परिवर्तन को, नये सृजन को, हो जाओ तैयार।
दिव्य चेतना का निश्चय है, सृजे नया संसार ॥1॥
बहुत हो चुका विकृत अब तो, मनुज-सृष्टि का रूप।
गहरे ही होते जाते हैं, पाप - पतन के कूप ॥
कहीं न हो जाये, मानव की संस्कृति का ही लोप।
दिखते तो ऐसे ही हैं अब, क्षुब्ध - प्रकृति के कोप॥
इसीलिए तो सृष्टि -सृजेता, करता गहन विचार।
परिवर्तन को, नये सृजन को, हो जाओ तैयार ॥2॥
जीर्ण-शीर्ण के रहते, कैसे होगा नव-निर्माण।
दिव्य-सृजन की कैसे होंगी गतिविधियाँ क्रियमाण॥
प्रकृति और मानव-स्वभाव में, दोनों में बहलाव।
ला सकता है, महाकाल का ही निर्द्वंद्व प्रभाव॥
महाकाल के कालचक्र का, होना है विस्तार।
परिवर्तन को, नये सृजन को, हो जाओ तैयार॥3॥
महाकाल की प्रबल चाल को, रोक सका है कौन।
महाकाल हुँकार भरे तो, हो जाते सब मौन॥
इतना ही क्यों, सबको करना होता उसका काम।
जिससे चाहे करवा लेता, रहता खुद गुमनाम॥
जड़ चेतन सब ही बन जाते, उसका ही हथियार।
परिवर्तन को, नये सृजन को, हो जाओ तैयार ॥4॥
पीड़ित मानवता पीड़ा से, है वह तो बेचैन।
इसीलिए नव सृष्टि - सृजन में, जुटा हुआ दिन-रैन॥
जिस को हो मानव पीड़ा का, अरे! तनिक भी दर्द।
हो जायेगा, महाकाल के हाथों स्वयं सुपुर्द॥
महाकाल को अर्पित होगा, श्रेय भरा सहकार।
परिवर्तन को, नये-सृजन को, हो जाओ तैयार ॥5॥
विध्वंसों से क्यों घबरायें , महाकाल के साथ।
महासृजेता के हाथों में, लगे सृजन के हाथ॥
काल रात्रि बस जाने को है, आता ब्रह्म मुहूर्त।
स्वर्ग-सृजन का स्वप्न, न रह पायेगा अरे! अमूर्त ॥
सभी दिशाओं में होना है, सतयुग का विस्तार।
परिवर्तन को, नये सृजन को, हो जाओ तैयार ॥6॥
महाकाल ने उन्हें पुकारा, प्राणवान जो व्यक्ति।
व्यक्त हो सके जिन माध्यम से, महाकाल की शक्ति ॥
महाकाल के अनुदानों को, चलो! चुकाएँ आज।
ज्ञान-मशाल, तमस हरने को चलो! उठाएँ आज ॥
झाँक रहे उज्ज्वल-भविष्य का, बन जाएँ आधार।
परिवर्तन को, नये-सृजन को, हो जाओ तैयार ॥7॥
-मंगल विजय