशीलता संकल्प रूप में परिणत होती और सुस्थिर रहती है । जिस दिशा में तेज हवा प्रवाहित होती है, उसी ओर उस क्षेत्र में बिखरे हुए तिनके पत्ते भी उड़ने लगते हैं । स्वभाव की विशिष्टता अपने लिए सहयोग की बहुलता अनायास ही एकत्रित करती रहती है । महापुरुषों का सफल जीवन मूलतः इसी तथ्य पर आधारित रहा है । उनके विकास , परिष्कार में यही निमित्त कारण आधारभूत रहे हैं । उत्कर्ष के अनेक कारणों में जहाँ अपना पराक्रम, पुरुषार्थ महती भूमिका निभाता रहा है , वहाँ यह भी बड़ा कारण रहा है कि संभ्रांत सहयोगियों के प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से उस उत्थान में येन-केन प्रकारेण सहकार मिलते रहे हैं ।

व्यक्तित्व की उत्कृष्टता का प्रथम प्रतिफल आंतरिक संतोष है । संतोषी सुखी भी रहता है और प्रसन्न-उल्लसित भी । जिसे आन्तरिक संतोष है , उसे भीतर से शक्ति मिलती है और वह एकाकी चलकर अपने बलबूते भी बहुत कुछ कर सकता है । आदर्शों का अवलम्बन करने से उसका चिन्तन सही रहता है और कार्य करने की दिशाधारा में सोमनस्य बना रहता है । गलत मार्ग पर उसके कदम प्रायः उठते ही नहीं । उठते भी हैं तो तुरन्त वापस लौट आते हैं । गलती को सुधारने में देर नहीं लगती । इसमें झिझकने, संकोच या विलम्ब करने की आवश्यकता नहीं पड़ती । भूल करना मनुष्य की अपूर्णता के कारण होता ही रहता है पर महानता इसमें है कि भूल को देर तक अपनाये न रहा जाय । उसे समझ लेने के साथ-साथ सुधार भी लिया जाय । भूल करने पर जो अप्रतिष्ठा होती है, वह स्वीकार करने या सुधारने पर धुल भी जल्दी ही जाती है । सज्जनों की तरह भूल सुधारने वाले उदारचेता भी सम्मान पाते हैं और उनकी नीयत पर ईमानदारी पर जो संदेह उठने की बात उभरती थी , उसका सफाया हो जाता है । अकर्म करने और फिर उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर हठपूर्वक अड़ जाने से व्यक्ति गिरता है । उसकी सद्भावना पर हर किसी को अविश्वास उठने लगता है । भूल करना बुरी बात है , पर उससे भी बुरी बात यह है कि अपनी गलती को दूसरे पर थोपते हुए स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए दुराग्रही के सामने पड़कर कोई झगड़ा भले ही मोल न ले, किन्तु उसकी अविश्वसनीयता सुनिश्चित हो जाती है । हठवादी अपने पक्ष को अनुचित होते हुए भी उचित सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं, पर वे उसमें सफल नहीं हो पाते । यथार्थता को देर तक नहीं छिपाया जा सकता । प्रशंसा तो छिप भी सकती है , पर निन्दा हजार छिद्रों से होकर प्रकट होती है । उसे कोई पचा नहीं सकता । हींग की गन्ध कपूर लपेटने पर भी छिपती नहीं ।

