दरिद्र कौन?

April 1991

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उस दरिद्र ने बुलवाया है मुझे। कहने के साथ ठठाकर हँस पड़ा। पास खड़े तीनों सैनिक उसे आँखें फाड़े देखे जा रहे थे, पता नहीं क्या था ऐसा उसमें। झेलम के रमणीक तट पर अपनी मस्ती में लेटा था वह। दाहिने हाथ को तकिए की तरह लगा रखा था। बायाँ पैर दायें पैर पर रखा था। रेत पर रखे उसके दाहिने पाँव को झेलम की तटवर्ती जल उर्मियाँ बड़े आग्रह के साथ धो रही थीं। अपूर्व आनन्द की आभा छायी थी उसके चेहरे पर। चेहरा ही क्यों ताम्र गौर रंग का उसका सम्पूर्ण शरीर यही आभा विकीर्णित कर रहा था। न जाने किस स्वर्गीय राज्य का मालिक है यह लंगोटी धारी बूढ़ा जो विश्व विजय का अभियान छेड़ने वाले सिकन्दर को दरिद्र कहता है, जबकि वह अपने नाम के आगे महान लगाना पसन्द करता है।

सैनिक सोच नहीं पा रहे थे, क्या करें वे ? तीनों कभी एक दूसरे की ओर देख लेते, कभी नदी की असीम जल राशि की, और उसके किनारे खड़े वृक्ष-वनस्पतियों की ओर। अजीब विवशता थी, जिसने उन्हें देखकर “आइए” नहीं कहा। यह भी नहीं पूछा “कहाँ से पधारे”, पूछना-ताछना तो दूर रीढ़ सीधी करके बैठा तक नहीं अजी, उसने तो आँख उठाकर देखने तक का कष्ट नहीं उठाया। अपनी मस्ती में पड़ा रहा-जैसे उसके पास सैनिक वर्दी में तीन मनुष्य नहीं तीन तितलियाँ या वृक्षों की टहनियाँ आ गयी हों। तीन कुत्ते के पिल्ले भी आते तो शायद वह विश्व विजेता सिकंदर के सैनिकों से अधिक महत्व देता।

यूनान से प्रस्थान करते समय सिकन्दर ने अपने गुरु अरस्तू का अभिवादन करते हुए पूछा था क्या लाऊँ आपको विजय उपहार के रूप में। ला सकोगे? उस दार्शनिक को जैसे अपनी माँग पूरी किए जाने का विश्वास नहीं हो रहा था। सिकन्दर ने देखा चमचमाती पोशाक पहने खड़े अपने सेनानायकों की ओर, पर्वतीय नदी की जैसी उफनती अपनी सेना की ओर और निहारा स्वयं की ओर जिस पर सबसे अधिक गर्वित था। क्यों नहीं? दर्प भरे हुँकार के साथ शब्द निकले। दार्शनिक गुरु हँसा उपनिषद् गीता की पोथियों के साथ एक ऐसे साधु को ले आना जिसने इनके तत्व को जीवन में आत्मसात कर लिया हो।

पोथियाँ तो जैसे-तैसे मिल गई पर साधु वह भी ऐसा-वैसा वेषधारी नहीं जैसा उसके शिक्षक ने माँगा था। इस समय उसे लौट जाने की जल्दी थी। लम्बी चोटी धारी घुटनों तक धोती लपेटने वाले ब्राह्मण चाणक्य की कूटनीतिक करामातें उसे यहाँ दो पल भी टिकने नहीं दे रही थी। दो पल टिकने का मतलब? नहीं टिक ही नहीं सकता वह। मतलब तो तब निकले जब पाँव जमने की राई-रत्ती गुँजाइश बाकी हो। डडडडडडमकदुनिया से लेकर यहाँ तक विद्रोह ही विद्रोह। सेनानायक से सिपाही तक सबके सब विद्रोही-जिन पर उसे गर्व था सबके सब वहीं? अब.....।

हूँ हं, सैनिकों को खाली हाथ वापस आए लौटे देखकर वह फुफकारा। विशाल तम्बू के बीचों बीच राजसिंहासन था। जिसके दाएँ भाग में विशिष्ट सामंत बैठे थे। बायीं ओर प्रधान सेनानायक और वरिष्ठ सैनिक अधिकारी। आवश्यक वार्तालाप चल रहा था। विचार विमर्श मंत्रणा जैसा ही गंभीर था वातावरण। बात-चीत का क्रम बीच में रोककर इन वापस आए सैनिकों की बातें ध्यानपूर्वक सुनता रहा। जो अपनी आप बीती बता रहे थे।

कथन को सुनकर भृकुटियों में आकुंचन गहराया। माथे पर बन मिट रही लकीरों की संख्या बढ़ी। सिंहासन की दायीं बाजू पर मुक्का मारते हुए गुर्राया। एक वह शैतान का दादा जो अपने को ब्राह्मण कहता है? क्या नाम है उसका? चाणक्य। सेनानायक रेमन धीरे से बोला।

चाणक्य! साढ़े तीन अक्षरों का यह नाम लेते हुए उसका पूरा मुख कड़वाहट से भर गया। शायद अत्यधिक नाराजगी थी उस पर और एक यह अपने को शहंशाह समझने वाला फकीर। क्या नाम है इसका?

