उत्थान और पतन स्वयं साध्य

April 1991

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अपने आप को उठाना या गिराना मनुष्य के अपने हाथ की बात है। साहस, उत्साह, पराक्रम और विश्वास के आधार पर मनुष्य ऊँचा उठता है। यह उसका उत्कर्ष जन्य प्रयास है। इसके विपरीत यदि कोई हीनता की भावनाओं से ग्रसित हो। भय, निराशा, उद्विग्नता, अविश्वास, आशंका से घिरा रहे तो उसका भौतिक एवं आत्मिक पतन होता चलता है। साधन और अवसर सामने होने पर भी उसे अधोगामी मार्ग ही पकड़ना पड़ता है।

आन्तरिक उल्लास का, शान्ति का अक्षत स्त्रोत मनुष्य के अपने अन्तस्तल में सदा विद्यमान होने पर भी प्रायः देखा जाता है कि लोग अपनी चिन्तन चेतना को गड़बड़ाते और अनेकानेक मानसिक बीमारियों के शिकार बनते हैं। इसका दुष्प्रभाव न केवल मनुष्य की कार्यक्षमता पर पड़ता है वरन् वह शारीरिक अक्षमता-रुग्णता को भी जन्म देता है। सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी डॉ. डेविड बर्न्स के अनुसार मानसिक अवसाद के कारण प्रतिवर्ष लाखों व्यक्तियों को तद्जन्य बीमारियों का शिकार होते देखा गया है। उसके शमन के लिए लोग ट्रैक्युलाइजर जैसी नशीली दवाइयों का सेवन करते ओर अपनी शारीरिक मानसिक क्षमता गँवाते रहते हैं। अपनी पुस्तक “फीलिंग गुड” में उन्होंने मानसिक अवसाद का प्रमुख कारण भ्राँतिपूर्ण चिन्तन को माना है। उनका कहना है कि व्यक्ति अपने दोषपूर्ण चिन्तन और विकृत मनःस्थिति के कारण इसे स्वयं उत्पन्न करता है क्योंकि अंतर्मन की आत्म घृणा और अशुभ चिन्तन से ही इसका स्वरूप बनता है। इससे न केवल जीवनी शक्ति का क्षरण होता है वरन् प्रतिभा एवं सृजनात्मक गुणों के विकास का मार्ग भी अवरुद्ध हो जाता है व्यक्तित्व हेय बन कर रह जाता है। “हाऊ टू बी हैपी, टू बि ह्यूमन” नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में मनोविज्ञानी अल्फवेरान ने कहा है कि अवसाद मात्र एक धुएँ का पर्दा है और कुछ नहीं। इस अभिवृत्ति से ग्रस्त व्यक्ति स्वकेंद्रित हो जाता है। ऐसे व्यक्ति न तो कोई महत्वपूर्ण काम कर पाते हैं और न ही जटिल समस्याओं का सामना कर पाते हैं। ईमानदारी और जिम्मेदारी भी उनसे नहीं निभ पाती क्योंकि वे स्वयं के बारे में सोचते हैं कि वह एक निरर्थक व्यक्ति है। इसे अधिक स्पष्ट करते हुए वियना के मूर्धन्य मनःचिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. विक्टर ई. फेंक्ले ने लिखा है जो मनुष्य यह अनुभव करेगा कि उसका जीवन निरर्थक है, उसका मन और शरीर कभी स्वस्थ न हरेगा। सार्थकता की अनुभूति न होने पर मनुष्य जिन्दगी को लाश की तरह ढोता है और उस नीरस निरानन्द स्थिति में सचमुच ही जीवन बहुत भारी पड़ता है। उस दबाव से इतनी थकान आती है कि कुछ करते धरते नहीं बनता। हारा-थका आदमी धीरे-धीरे गिरता घुलता जाता है और मरण के निकट बुलाने वाली बीमारियों को निमन्त्रण देकर स्वेच्छा संकल्प के आधार पर कष्ट ग्रसित रहने लगता है।