मनुष्य को गिराने वाले वस्तुतः उसके दुर्गुण ही होते हैं । इन दुर्गुणों में कुछ तो अनुपयुक्त वातावरण में रहने के कारण देखा-देखी उपजते हैं । संगति का प्रभाव पड़ना सुनिश्चित है । प्रतिभावान व्यक्तित्व चाहे भले हों या बुरे , संपर्क क्षेत्र पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं , नशेबाज , जुआरी , शेखीखोर, लफंगे , बचकाने, कामुक प्रकृति के व्यक्ति संपर्क में आने वालों में से अधिकाँश को अपने जैसा बना लेते हैं । यही बात सुसंगति के बारे में भी है । सज्जनों के संपर्क में रहने से अनायास ही सत्प्रवृत्तियों की छाप पड़ती है और वे धीरे-धीरे साथियों को भी अपने जैसा बना लेती हैं । जिस वातावरण में दुष्प्रवृत्तियों का बोलबाला है उसके साथ यदि मनोयोगपूर्वक जुड़े रहा जाय तो उन दोषों की छाप पड़े बिना नहीं रह सकती । यही बात सत्यप्रवृत्तियों के संबंध में भी लागू होती है । छोटे बच्चों पर पारिवारिक वातावरण का गहरा असर पड़ता है । इसे सभी जानते हैं , पर यह भी भुला नहीं दिया जाना चाहिये कि बड़ी आयु में भी प्रभावशाली लोग दुर्बल मन वालों को अपनी चपेट में ले लेते हैं । इस संबंध में किशोर अवस्था भी बहुत संवेदनशील होती है ।

संगति के अतिरिक्त व्यक्तित्व को अपने ढाँचे में ढालने वाली दूसरी स्थिति है - उदारता या संकीर्णता की । उदार व्यक्ति दूसरे के प्रति आत्मीयता , ममता सद्भावना , सहकारिता का भाव रखता है । उनके गुणों को देखता है और प्रशंसापरक अभिव्यक्ति ही प्रकट करता है । यह उदारता अपने साथ श्रम, समय मनोयोग तो ले जाती है, पर बदले में जो लेकर लौटती है वह अपेक्षाकृत कहीं अधिक मूल्य का होता है । उदारचेता घाटे में नहीं रहते । वे अपनी सेवा सद्भावना को बीज की तरह बोते और फसल की तरह काटते हैं ।

अनुदार व्यक्ति संकीर्ण स्वार्थपरता में निमग्न रहते हैं । हर समय यही सोचते हैं कि दूसरों से किस प्रकार किस स्तर का , कितना लाभ उठाया जाय इसके लिए वे अनैतिक आधार अपनाने में भी नहीं चूकते । इस प्रसंग में छल प्रपंच रचते भी उन्हें देर नहीं लगती । मायाचार से तात्कालिक लाभ तो मिल जात हैं, क्योंकि दूसरे लोग उसे समझ नहीं पाते, धोखे में रहते हैं, इसलिए आसानी से ठगी में आ जाते हैं, पर एक सोने का अंडा रोज देने वाली मुर्गी का पेट चीरने वाले की तरह अपनी विश्वसनीयता खो बैठने के उपरान्त सदा के लिए अपनी साख गँवा बैठते हैं । फिर साधारण काम में साधारण बात में भी उनका कोई विश्वास नहीं करता । जिसे ठगा गया है उसकी चर्चा दूर-दूर तक फैलती है और अन्य लोग जिसका सीधा वास्ता नहीं पड़ा था, वे भी सावधान हो जाते हैं । एक को ठगकर हजारों की दृष्टि में अपनी साख गँवा बैठते हैं । ऐसी दशा में सहयोग मिलना तो दूर, कोई बात सुनने तक के लिए तैयार नहीं होता । यह स्थिति ऐसी है जिसमें आत्मधिक्कार और आत्मप्रताड़ना की दुहरी मार अपने को सहनी पड़ती है । प्रपंचकों की यह आन्तरिक दुर्दशा ही उनके बहिरंग जीवन को ऐसा बना देती है कि कोई उनका सच्चा मित्र नहीं रह जाता । जो भी संपर्क बनाता है, वह यही सोचता रहता है कि मेरे साथ भी कोई घात तो घटित नहीं हो जायेगी । यह स्थिति ऐसी है, जिसमें बार-बार आदमी को अपने स्थान और व्यवसाय बदलने पड़ते हैं । ऐसे व्यक्ति कोई महत्वपूर्ण सफलता तो पा ही नहीं सकते । संकीर्ण स्वार्थपरता हर किसी के भविष्य को अंधकारमय बनाती है । व्यक्तित्व के ये दो पहलू हैं । यह मानव पर है कि उत्कृष्टता का वह अवलम्बन लेता है यह चिर संस्कारजन्य निकृष्टता का।


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