एक व्यक्ति घर से तय करके आया कि आज तो मन्दिर में सौ रुपया दान दे कर ही आना है। किन्तु सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते ख्याल आया कि पचास भी काफी होंगे और नीचे दुकानदार से सौ के खुले पैसे करा लिये। भीतर पहुँचा ख्याल आया कि कौन मजबूर कर रहा है। पचास भी न दूँ तो भी क्या बुरा है। बड़ी राहत मिली दिल को। सोचा दस रुपये दे देंगे। पैसे देने थे। सबसे आगे की सीट पर बैठ गया। प्रवचन प्रारंभ हुआ। आधा प्रवचन चला होगा। सोचा, इस तरह भावावेश में नहीं आना चाहिए। यहाँ देने वाले और भी बहुत हैं। एक दो रुपया देकर भी काम चल सकता है। दानपात्र घूमने लगा। लोग लगे पैसे डालने उसने सोचा कौन देखता है। आठ-आने भी डाले जा सकते हैं। मात्र दस पैसे आँख से बचा कर उसने डाल दिये।
अधिकाँश लोगों की यही मनोवृत्ति है। शुभ कार्य में दान देते समय मन ऐसे काँपता है जैसे नट रस्सी डगमगाता है।
मनुष्य और मनुष्य के बीच पनपने वाली अहं जनित विभेद बुद्धि ही समस्त विग्रहों का मूल है। यदि आत्मीयता की, अपनत्व की भावना विकसित हो सके, तो सब अपने दिखाई पड़ने लगें। सब में एकता की सूत्र शृंखला बँधी दिखाई पड़ने लगे तो व्यक्तिगत संकीर्ण स्वार्थपरता का अंत होने और सीमित परिधि में संकुचित स्व के विस्तृत होने में देर न लगे। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना ही आध्यात्मिक समाजवाद है। इसी के प्रखर रहने पर भूतकाल स्वर्णिम युग बन कर रहा। उज्ज्वल भविष्य के लिए भी अपने आप को, एकता एवं आत्मीयता के तत्वदर्शन को सुविस्तृत बनाना होगा। आत्म कल्याण और विश्व कल्याण का यह एक ही उपाय है।