प्रतीक के बिना बोध कैसे हो?

April 1991

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उनने चौकी पर बेतरतीब बिखरे पड़े कागज एक ओर समेटे। फिर अस्त-व्यस्त पड़ी किताबों को कोने की अलमारी में जमाने लगे। हाथ अभ्यस्त यंत्र की भाँति काम कर रहे थे। मन कहीं ओर खोया था शायद अध्ययन की विषय वस्तु में निमग्न। यह भी सम्भव है प्रणयन किए जा रहे ग्रन्थ के बढ़ते कदमों के लिए नई राहें तलाशने लगा हो। खुली हुई खिड़की से प्रवेश कर रही सुनहली आभा धीरे-धीरे अपने को समेटने लगी।

हर वर्ष की भाँति इस बार भी वह पैठण में अपनी छुट्टियाँ बिता रहे थे। उनके लिए छुट्टियां बिताने का मतलब ताश-चौपड़, सैर सपाटा, गप-शप जैसा कुछ न था। वे तो चेतना की रहस्यमय गहराइयों में भरी पड़ी बेशुमार रत्न राशि को खोजने में जुटे थे, ताकि उससे व्यक्तित्व को अलंकृत किया जा सके। स्वाभाविक है इस अनुसंधान को एकान्त की जरूरत पड़े। बस यही जरूरत पूरी हो रही थी इन दिनों।

उनका यह कमरा बस्ती से दूर था। कमरे की जितनी दूरी बस्ती से थी उतनी ही शोर-शराबे और कोलाहल से। दिन में यदा-कदा पशु-पक्षियों की आवाजें और इक्के-दुक्के मानव स्वर गूँज जाते परन्तु रात के दूसरे पहर में थोड़ा विश्राम कर शेष समय को गम्भीर ध्यान में बिता देना और दिन में अपने ग्रन्थ को पूरा करने में लग जाना यही उनकी अहर्निशिचर्या थी, जिसमें तप और स्वाध्याय का गहरा सामंजस्य आ जुटा था।

खिड़की से महुए के पेड़ की ओर निहारते हुए पास की खूँटी में टँगा कुर्ता पहना, कन्धे में दुपट्टा डाला और पैर अनजाने में चप्पलों की तलाश में कोने की तरफ बढ़ गये। तभी बाहर घोड़ा-गाड़ी रुकने की आवाज आई। थमती टापों और हिनहिनाहट के शब्द साफ थे। भारी बूटों की पास आती जा रही ध्वनि ने उनके मन में स्मृति स्पन्दनों को जगाया। होठों पर हलकी मुसकान उभरी।

कुछ पलों में आगन्तुक ने कमरे के अन्दर प्रवेश करते हुए उन्हें सिर से पैर तक एक बारगी निहारा। उसे भाँपते देर न लगी कि कहीं जाने की तैयारी हो रही थी। कहीं जा रहे थे क्या? अनुमान ने प्रश्न का रूप लिया। बस। यहीं पैठण के अधिदेवता का दर्शन करने। ओह। उसने होठों को सिकोड़ते हुए कहा स्वामी दयानन्द जो तथ्य अपने बचपन में समझ गए उसे आप इतनी उम्र के बाद भी नहीं समझ पाए।

प्रायः इन दोनों के मिलन के अवसर पर यह विवाद कहीं न कहीं से प्रवेश कर ही जाता। फर्ग्युसन कालेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर दर्शन और धर्म अकादमी के संस्थापक यौक्तिक रहस्यवाद नाम से दर्शन में नई विद्या को विकसित करने वाले होकर भी वे मूर्तिपूजा की महत्ता स्वीकार करते थे जबकि मित्र महोदय को उनकी इसी आदत से चिढ़ थी, जबकि अन्य गुणों की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। आज फिर आते ही आते यह विषय टपक पड़ा। सज्जन पुनः बोल उठे बचपन में जिस सत्य का साक्षात्कार उन्होंने किया था, वह तो शाश्वत ही था। वह सत्य का साक्षात्कार नहीं था, कल्पना थी। वे कह रहे थे निर्णय का भार चलो आप के ऊपर ही रहा। जरा यह बताइए, यदि स्वामी जी आज जीवित होते और उन पर कोई बच्चा मुट्ठी भर धूल फेंक देता तो क्या वे उसे डंडा लेकर मारने दौड़ते?

