जीवन मुक्ति का रसास्वादन

April 1991

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शरीर का संचालन मन करता है और मन को दिशा अन्तरात्मा से मिलती है। इसी को तत्वदर्शियों ने अहम, स्वत्व, स्व आदि नामों से सम्बोधित किया है। अँग्रेजी में इसी को ईगो कहते हैं। व्यक्तित्व का बीज स्वरूप यही है। ईगो को सुपर इगो तक, स्व को विराट स्तर तक विकसित एवं परिष्कृत करने वाले महामानव-देवमानव बनते और अपनी सघन आत्मीयता एवं सहृदयता का पग-पग पर परिचय देते हैं। विकसित एवं परिष्कृत आत्मचेतना ही ब्रह्म है, अध्यात्मदर्शन में पग-पग पर इसी की व्याख्या-विवेचना की गई है।

अपने व्यक्तित्व को सीमित रखने का नाम स्वार्थ है और विकसित करने का नाम परमार्थ है। सीमित स्व दुर्बल होता है, पर जैसे-जैसे उस का दायरा विस्तृत होता जाता है, आन्तरिक बलिष्ठता बढ़ती जाती है। प्राणशक्ति का विस्तार सुख, दुख की अपनी छोटी परिधि में केन्द्रित कर लेने से रुक जाता है, पर यदि उसे असीम बनाया जाय और स्वार्थ को परमार्थ में परिणत कर लिया जाय, तो इसका प्रभाव यश, सम्मान, सहयोग आदि के रूप में बाहर से तो मिलता ही है, भीतर की स्थिति भी द्रुतगति से परिष्कृत होती है और व्यक्तित्व प्रखर होता चला जाता है।

तत्वदर्शियों के अनुसार अधिसंख्य व्यक्ति अपनी छोटी-सी परिधि को ही समूचा संसार और उसमें चलती रहने वाली ऊहापोह को सबसे बड़ी समस्या मान लेते हैं। उतने ही सीमित दायरे में वे अपने स्वार्थ और सुख को सीमित किये रहते हैं। इस छोटे दृष्टिकोण में बँधा व्यक्ति छोटी सी समझ के अंतर्गत ही अपने को समेटे रहता है और जो कुछ करते बन पड़ता है, वह उतने ही छोटे क्षेत्र में सम्पन्न होता रहता है, किन्तु जब दृष्टिकोण का विकास एवं अपने आपे का विस्तार होता है, तो विशाल विश्व ब्रह्मांड की सुविस्तृत परिधि दीख पड़ती है। सम्पूर्ण संसार अपना घर जैसा दीखने लगता है। तब उसका हित-अनहित भी उतना ही विस्तृत हो जाता है और सोचने तथा करने के लिए उतना ही बड़ा दायरा अपने दायित्वों के अंतर्गत आ जाता है। यही स्वत्व-विकास या आत्मविकास है। क्षुद्रता की परिधि लाँघ कर विशाल एवं विराट की परिधि में इसी प्रकार प्रवेश किया जाता है। ऐसे व्यक्तित्व तब स्वयं को वैभव, वासना, तृष्णा की पूर्ति तक सीमाबद्ध नहीं रखते, वरन् समस्त विश्व का सुख-दुख उनका अपना बन जाता है। उस सुविस्तृत परिधि में ही उनका ‘स्व’ फैल जाता है और अपना-पराया एक होकर समग्र अद्वैत की स्थापना होती है। इस स्थिति में पहुँचा व्यक्ति ‘स्व’ और ‘पर’ को एकीकृत हुआ अद्वैत समझता और उसी विराट को अपना कार्य क्षेत्र बनाता है।

महान दार्शनिक प्लेटो के अनुसार जब हमारा परिकृष्ट स्व से साक्षात्कार होता है, तब हमें अपने सही स्वरूप का अपने बहु आयामी विस्तार का भान होता है। इसी उच्च स्थिति में पहुँचने पर आत्मा का परमात्मा तत्व में विलय या साक्षात्कार होता है। परिणाम स्वरूप व्यक्ति को फिर किसी के आश्रय अवलम्बन की आवश्यकता नहीं पड़ती, वह स्वयं समर्थ हो जाता है। यही प्रत्येक मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य भी है।

प्रख्यात मनोवेत्ता कार्ल गुस्ताव जुँग आत्मीयता की परिष्कृत अहं की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि न जाने क्यों यह तथ्य बुद्धिमानों के गले नहीं उतरता कि वे मस्तिष्कीय चमत्कारों की तुलना में कहीं अधिक विभूतियाँ अपनी अंतःचेतना को विकसित करते हुए हस्तगत कर सकते हैं। ‘स्व’ को यदि उच्च स्तरीय बनाया जा सके तो फिर ‘पर’ के प्रति न कोई शिकायत रहेगी, न कोई उपेक्षा-अवमानना ही बन पड़ेगी।