दण्डायन। भारत के गौरव को कलंकित करने वाले आम्भी बोल पड़े। ये ब्राह्मण और साधु कुछ सोचते हुए उसने एक सेनानायक से धीरे से कुछ कहा। शब्द स्पष्ट नहीं हो सके। शायद कहीं संदेशा भेजना था। अपना लोहे का भारी टोप सम्भालते हुए वह उठ खड़ा हुआ। समुदाय व्यक्ति में विलीन होने लगा।

एक शाम को झेलम का तट खचाखच भर गया। व्यक्ति समुदाय में बदल गए। पूरे लाव लश्कर के साथ आया था यूनान का सरताज अपने गुरु की भेंट को बटोरने। साधु की मस्ती पूर्ववत थी। उस सुबह और शाम में अन्तर इतना पड़ा था कि इस समय वह नदी की रेत की जगह पेड़ के नीचे लेटा था। पत्तों से झर रही सूरज की किरणें उसके सुनहले शरीर को और ज्यादा स्वर्णिम बना रही थीं।

जानता है न चलने का परिणाम तुझे नष्ट होना पड़ेगा मूर्ख। लगभग चिल्लाते हुए उसने ये शब्द कहे। खीझ की कालिमा उसके चेहरे पर पुती थी। शब्दों के खोखलेपन को वह खुद-जानता है। उसे मालूम था कि यदि इसको मार भी दिया तो पता नहीं दूसरा मिले या नहीं। बड़ी मुश्किल से यही मिला, अब चलने के समय....। एक उन्मुक्त हँसी ने उसकी सोच के हजार टुकड़े कर डाले। हँसता हुआ साधु कह रहा था मूर्ख कौन है यह अपने से पूछ और नष्ट दरिद्र होता है शहंशाह नहीं। नष्ट वह होता जो कामनाओं महत्वकाँक्षाओं के चिथड़े-लपेटे दर-बदर ठोकरें खाता है। जिसके इन चिथड़ों से क्रोध की दुर्गन्ध आती है। वासनाओं की रग कट जाने पर विक्षिप्त है। विक्षिप्त माने बेअक्ल-जिसकी अक्ल मारी गयी समझो वह नष्ट हुआ। सोच। किसे नष्ट होना है? साधु की निर्भीक वाणी उसे अपनी ही किन्हीं गहराइयों में कँपाने लगी। वह सिहर उठा।

इधर साधु कहे जा रहा था शहंशाह वह जिसने जीवन सम्पदा को पहचाना। जिसने जीवन की तिलिस्मी तिजोरी में रखे-प्रेम संवेदना, त्याग जैसे असंख्यों रत्न बटोरे। वह जो आँतरिक वैभव की दृष्टि से अनेकानेक विभूतियों से सजा उसके समक्ष मस्ती से लेटा हुआ था।

निर्वाक खड़ा सिकन्दर सुन रहा था। सामंजस्य बिठा रहा था इस वाणी और उस वाणी में जो उसने अपने गुरु से सुनी थी। जब बचपन में उसका शिक्षा गुरु भारत के किस्से सुनाता। इस देश का गौरव बखानता। तब वह कहा करता था जरा बड़ा होने दो लूट लाऊँगा भारत का वैभव - गौरव सब कुछ वहाँ का बेशकीमती है। अरस्तू हँस पड़ता यह सब सुनकर तुम नहीं लूट सकते सिकन्दर। उसे पाया जाता है लूटा नहीं जा सकता। सैनिक मन की बात की गहराई नहीं पकड़ सका। चलते-चलते उस तत्वेत्ता ने फिर से एक बार कहा था भारत का गौरव वहाँ के प्रशासन, पदाधिकारियों में नहीं बसता। वह धनिकों, सेठों, की तिजोरियों में भी कैद नहीं। वहाँ के गौरव है ब्राह्मण और साधु। विचार निर्माता व्यक्ति निर्माता। आस्थाओं को बनाने वाले समाज को गढ़ने वाले। इनके रहते भारत का गौरव अक्षुण्ण है। इनके जीवित रहते उस पुण्यभूमि का गौरव सूर्य अस्त नहीं हो सकता। समय के तूफानों में वह थोड़े समय के लिए छिप भले जाय पर फिर से प्रकाशित हो उठेगा।


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