मनुष्य का सच्चा सौंदर्य

April 1991

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सौंदर्य की दो श्रेणियाँ होती हैं-एक आन्तरिक, दूसरी बाह्य। नाक-नक्श, रूप-रंग यह सब मिलकर बाह्य सौंदर्य का निर्माण करते हैं, जो अस्थायी होता है और उम्र ढलने के साथ-साथ चला जाता है। दूसरी श्रेणी आन्तरिक सौंदर्य की है। गुण, कर्म, स्वभाव से इसकी रचना होती है। समाज में मान प्रतिष्ठान हर किसी को इसी के कारण मिलता है। यही व्यक्ति की चिरस्थायी सम्पत्ति है। इसी के विकास की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।

पर आज प्रवाह उल्टा बहता दिखाई पड़ रहा है। जिस आन्तरिक सौंदर्य की महती आवश्यकता वर्तमान समय और समाज को है, लोग उसकी उपेक्षा करते देखे जा रहे हैं और एक ऐसे कृत्रिम सौंदर्य की ओर भाग रहे हैं जिससे शरीर की स्वाभाविक सुन्दरता भी मारी जाती है और बनावटीपन का आवरण हर घड़ी ओढ़े रहना पड़ता है।

आज सुन्दरता की परिभाषा ही बदल चुकी है। सुन्दरता का अर्थ लोग रूप लावण्य से लगाते हैं। गोरी त्वचा, आकर्षक नयन-नक्श, सुन्दर घुँघराले लम्बे बाल-बस यहीं तक सिकुड़ी सिमटी है वर्तमान की तथा कथित सुन्दरता। इसे ही मानवी सौंदर्य की कसौटी माना जाता है। जिन्हें प्रकृति की ओर से यह सब कुछ मिल गया, वह अपने को बड़े भाग्यशाली मानते और स्वयं पर गर्व करते हैं, पर जो इतने सौभाग्यशाली साबित नहीं हो सके जिन्हें आकर्षक चेहरा-मोहरा नहीं मिल सका, वे फिर कृत्रिम सौंदर्य का सहारा लेते और तरह-तरह के प्रसाधन सामग्रियों का प्रयोग कर खूबसूरती बढ़ाने की कोशिश करते हैं। तो क्या सचमुच रसायनों या शल्य क्रिया के माध्यम से सुन्दरता बढ़ायी जा सकती है? उत्तर नहीं में दिया जा सकता है।

संसार जिस सौंदर्य पर टिका हुआ है, वह मनुष्य का बाह्य नहीं, आन्तरिक सौंदर्य है और यही उसकी वास्तविक सुन्दरता है। रुपये-पैसे से खरीदी गई सुन्दरता वास्तविक कभी नहीं हो सकती, वह बनावटी ही होगी और बनावटीपन में वह सामर्थ्य नहीं, कि दूसरों में प्रेम-सद्भाव उत्पन्न कर सके, प्यार-दुलार दे सके, सहयोग सहकार कर सके। यह सब कुछ आन्तरिक सौंदर्य से ही संभव है, आन्तरिक खूबसूरती तथा बाह्य शारीरिक खूबसूरती का परस्पर कोई संबंध नहीं। कई अवसरों पर देखा जाता है कि हम जिन्हें हृदय से आदर और सम्मान करते हैं, वे शारीरिक दृष्टि से सामान्य स्तर के हैं। सुन्दरता के नाम पर न उनमें कोई आकर्षण है न रूप-लावण्य, किन्तु फिर भी हमारे दिल में उनके प्रति अपार श्रद्धा और सम्मान होता है। ऐसा क्यों? यदि शारीरिक आकर्षण ही सब कुछ रहा होता, उसे ही मनुष्य का वास्तविक सौंदर्य माना जाता, तो यह स्थिति उत्पन्न न होती। फिर कुरूप अथवा सामान्य रूप वाले व्यक्ति हमें कदापि आकर्षित नहीं कर पाते, पर वस्तु स्थिति इससे भिन्न पायी जाती है।


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