“अवसाद से उन्मुक्त व्यक्तित्व की” ओर जैसा मार्ग निर्देशन करने वाले प्रख्यात मनोविज्ञानी एडलर ने उदासीनता को मानवी मन की एक बड़ी दुर्बलता माना है। प्रगति पथ का यह एक बहुत बड़ा रोड़ा है जिसे मनुष्य स्वयं अपने चिंतन-मनन से उत्पन्न करता है, इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा है कि ऐसे व्यक्ति उन कारणों का पता लगाकर प्रयास करने पर स्वयमेव इस स्थिति से छुटकारा पा सकते हैं। विचारों को विचारों से काटा जाता है। उदासीनता के स्थान पर शान्ति और समस्वरता उत्पन्न करने वाले सृजनात्मक विचारों को आमंत्रित करना चाहिए तथा ऐसी रीति-नीति अपनाना चाहिए जो ध्यान बँटा सके, उत्साह बढ़ा सके। जीवन लक्ष्य सामने होने एवं सतत उसके उज्ज्वल पक्ष की ओर दृष्टिपात करते रहने से क्रियाएँ भी तद्नुरूप चल पड़ती हैं। सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य को समाज के अधिक समीप होना चाहिए अर्थात् उसे सामाजिक उत्तरदायित्वों, जिम्मेदारियों को अधिक सजगतापूर्वक वहन करना चाहिए। इससे जहाँ विचारों को उत्कृष्टता का पक्षधर बनाने का अवसर मिलता है वहीं व्यस्तता के कारण नकारात्मक चिन्तन से भी छुटकारा मिलता है वहीं व्यस्तता के कारण नकारात्मक चिंतन से भी छुटकारा मिलता है। एडलर के अनुसार विधेयात्मक चिन्तन से मानव मन की समस्त दुर्बलताएँ क्रमशः दूर होती जाती हैं और वह नूतन ज्ञान से जुड़ जाता है। इसी तरह के विचार मनोविज्ञानी जुँग ने भी प्रकट किये हैं। उनका कहना है कि हीन भावना के शोधन और परिष्कार के लिए विवेकशीलता को जाग्रत करना अनिवार्य है। सकारात्मक विचार एवं दृढ़ संकल्प शक्ति ही इन परिस्थितियों से मनुष्य को उबारते हैं।

इस संदर्भ में मनोविज्ञानी वेरन वुल्फ का कहना है कि जीवन की असम्बद्ध रीति-नीति, एकाँगी जीवन और स्वार्थपरता ही मानसिक अवसाद के प्रमुख कारण हैं। हीन भावना का शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलता से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इससे छुटकारा पाने के लिए आवश्यक है कि जीवन की रीति-नीति बदली जाय। अपना स्वाभिमान बनाये रखते हुए दूसरों के गुणों की प्रशंसा की जाय। निःस्वार्थ भाव से सामाजिक उत्थान के लिए किये गये कार्यों से जीवन में श्रेष्ठता के तत्वों का समावेश होता है। यूनिवर्सिटी आफ पेन्सिलवेनिया के प्रसिद्ध चिकित्साशास्त्री डॉ. ऐरोन बैक ने अवसादग्रस्त रोगियों के उपचार हेतु एक मनश्चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया है। जिसका नाम है काग्नीटिव थेरेपी। उनकी यह चिकित्सा प्रणाली पूर्णतः मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है। विभिन्न परीक्षणों के आधार पर उनने निष्कर्ष निकला है कि भौतिक मृग मरीचिका के चंगुल में फँसा हुआ व्यक्ति अपनी मनोदशा को असंतुलित कर बैठता है, जिसके कारण उसे उदासी अथवा अवसाद का शिकार बनना पड़ता है। उपचार के समय उन्होंने पाया है कि ऐसे व्यक्ति एक ओर तो किसी की भर्त्सना करते बड़बड़ाते रहते हैं तो दूसरी तरफ वह स्वयं की समीक्षा भी करते जाते हैं। रोगियों द्वारा किये गये समीक्षात्मक विचारों का गहन विश्लेषण करने के पश्चात वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि निषेधात्मक विचारधाराओं की बहुलता के कारण ही यह मनोविकार उत्पन्न होता है और इससे आत्मचिन्तन की मौलिकता नष्ट होती चली जाती है। काग्नीटिव थैरेपी एण्ड दि इमोशनल डिसऑर्डर नामक अपनी पुस्तक में डॉ. बैक ने बताया है कि चिन्तन की विकृति के कारण ही मानसिक अवसाद उत्पन्न होता है। उनके अनुसार मनोवृत्तियाँ विचार जगत को प्रभावित करती हैं। उस पर संव्याप्त निषेधात्मक चिन्तन मनुष्य के पतन-पराभव का कारण बरता है। विचार परिवर्तन के द्वारा ही उस पर विजय पाई जाती है। चिकित्सकों ने संयुक्त प्रयासों के आधार पर कुछ और तथ्यों पर प्रकाश डाला है। उसके अनुसार व्यक्ति की मनोदशा विचारों का नियन्त्रण नहीं कर सकती वरन् विचारों द्वारा मनोदशा का निर्धारण होता है।

