नदी के किनारे बड़े-बड़े पेड़ थे। पास ही बेंत की कितनी ही बेलें भी उगी हुई थी।
बाढ़ और अन्धड़ एक साथ आये। उनके दबाव से बड़े-बड़े पेड़ तो उखड़ कर गिर गये पर बेंत की बेलें ज्यों की त्यों बनी रही।
एक राहगीर ने बेलों से पूछा मजबूत पेड़ क्यों टूटें और तुम लोग ज्यों की त्यों कैसे खड़ी रहीं।
बेंत की बेलों ने कहाँ हम नम्र है। सब के सामने झुक जाती है। अन्धड़ के सामने भी झुक गई। पर यह बड़े-बड़े अपने बड़प्पन की शान में अकड़े ही खड़े रहे। दबाव ने इन्हें मरोड़कर रख दिया।
सब उन्हें चावपूर्वक सुनते-पढ़ते भी हैं, पर जब परिणाम की ओर दृष्टिपात किया जाता है, तो नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला सामने आता है। जब इस बात का हिसाब लगाया जाता है कि उनसे कितनों के जीवन में प्रभाव-परिवर्तन आया, तो दुराशा ही हाथ लगती है। इसके कारणों पर जब ध्यान देते हैं, तो पता चलता है कि जो कुछ भी लिखा या कहा गया, वह लोक रुचि के अनुरूप था। इससे लेखक और वक्ता को सस्ती वाहवाही तो मिल जाती है, पर उनसे जो प्रयोजन साधना चाहिए, उसकी पूर्ति दिशाहीनता की स्थिति में नहीं बन पड़ती है, जबकि होना यह चाहिए था कि समय की माँग के अनुरूप लिखा या वक्तृत्व कला को नियोजित किया जाय। यही महाकाल की पुकार है-न सिर्फ वक्ताओं, लेखकों से, वरन् उन विधाओं के निष्णातों से भी जो अपनी प्रखर प्रतिभा द्वारा समय और समाज के प्रवाह को मोड़ने-मरोड़ने में समर्थ हैं।
अपनों से अपनी बात-