प्रतिभा की तलाश है।

April 1991

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सामान्यतः मनुष्य देखने-सुनने में हाड़-माँस की एक मशक मात्र लगता है और स्वयं को वह इससे अधिक कुछ समझता भी नहीं हैं। तो क्या सचमुच बात ऐसी ही है? उत्तर होगा-नहीं। भले ही वह सामान्य दृष्टि में एक चलता-फिरता पुतला भर दीखता हो, पर वह इतना ही नहीं है। उसका जब वास्तविक स्वरूप निखरता है, तो अंगारे के ऊपर से हटी राख की भाँति प्रखर प्रतिभा बन कर प्रकट होता है। भले ही वह किसी भी क्षेत्र में हों।

लौह खण्ड जमीन के नीचे यत्र-तत्र कितने ही पड़े रहते हैं, पर उनकी महत्ता सामान्य पत्थर (अयस्क) से कोई बहुत अधिक नहीं होती है, किन्तु जब सामान्य पत्थर समझे जाने वाले उसी लोहे को भट्टी में अनेकानेक प्रकार से संस्कारित किया जाता है, तो वही धातु मजबूत फौलाद बन कर इस्पात के रूप में सामने आती है। यह ऐसी होती है, जिस पर न जंग चढ़ती है, न आसानी से झुकती है। मनुष्य में जब इतनी प्रखरता आ जाये कि वह विपरीत परिस्थितियों में भी रुके-झुके नहीं, वरन् प्रवाह को मोड़-मरोड़ कर अपने अनुकूल कर ले, तो यही उसकी प्रतिभा कहलाती है। सामान्यतः यह बीज रूप में होती तो सभी में हैं, पर उसकी पहचान कर प्रयासपूर्वक उगाने का झंझट हर कोई मोल लेना नहीं चाहता। यही जब जग पड़ती है, तो पदार्थ के छोटे कण में छिपी असाधारण शक्ति की भाँति मनुष्य इतना समर्थ और शक्तिवान बन जाता है कि जहाँ, जब जिस लक्ष्य पर भी चल पड़ता है, बम की तरह धमाका करता हुआ लोगों के अन्तराल को झकझोर कर अपने साथ-साथ चल पड़ने के लिए बाधित करता है।

इतिहास साक्षी है, जिस किसी ने भी समय और समाज के प्रवाह को मोड़ा है, उन सबने अपने अन्दर की इसी पराक्रमजन्य प्रतिभा को जगाया और जन-जन के मन-मन में चिंगारी से ज्वालमाल बन जाने की प्राण-प्रेरणा फूँकी है। इटली का उदाहरण हमारे समक्ष है। जब वह आस्ट्रिया के अधीनस्थ था, तो शासक वर्ग के शोषण और उत्पीड़न से जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। मैजिनी से अपने देशवासियों की यह वेदना नहीं देखी गई। उनने विदेशियों के उपनिवेशवाद को उखाड़ फेंकने का निश्चय कर लिया। वे चोरी छिपे वाणी और लेखनी के माध्यम से परतंत्रता के विरुद्ध जनचेतना जगाने लगे। इस क्रम में एक समय ऐसा आया, जब प्रत्यक्ष युद्ध की स्थिति बन पड़ी। देशवासियों ने विदेशियों के विरुद्ध युद्ध किया और स्वाधीन हुए। ऐसी होती है प्रतिभा। मैजिनी को इस सिलसिले में न जाने कितनी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा, पर वे कभी झुके नहीं , उनके सामने हार नहीं मानी और लक्ष्य पर बढ़ते चले गये, जिसका सुफल-सत्परिणाम स्वतंत्रता के रूप में सामने आया। इसीलिए तो इटलीवासी उन्हें राष्ट्रपिता के नाम से पुकारते हैं।

यही बात वाशिंगटन के जीवन में भी दिखाई पड़ती है। भारत में जो स्थान और लोकप्रियता गाँधी जी को प्राप्त है, वैसे ही पूज्यनीय, अमेरिका में वाशिंगटन हैं। परतंत्र अमेरिका को स्वतंत्र बनाने और मूर्च्छना की स्थिति में पड़ी जनता में प्राण फूँकने का दायित्व उन्होंने ही निभाया था- अपने जीवट और पुरुषार्थ के बल पर। बाद में जब अमेरिका स्वाधीन हुआ, तो राष्ट्रपति पद का प्रश्न उठा। उनसे कइयों ने यह दायित्व भी उठा लेने का आग्रह किया, किन्तु उनने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और जनमत संग्रह की सलाह दी, ताकि देशवासी पद लोलुपता का आरोप न लगा सकें। यह बात दूसरी है कि चुनाव में भी सर्वसम्मति से राष्ट्रपति वही चुने गये।

प्रतिभावानों की सबसे बड़ी विशेषता नम्रता होती है। वे अपने लक्ष्य के मार्ग पर जितने दृढ़ होते हैं, व्यवहार-क्षेत्र में उनकी शालीनता उतनी ही नमनीय होती है। गाँधी जी स्वराज्य प्राप्ति के अपने निश्चय से कभी डिगे नहीं, पर उनकी नम्रता भी देखते ही बनती थी। विनोबा ने कदाचित् इसीलिए कहा है कि हमारी गर्दन न अकड़ी हो-अहंकार से, अभिमान से, न आवश्यकता से अधिक झुकी हुई हो हीनता से, भीरुता से, वरन् वह प्रतन्य हो, समय आने पर वह सीधी तनी भी रह सके और अन्य अवसरों पर झुक भी सके, बाँस की तरह, तभी वह व्यक्तित्व प्रतिभावान कहला सकता है।

