सन्त विनोबा के बड़े भाई बालकोवा एक बार अचानक बीमारी के शिकार हुए, उन्हें क्षय हो गया। उन दिनों यह राजरोग असाध्य माना जाता था। चिकित्सक और साथी भी कोई उत्साहवर्धक आश्वासन न देते थे।
इन परिस्थितियों में बालकोवा ने ईश्वर की शरणागति ली और समर्पण का व्रत लिया। अच्छे हो गये तो वे समाज सेवा के कार्य में अपने को पूरी तरह खपा देंगे। प्रार्थना का प्रभाव हुआ। बालकोवा अच्छे हो गये। उसने प्राकृतिक चिकित्सा का गहरा अध्ययन किया। गाँधी जी ने जब उरली काँचन में प्राकृतिक चिकित्सालय स्थापित किया तो उसके संचालक का उत्तरदायित्व बालकोवा को ही सौंपा और उनकी यह सेवा साधना आजीवन चली।
इसके विपरीत कई मौकों पर देखा जाता है कि जिन्हें असामान्य सुन्दरता प्राप्त है, उनके आचरण और व्यवहार इतने असुन्दर होते हैं कि लोग उनके नाम से ही घृणा करते हैं। फिर यह खूबसूरती किस काम की। तात्पर्य यह है कि आन्तरिक सौंदर्य यदि न हो तो बाह्य सौंदर्य बेकार साबित होता है। जबकि आन्तरिक खूबसूरती के लिए शारीरिक खूबसूरती होना कोई आवश्यक शर्त नहीं है। गान्धी जी, बिनोवा आदि रूप सौंदर्य में आकर्षक थे, ऐसा नहीं कहा जा सकता, किन्तु देशवासियों से उन्हें जो असीम श्रद्धा-सम्मान प्राप्त हुआ, वह किसी भी प्रकार कम नहीं था। अब्राहम लिंकन के बारे में कहा जाता है कि वे देखने में अत्यन्त ही कुरूप थे, किन्तु देश और देशवासियों के लिए उनने जो कुछ किया, उन्हें आज भी अमेरिकावासी भुला नहीं पाये हैं और उनका नाम सुनकर ही श्रद्धावनत बन जाते हैं। आखिर उन सब में विशेषता क्या थी? गंभीर चिन्तन के उपरान्त दृढ़तापूर्वक यह कहा जा सकता है कि इन सबके मूल में निश्चय ही उनकी आन्तरिक सुन्दरता विचारणाओं-भावनाओं की उत्कृष्टता निहित थी। इन्हीं ने उन्हें महान बनाया। यही बात सुकरात जैसे दार्शनिक पर भी लागू होती है।
हर व्यक्ति की यह आन्तरिक इच्छा होती है कि उसके दुःख में साथ देने वाला कोई व्यक्ति मिल जाय, मुसीबतों में धैर्य बँधाने वाला कोई सहयोगी मिल जाय। कष्ट-कठिनाइयों में सहभागी बनने वाला कोई मित्र मिल जाय। अनेक अवसरों पर ऐसे लोग मिल भी जाते हैं, जो अपनी परवाह न करते हुए विपत्ति में दूसरों का साथ देते, हर प्रकार से उनकी रक्षा करते हैं। इस स्थिति में वे यह नहीं देखते कि विपत्तिग्रस्त व्यक्ति का रूप-रंग कैसा है? वह सुन्दर है या नहीं, वरन् इस आपत्ति काल में वे अपनी आत्मा में उसकी आत्मा का और उसकी आत्मा में अपनी आत्मा के दर्शन करते हैं। आत्मा शाश्वत, सत्य और सौंदर्य का नाम है। यही उन्हें सहयोग करने के लिए प्रेरित करती है। यहाँ भी स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति की आन्तरिक सुन्दरता ही प्रमुख है। जहाँ दो दिलों का, दो आत्माओं का मिलन होता है, वहाँ शारीरिक सुन्दरता गौण बन जाती है और आत्मिक सुन्दरता प्रमुख।
जब हम स्वार्थपरता, क्रूरता, निष्ठुरता, विमूढ़ता आदि दोषों पर विचार करते हैं, तो हमारे सामने कुरूपता की तस्वीर खिंच जाती है। इसके विपरीत प्रेम, सौहार्द सहयोग-सहकार, सहिष्णुता-सहानुभूति जैसे सद्गुण हमारी आँखों में सौंदर्य का रूप खड़ा कर देते हैं। यही वे साधन हैं, जिनके द्वारा वास्तविक सौंदर्य और आकर्षण की प्राप्ति हो सकती है। इन्हीं के द्वारा दूसरों के हृदय पर छाप छोड़ी और सम्मान प्रतिष्ठ पायी जा सकती है। जो अपने अन्दर इन गुणों का विकास कर लेते हैं, वे देखने में भले ही शरीर से सुन्दर-आकर्षक न हों, दूसरों को प्रभावित-आकर्षित करने में सफल होते व उनकी दृष्टि में सुन्दर साबित होते हैं।
पर यदि कोई अपने शरीर-सौंदर्य पर गर्व करने लगे, स्वयं को अत्यंत सुन्दर व सौभाग्यशाली मानने लगे, तो इसे आत्म-प्रवंचना ही कहा जायेगा। ऐसे लोगों की दशा ग्रीक पुराण में वर्णित युवक नार्किसस की भाँति हो जाती है, जो अपने ही रूप जाल में मोहित होकर सब कुछ भूल गया और बरबाद हो गया। इसे विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए कि दर्पण आँख, कान, नाक चेहरे की आकृति और बनावट तो बता सकता है, पर वास्तविक सौंदर्य तो अन्तरात्मा के आइने में झाँकने से ही विदित होता है। उसी सौंदर्य को बढ़ाये जाने की बात सोची जानी चाहिए। समय-समय पर निरीक्षण-परीक्षण इसी का होना चाहिए, क्योंकि यही मनुष्य का सच्चा सौंदर्य है।