जब देशकाल की परिधि से बाहर निकल कर ‘सर्व खल्विद ब्रह्म’ की महान दृष्टि प्राप्त हो जाती है, तो ‘स्व’ की छोटी परिधि समाप्त होकर विशाल और विराट अपना आपा हो जाता है। इसी को ब्रह्मनिष्ठ या ईश्वर प्राप्ति कहते हैं। इस विस्तार को प्राप्त करने वाले को उस सबकी उपलब्धि या अनुभूति हो जाती है, जो कुछ इस समाज में फैला हुआ है। उसका चिन्तन और कर्त्तृत्व भी उतना ही विस्तृत हो जाता है। पूर्णता का-जीवनमुक्ति का रसास्वादन ऐसी ही स्थिति में होता है।

तत्वज्ञ शैलिन्ग ने अपनी कृति में कहा है कि मनुष्य के अन्तराल में चेतना की, भावसंवेदना की उच्च स्तरीय परतें विद्यमान हैं। किसी भाँति यदि उन्हें जाग्रत एवं विकसित किया जा सके, तो महानता की, जीवन के परम लक्ष्य की उपलब्धि सुगमतापूर्वक की जा सकती है। उनके अनुसार इस जगत में दो प्रकार के व्यक्तित्व देखे जाते हैं। एक तो वह हैं, जो अपने निजी स्वार्थ के लिए जीते और उसी छोटे दायरे में सीमाबद्ध रहते हुए जीवन की इतिश्री कर लेते हैं। दूसरे वे हैं, जो अपने एवं अपने परिवार के अतिरिक्त पड़ोसियों के लिए, देश एवं समाज के लिए स्नेह सौजन्यता जगाने-जताने के लिए अपने स्वार्थ का त्याग करते हैं और बदले में आत्म संतोष तथा लोक सम्मान अर्जित करते हैं। ऐसे ही व्यक्तित्वों का विकास ‘सुपर ईगो’ स्तर का माना जा सकता है।

मूर्धन्य मनीषी डॉ. मोटोयामा के अनुसार जब तक कोई भी व्यक्ति अपनी ही तरह दूसरों के दुख दर्द की अनुभूति नहीं करता, उसका स्व सीमित बना रहता है और जब तक स्व का विकास-परिष्कार नहीं होता, तब तक सन्तोष और स्थायी सुख मात्र कल्पना-जल्पना भर बन कर रह जाते हैं। वे कहते हैं कि जैसे-जैसे व्यक्ति की आत्मीयता का अपने आप का विस्तार होता जाता है, उसका हृदय विशाल होता जाता है। दूसरों के दुःख को वह अपना मान लेता है और अपने सुख को दूसरों के लिए लुटा देता है। बुद्ध, ईसा, गाँधी आदि महामानवों ने इसी गुण को अपने में विकसित कर के उसे सर्वोच्च कक्षा तक पहुँचाया और तभी अतीव आनन्द की अनुभूति की थी। अपने आपे के इस विकास को उनने अति चेतना का विस्तार कहा है। क्षुद्र अहं के सीमित दायरे में जकड़ कर व्यक्ति जहाँ निजी जीवन जीने वाले सामान्य व्यक्तियों की भाँति छोटे से परिकर तक ही सीमित रह जाते हैं, वहीं दूसरी कोटि के साधकों को अपना पराया नहीं दीखता। विराट् चेतना से एकात्मकता स्थापित कर लेने के कारण उनकी चेतना विलक्षण रूप से जाग्रत हो उठती है।

जापान में बहुप्रचलित ‘जेन’ साधना की यौगिक क्रिया “जो साकू” में त्याग के माध्यम से ‘स्व’ का विकास कराया जाता है। इसी प्रकार से विश्व के विभिन्न धर्मों में आत्मत्याग की तपश्चर्यायें निर्धारित हैं। मानव जीवन में उच्च समस्वरता लाने के लिए जेन पद्धति में सेल्फ निगेशन की तपश्चर्या को अनिवार्य माना गया है। डॉ. मोटोयामा ने अपनी कृति “हिप्नोटिज्म एण्ड रिलीजियस सुपर कान्शसनेस” में इसका सविस्तार वर्णन करते हुए बताया है कि इस साधना उपक्रम द्वारा उल्लेखनीय आत्मविकास किया जा सकता है। अन्तः प्रेरणा के माध्यम से सूझबूझ को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया जा सकता है। इसके अभ्यासियों का वैज्ञानिक परीक्षण जे. बी. राइन द्वारा आविष्कृत अतीन्द्रिय क्षमता टेस्ट द्वारा करने पर पाया गया कि अपने आपे का विस्तार करने वाले अन्यों के दुःख दर्दों को बिना किसी के बताये ही जान जाते हैं। उनके कष्ट-कठिनाईयों को अपने शुभ संकल्पों के माध्यम से दूर करने में भी उनने महत्वपूर्ण सफलता पाई। ऐसे व्यक्ति की अतीन्द्रिय क्षमताएँ भी बढ़ी चढ़ी देखी गई। मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही है वैश्व चेतना से एकत्व स्थापित करना, स्वार्थ से ऊपर उठकर परमार्थ परायण बनना।


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