कुर्वन्नेवेहैव कर्माणि

April 1991

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आदि शंकराचार्य ने “ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या” कह कर यह तो प्रतिपादित कर दिया कि यह जगत मिथ्या है और सत्य केवल ब्रह्म है, पर उनने इसकी व्याख्या विवेचना नहीं की कि इस मिथ्या जगत में बने रह कर सत्य ब्रह्म तक कैसे पहुँचा जाय? उस परम लक्ष्य को कैसे प्राप्त किया जाय, जिसके लिये लोग संसार त्यागने और वन उपवनों में रह कर अपने कर्त्तव्य-धर्म से विमुख होकर लक्ष्य-प्राप्ति की बात कहते हैं। क्या संसार में प्रवृत्त रह कर अपने कर्तव्य कर्मों को करते हुए उक्त स्थिति को प्राप्त नहीं किया जा सकता? उत्तर हाँ में दिया जा सकता है।

यहाँ प्रतिपाद्य विषय यह नहीं है कि यह संसार सत्य है या मिथ्या। प्रश्न यह है कि मानवी जीवन के दायित्वों का भलीभाँति निर्वाह करते हुए हम उस स्तर तक अपना विकास कैसे करें, जिससे “पाछे-पाछे हरि फिरत, कहत-कबीर-कबीर” की उक्ति चरितार्थ हो सके। साधना विज्ञान में योग तो अनेकानेक गिनाये गये हैं, यथा-ध्यानयोग, लययोग, हठयोग आदि पर सर्वसाधारण के लिए आज के व्यस्त समय में न तो यह उतने उपयुक्त हैं, न उपयोगी। इसके दो कारण बताये जाते हैं- प्रथम तो यह कि इनमें नितान्त एकान्त की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है, द्वितीय मनुष्य का शरीर आज इतना खोखला और अशक्त हो चुका है कि कठिन तपश्चर्याएँ वह कदाचित ही बर्दाश्त कर सके। ऐसी स्थिति में किसी ऐसे साधन-मार्ग की आवश्यकता अनुभव होती है, जो पद्धति की दृष्टि से सरल-सुगम भी हो और वर्तमान जन-संकुल वातावरण के अनुकूल भी, साथ ही उपलब्धि भी संतोषजनक।

प्रस्तुत कठिनाइयों को देखते हुए विभिन्न योगमार्गों का परीक्षण-पर्यवेक्षण करने पर एक ही मार्ग आज की कसौटी पर खरा उतरता है, वह है-कर्मयोग। वैसे दैनिक जीवन में ध्यान-धारणा और पूजा-उपासना की हलकी-फुलकी अल्पावधि साधनाएँ कर लेने में भी कोई हर्ज नहीं, किन्तु जहाँ सुगमता और रोचकता की बात आती है, वहाँ कर्मयोग को ही प्रमुखता देनी पड़ेगी। इसके द्वारा भी हम उस लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं, जो अन्य मार्गों द्वारा सुनिश्चित बतायी गई है। वंचित प्रायः वही रहते हैं, जो अपने कर्तव्य धर्म को भूल जाते हैं। इसी बात को समझाने के लिए रामकृष्ण परमहंस एक उदाहरण दिया करते थे। वे कहते थे तालाब में बहुतेरी मछलियाँ हुआ करती हैं। मछुआरे के जाल डालने पर उनमें वे फँसी जाती हैं, मगर कुछ प्रयासपूर्वक निकल भी जाती हैं, जबकि कुछ निकलने का सतत् प्रयास करती रहती हैं और कुछ किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में उसी में फँसी रह जाती हैं। मुक्तात्माएँ प्रथम श्रेणी में आती हैं, जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य समझती और करके चली जाती है। दूसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं, जो उच्चस्तरीय स्वार्थ में परमार्थ की भूमिका निभाते हुए संसार-सागर से उबरने का प्रयास जारी रखते हैं, किन्तु जो विश्व के आकर्षणों में पड़ कर अपना उत्तरदायित्व भूल जाते हैं, वे तृतीय श्रेणी के लोग हैं। ऐसे ही लोग प्रवृत्त मार्ग को संदेहास्पद दृष्टि से देखते, मीन-मेख निकालते और किसी शार्टकट की तलाश में चतुर-चालाकों द्वारा मूड़े जाते हैं।

सच्चाई तो यह है कि हम जिस मार्ग द्वारा अन्दर प्रवेश करते हैं, निकलने के लिए भी वह एक मार्ग सुनिश्चित है क्योंकि जो रास्ता भीतर ले जाता है, वह बाहर निकालने का भी सामर्थ्य रखता है। पुरुषार्थ सिर्फ इतना करना पड़ता है कि हम उसकी दिशा बदल दें। द्वार तो वही रहता है, जो हमें अन्दर ले जाता है, पर उसकी दिशा भीतर से बाहर की ओर हो जाती है। हम इस संसार में जन्म लेते हैं, तो इससे उबरने का भी मार्ग इसमें अवश्य होना चाहिए। संसार को माया-मोह कह कर अपने दायित्वों से छुट्टी पाना और स्वर्ग-मुक्ति के नाम पर एकान्त-सेवन करना कस्तूरी मृग की तरह भटकने के समान है। यदि सचमुच बात ऐसी ही रही होती, संसार भवबन्धन रहा होता, तो भगवान ने इस दुनिया में हमें जन्म ही न दिया होता, किन्तु जब जन्म दिया है तो इतना सुनिश्चित है कि उबरने का उसी में कोई मार्ग अवश्य ही होगा। यह मार्ग सरल कर्मयोग ही है।