वस्तुतः मानवी मस्तिष्क एक यंत्र की तरह कार्य करता है। उसमें उत्पन्न हुई कोई भी योजना कार्य रूप में परिणत होना चाहती है। यह विवेक बुद्धि का काम है कि वह किन विचारों को रोकती है और किन्हें कार्य रूप में परिणत होने का दिशा निर्देश देती है। अतः आरंभ से ही इस सम्बन्ध में सतर्कता बरतनी चाहिए कि मस्तिष्क में उत्कृष्ट विचारों का ही उद्भव हो। निषेधात्मक चिन्तन से सदैव बचे रहना ही श्रेयष्कर है।

जिन विचारों के कारण आशंका, निराशा, भीति या उदासीनता उत्पन्न हुई हो, ठीक उसके प्रतिकूल विचारों को उत्पन्न करना चाहिए। सोचना चाहिए कि विपत्ति टल गई या टलने जा रही है। बादल साफ होने पर जिस प्रकार आकाश स्वच्छ होता है, समझना चाहिए कि उसी प्रकार अपने को दबोची हुई हीनता, विपन्नता का वातावरण बदल जायगा। सृजनात्मक सुखद, उज्ज्वल भविष्य के, अनुकूलता से भरे मानस चित्र बनाना एक ऐसी कला है जिसका अभ्यास होने पर वास्तविक कठिनाईयों के बीच भी मनुष्य अपना शौर्य-साहस बनाये रह सकता है। वह उपाय ढूँढ़ सकता है जो ऐसी दशा में प्रगति दिशा में बढ़ने में सहायक सिद्ध, हो सके।

अपना अस्तित्व और भविष्य ईश्वर के हाथों सुरक्षित मानने की भावना ऐसी है जिसे अपनाये रहने और बढ़ते चलने में हर कोई निश्चिन्तता प्राप्त कर सकता है। उल्लासित रहने की कला ऐसी है जो बहुमूल्य औषधियों की तुलना में अधिक सन्तोषप्रद परिणाम प्रस्तुत कर सकती है। अवसादग्रस्त व्यक्तियों के मित्रों सम्बन्धियों का भी कर्तव्य है कि वे ऐसे लोगों में जीवन के प्रति सरसता उत्पन्न करें। ऐसे लोगों का सच्चा मित्र एवं सहायक वही हो सकता जो उत्साह भरे, आशा दिखाये और साहस जगा कर हँसते-हँसाते जीने की मनःस्थिति उत्पन्न करें।


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