मैजिनी में यही विशेषता थी। जन-चेतना उभारने में उनने अग्रणी भूमिका निभायी, किन्तु जब युद्ध का अवसर आया, तो नेता पद से स्पष्ट इन्कार कर दिया। कहा-ठीक है, आप मुझे नेता मानते हैं, मैं आपका नेता हूँ, पर अभी युद्ध का अवसर है। इसमें मेरी गति नहीं। इसके लिए हम लोगों को गैरीबाल्डी को अपना नेता बनाना चाहिए। वे इस विद्या में निष्णात हैं। तब गैरीबाल्डी सामान्य सैनिक थे, किन्तु उनके नेतृत्व में भी उनने साधारण सिपाही की तरह इटली के स्वाधीनता संग्राम में हिस्सा लेने में तनिक भी हिचक नहीं दिखाई।

प्रतिभावानों की दूसरी बड़ी विशेषता है-कष्ट-कठिनाईयों से भरा परमार्थ परायण जीवन। उन्होंने दूसरों के आगे अपने सुख-सुविधा की बात कभी नहीं सोची और अंतिम साँस तक समाज के बारे में ही सोचा, चाहे वह आयरलैण्ड के मैक्स्वीनी हों, इटली के गैरीबाल्डी एवं उनकी पत्नी एनीटा हों, विनोबा, गाँधी अथवा विद्यासागर कोई हों, सदा मानवता के कल्याण के लिए जिया और उसी को अपनी बहुमूल्य विरासत सौंप कर इस संसार से विदा हुए, ताकि आने वाली पीढ़ी उस धरोहर से अभीष्ट प्रकाश-प्रेरणा ग्रहण कर उनके पद-चिन्हों पर चल सके, और उन्हीं के समान इतिहास के पन्नों में अमिट-अमर बन जाये।

पर इसे क्या कहें अपनी मूर्च्छना? समय का प्रतिकूल प्रवाह ? दुर्भाग्य ? या उस मिट्टी को दोष दें, जिसने संरचना तो गढ़ी, पर इतनी अनगढ़ जो आसन्न संकट में भी उठ बैठने का संबल नहीं जुटा पा रही है। कुछ भी हो, अब हमें इस सन्निपात की स्थिति को त्याग कर आपत्ति कालीन घड़ी में किसी न किसी प्रकार जागना ही पड़ेगा और महाकाल की इच्छा में ही अपनी इच्छा समझ कर वह कर गुजरना पड़ेगा, जिससे हम स्वयं धन्य बन सकें और अपनी पीढ़ी को भी निहाल बना सकें, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ हम पर यह लाँछन न लगा सकें कि हमने काहिली की जिन्दगी जी कर भगवान की पुकार अनसुनी कर दी।

तो फिर क्या किया जाय? उपाय एक ही है कि हम अपनी रुचि को जाने, प्रच्छन्न प्रतिभा को पहचानें और उसे तराश-खराद कर ऐसा सुन्दर-सुगढ़ बना लें, जिससे देखने-सुनने वालों का मन हुलसने लगे एवं संपर्क में आने वालों की भी इच्छा वैसा ही बनने की जग पड़े। प्रतिभावानों का इतिहास बताता है कि जो आज प्रतिभाशाली हैं, वे कल तक मिट्टी में सने सोने की भाँति थे। उन्होंने अपने को पहिचाना, चमकाया, तभी वे कसौटी पर सौ टंच खरे साबित हो सके। रामवृक्ष बेनीपुरी चरवाहा थे। उन्होंने अपनी साहित्यिक विशिष्टता को परखा और साहित्यकार बन गये। मिडिल पास जयशंकर प्रसाद अपना जातिगत धन्धा दुकानदारी करते थे, किन्तु जब उनका कवि हृदय जगा, तो हिन्दी साहित्य के महान कवि बन गये। अक्षर ज्ञान जितना साहित्य से परिचय रखने वाले यायावर की जिन्दगी बिताने वाले राहुल साँस्कृत्यायन अपने उत्तरार्ध जीवन में हिन्दी, संस्कृत, पाली, तिब्बती और रूसी भाषा के उद्भट विद्वान बन गये थे।

इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में भी प्रतिभावानों की ऐसी ही मिलती-जुलती कहानियाँ हैं। वनस्पति और प्राणिजगत में वैज्ञानिक नामकरण की पद्धति के कारण कार्ल वाले लीने नाम से जाना जाने वाला सामान्य सा व्यक्ति कैरोलस लिनियस नामक ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक बन गया। पादरी का काम करने वाला ग्रेगर मेण्डल आनुवंशिकी के ‘जनक’ के नाम से प्रख्यात हुआ।

यह सब तो प्रतिभा के उन्नयन, विकास संबंधी चर्चा हुई, पर महत्वपूर्ण यह नहीं है कि प्रतिभा का विकास कर लिया गया, वरन् महत्ता इस बात की है कि उसका सुनियोजित बन पड़ा या नहीं। लोग धाराप्रवाह भाषण भी दे लेते हैं, साहित्य सृजन भी कर लेते हैं।


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