आप भी कैसी बात कर रहे हैं। आगन्तुक सज्जन ने कहा- स्वामी जी ने अपने प्रति किए गए बड़े से बड़े अपराध को क्षमा ही किया है। उनका जीवन तो अद्भुत क्षमाशील रहा है।

यह सत्य है कि स्वामी जी बड़े क्षमाशील थे, पर जिस सर्व शक्तिमान क्षमा सिन्धु की अनन्त क्षमा का एक कण पाकर महात्मा संत क्षमाशील होते हैं उस परम पुरुष की क्षमाशीलता का अनुमान कोई कैसे लगा सकता है। वही अनन्त करुणा वरुणाय अपनी मूर्ति पर चढ़कर घूमते और चढ़े हुए अक्षत को खाते एक चूहे को वैसा करने देता है, इससे मूर्ति में ईश्वर नहीं है ऐसा सत्य कहाँ से आ गया? आप आशा करते हैं कि अपनी ही सृष्टि के एक अबोध शिशु को जो प्रसाद से उदरपूर्ति के प्रयत्न में है, वह जगन्नियन्ता शिव त्रिशूल लेकर मारने दौड़ेगा? अपने कथन को पर्याप्त सौम्य बनाकर उनका हाथ थामते हुए बोले अच्छा पहले विठोबा का दर्शन करने चलते हैं समय हो रहा है।

रामचन्द्र तुम अच्छी तरह जानते हो। कहने के साथ एक रोष भरी दृष्टि से उनकी ओर ताका।

मूर्ति में श्रद्धा न हो यह बात तो समझ में आती है पर अकारण द्वेष का कारण भी तो नहीं। फिर स्वामी दयानन्द ने भी मूर्तिपूजा के आडम्बर-पाखण्ड का खण्डन किया उसके विज्ञान का नहीं। बोलते हुए उनका हाथ थामे कमरे के बाहर निकले और उस ओर चल पड़े जिधर गाड़ी खड़ी थी।

तो इसका कोई विज्ञान भी नहीं है। कन्धे उचकाते हुए उनकी ओर मुड़े।

पहले बैठो तो फिर बताते हैं। स्वयं बैठने के साथ उन्हें बैठाते हुए कोचवान को मन्दिर चलने का संकेत किया। उसने एक नजर अपने मालिक पर डाली जैसे नेत्रों की भाषा में पूछना चाहता हो आज गोदावरी का प्रवाह उल्टा कैसे?

सवाल अनुत्तरित रह गया। एक हिनहिनाहट के साथ घोड़ों की टापें राह को रौंदने लगीं, पहिए उनका अनुगमन करने लगे। पहियों की गति के साथ उनकी चर्चा चक्र का थमा वेग पुनः बह चला।

मूर्ति को प्रतीक और उपासना को मन की प्रशिक्षण पद्धति तो मानते हो? जवाब में सुनने वाले ने हाँ कहने के साथ कुछ और कहने के लिए पैंतरा बदला।

आशय समझ कर वह हँसते हुए बोले पहले पूरी बात सुन लो, फिर कह लेना। व्यवहार जगत का जर्रा-जर्रा प्रतीकों से भरा है। इनके हटाने का मतलब है चैतन्य चादर से सब कुछ ढक देना। जरा सोचो व्याकरण शास्त्र, शब्द शास्त्र, सारी भाषाएँ और वह सब कुछ जो तुम्हें किसी तथ्य का बोध कराता है प्रतीक ही तो हैं। इनके समाप्त कर देने पर क्या बैखरी, पश्यन्ती और मध्यमा वाणियों का अस्तित्व बचा रहेगा? क्या प्रतीकों की अवहेलना समूचे जीवन व्यवहार की अवहेलना नहीं है?

सुनने वाला तनिक कसमसाया किन्तु वह कहे जा रहे थे। मन विचारों को आकार में देखने का अभ्यासी है। दिन में सोचे गए विचार रात के स्वप्न में चिन्तन के रूप में नहीं घटनाक्रम और आकारों के रूप में दिखते हैं। अब तो मनोविज्ञान ने भी प्रतीकवाद को सिद्धान्त के रूप में स्वीकार कर लिया है।

हाँ। यह तो हैं। कहे गए स्वरों में पर्याप्त शिथिलता थी। सत्य को मानने के सिवा और चारा भी क्या था। जब हम सर्वत्र इनके महत्व को स्वीकारते हैं तब उपासना के क्षेत्र में हिचकिचाहट क्यों? प्रशिक्षित मन ही आत्मा की अनन्त भाव रश्मियों को जीवन में बिखेरता है और उसका प्रशिक्षण प्रतीकों के अभाव में सम्भव नहीं भले ही वे प्रकाश और ज्योति शिखा जैसे अन्तर प्रतीक क्यों न हों?

कथन के साथ मन्दिर की घण्टियाँ सुनाई देने लगी। मन्दिर से थोड़ी दूर पर घोड़ा गाड़ी थमी। वे दोनों उतरे। बढ़ते कदमों के साथ मन्दिर में प्रवेश किया। उनका मन जहाँ प्रसन्न था-वहीं साथ वाले सज्जन कुछ अनमने थे। अनेक राहों से चल कर आ रहे व्यक्ति मन्दिर के प्राँगण में प्रवेश कर रहे थे। मानो मन्दिर में स्थापित श्रद्धा पुँज अपनी भाव रश्मियों को आकर्षित कर रहा हो।


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