आज यह निष्फल इसलिए साबित हो रहा है, क्योंकि हम उसके मानदण्डों को अपनाना नहीं चाहते। उसकी कसौटी पर स्वयं को खरा सिद्ध नहीं कर पाते। श्री अरविंद “कर्मयोगी” पुस्तक के कर्मयोग अध्याय में लिखते हैं कि प्राणायाम, आसन, एकाग्रता, पूजा, विधि-विधान, धार्मिक कर्मकाण्ड यह सभी चीजें स्वयं योग नहीं हैं, योग के लिए मात्र साधन हैं। स्पष्ट है, जब ध्यान-धारणा, पूजा-उपासना लक्ष्य प्राप्ति के साधन मात्र हैं, तो वह साधन कर्तव्य कर्म की साधना क्यों नहीं बन सकती है? निश्चय ही वह बन सकती है, पर कठिनाई आड़े वहाँ आ जाती हैं, जहाँ हम अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में ईमानदार बने नहीं रह पाते, जबकि होना यह चाहिए था कि ऐसे कार्यों में भी हम उसी कर्मनिष्ठ और ईमानदारी का परिचय देते, जो अन्य मार्गों के लिए भी अभीष्ट आवश्यक होता है किन्तु अंतस् की उत्कृष्टता के अभाव में ऐसा बन नहीं पड़ता और लक्ष्य प्राप्ति में यह रास्ता विघ्न प्रतीत होने लगता है, जबकि बात ऐसी है नहीं। सच्चाई तो यह है कि अन्य मार्गों में सफलता के लिए साधक को जो आत्मिक स्तर अभीष्ट है, उसी स्तर के त्याग, सेवा, संयम और सहिष्णुता जैसे उपक्रम इस मार्ग में भी अपनाने पड़ते हैं, तभी वह कार्य योग स्तर का बन पड़ता और सही अर्थों में कर्मयोग कहलाता है। इससे कम में सफलता यहाँ भी संदिग्ध ही बनी रहती है।

गीता के कर्मयोग का सारतत्व भी यही है कि यदि हमारा अन्तःकरण पवित्र हुआ, तो जीवन तथा चेतना भी रूपांतरित होंगे, फलतः कर्म के बाह्य स्वरूपों के ज्यों के त्यों बने रहने पर भी उसके सारे आन्तरिक भाव और हेतु परिवर्तित होंगे और परिवर्तित भाव की यही स्थिति तो कर्मयोग की सफलता है, अथवा दूसरे शब्दों में अधिक गंभीर व आध्यात्मिक अर्थ में कहें, तो यह कहना पड़ेगा, कि जो कर्म हमें संसार में करने पड़ते हैं, उसे आध्यात्मिक उन्नति का साधना बना लिया जाय। फिर भगवान का उपकरण बन कर लोकहित के लिए दिव्य कर्म किया जाय। यहाँ दो बातें हैं, जिन्हें समझना अनिवार्य है प्रथम है सत्ता के केन्द्र को ऊर्ध्वगामी बनाने का मार्ग और दूसरी कर्म के बाह्य रूप का महत्व नहीं, उसे बदलना आवश्यक नहीं, यद्यपि उसके हेतु व परिधि परिवर्तित हो जायेंगे। ये दोनों बातें तत्वतः एक ही हैं, क्योंकि एक को समझने से दूसरी समझ में आ जाती है। हमारे कर्म के भाव का उदय हमारी सत्ता के स्वभाव से होता है, किन्तु स्वयं यह स्वभाव भी कर्म से अप्रभावित नहीं रह पाता। कर्म के भाव में परिवर्तन हमारी सत्ता के स्वभाव में आमूल-चूल परिवर्तन लाता है। यह परिवर्तन चेतना के उस केन्द्र को बदल देता है, जिससे हम कर्म करते हैं। यदि जीवन, जगत और कर्म माया मिथ्या होते, जैसा कि कुछ विद्वानों की अवधारणा है, यदि आत्मा का कर्म अथवा जीवन से कोई संबंध नहीं होता, तो ऐसी बात नहीं देखने में आती। वस्तुतः हमारे अंदर जो जीवात्मा है, वह साँसारिक क्रिया-कृत्यों से स्वयं को विकसित करती है। आत्मोन्नति एवं चरम लक्ष्य की प्राप्ति के संदर्भ में व्यवहारिक कर्मयोग की यह सार्थकता है।

यदि इतना हम समझ सकें तो कर्मयोग हमें सारहीन और निरर्थक प्रतीत नहीं होगा। फिर वह भी आत्मोन्नति के लिए उतना ही उपयोगी साधन जान पड़ेगा, जितना अन्य। ईशोपनिषद में कहा भी गया है कि इस संसार में रहकर अपने कर्तव्य-कर्म में प्रवृत्त हों। कर्म बन्धन से मुक्त होने का इसके अतिरिक्त संसारी लोगों के लिए और कोई मार्ग नहीं। इस प्रकार इस उपनिषद् वाक्य से उस संशय का भी निवारण हो जाता है, जिसमें लोग कर्मयोग को शंका शंकित दृष्टि से देखते हैं।


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