उन दिनों श्री जाकिर हुसैन जामिया मिल्लिया के अधिष्ठाता थे। छात्रावास की भी वे ही देख भाल करते थे।
उस दिन उन्हें छात्रावास निरीक्षण के लिए जाना था। दरवाजे में प्रवेश किया तो देखा लड़के भोजनालय में हैं। दरवाजे पर सभी के जूते अस्त−व्यस्त पड़े हैं। सबसे पहले उनने जूतों को लाइन से लगाया और पोंछकर ठीक किये।
इसके बाद भीतर घुसे तो देखा कि लड़के रसोइये से लड़ रहे हैं। रोटी के कच्ची जले होने की शिकायत कर रहे हैं। दाल को पतली बता रहे हैं। इनने बीच में एक थाली रख रखी थी जिसमें रोटी का नापसंद भाग और दाल का ऊपर का पानी जमा करते जा रहे थे, फेंकने और अफसरों को दिखाने के लिए। लड़ रहे थे सो अलग।
जाकिर साहब पहले तो एक कोने में खड़े होकर यह सब देखते सुनते रहे। पीछे वे बीच वाली थाली के पास पहुँचे और बैठ कर उस फेंके गये सामान को खाने लगे।
लड़के स्तब्ध रह गये। जाकिर साहब ने कहा बच्चों! हम लोग जिस देश में रहते हैं। उसमें करोड़ों को ऐसा भी नहीं मिलता जितना कि तुमने फेंक दिया है। खाना बरबाद करने से पहले यह भी तो सोचना चाहिए।
लड़कों ने माफी माँगी और भविष्य में सादगी से काम चलाने का आश्वासन दिया।