सविता के प्रकाश की दिव्य ध्यान-धारणा

April 1991

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प्रकाश को परम पवित्र चेतना का प्रतीक माना गया है। संसार के प्रायः सभी धर्मों में ईश्वर को प्रकाश पुँज के रूप में स्वीकारा गया और ज्योति अवतरण के रूप में उपासना करने का विधान बताया गया है। महाप्रज्ञा की ब्रह्म वर्चस् परक ध्यान-धारणा में भी प्रभातकालीन स्वर्णिम सूर्य प्रभा को आकर्षित अवधारित करने का उपक्रम अपनाया जाता है। सविता ब्रह्म का प्रतीक प्रतिनिधि भी है। उपनिषदों में आदित्योब्रह्म कहकर इस तथ्य की पुष्टि की है। सूर्य ही प्रत्यक्ष ब्रह्म है। बाल्मीकि रामायण में आदित्य को ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव , स्कंद, प्रजापति, यम, सोम कहा है और इन सबका स्वामी भी बताया है। सूर्य से प्रकाश उत्पन्न होता है। देवता एवं वेद उसी से उत्पन्न हुए हैं। विश्व की सृजनात्मक शक्ति का मूल आधार सविता ही है। यह कहा गया है कि प्रकाश पुँज सविता की ध्यान-धारणा साधक को देवोपम बनाती एवं ओजस्, तेजस्, वर्चस् से भर देती है।

गायत्री विनियोग में उसका देवता-उद्गम स्त्रोत सविता माना गया है। यह सविता और आदित्य एक ही है। इस तथ्य की पुष्टि शतपथ ब्राह्मण 6/3/1/20 में की गई है जिसमें कहा गया है “असौवा आदित्यों देवः सविता।” अर्थात् यह आदित्य-सूर्य ही सविता है। दैवत काण्ड 4/31 में भी यही उल्लेख है- “आदित्योऽपि सवितैवोच्यते” अर्थात् आदित्य को ही सविता कहते हैं। सारे वैज्ञानिक प्रमाण एवं आप्त वचन सविता की महत्ता का ही प्रतिपादन करते हैं। महाप्रज्ञा गायत्री की सावित्री की उपासना में सविता की ही प्रकारान्तर से आराधना की जाती है और उस दिव्य प्रकाश से स्वयं को ही नहीं सृष्टि के हर प्राणी को जीवन चेतना, सत्प्रेरणा प्रदान किये जाने की प्रार्थना की जाती है।

गायत्री और सविता दोनों एक हैं। स्कन्द पुराण काशीखण्ड पूर्वार्द्ध 9/54 में सविता और गायत्री को वाच्य-वाचक की, कत्थक और कथन की उपमा दी गई है। दोनों की एकात्मकता सिद्ध की गई है। उसी के दिव्य प्रकाश की ध्यान-धारणा करने का संकेत वैदिक ऋषियों ने किया है और बताया है कि चिन्तन को बहिरंग से मोड़कर अन्तर्मुखी बनाकर कर कोई सूर्य की दिव्य सामर्थ्य का लाभ प्राप्त कर सकता है।

सूर्य की किरणों की भाँति मानसिक शक्तियाँ भी बिखरी रहने के कारण अपना प्रभाव अति स्वल्प मात्रा में ही पृथ्वी पर बिखेर पाती हैं। आतिशी शीशे पर जब सूर्य किरणें एकत्र की जाती हैं तो उसका केन्द्र बिन्दु देखते-देखते अग्नि उगलने लगता है। यही बात विचार शक्ति के बारे में भी है। वह अनेक क्षेत्रों की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति में नियोजित रहती है। उसे एकत्रित निग्रहीत कर लिया जाय तो विचारों की मूल शक्ति असाधारण रूप से शक्तिशाली हो जाती है। मानसिक ऊर्जा का एक सघन समुच्चय एकत्र हो जाता है। प्रत्यक्ष जीवन की सफलता का आधार यही है और यही आत्मिक उत्कर्ष का मूल भी।

विचारों की एकाग्रता साधने का सरल और प्रभावी उपाय ध्यान है। ध्यान में केन्द्रीकरण के लिए कोई छवि निर्धारित करनी पड़ती है। ऐसी वस्तु जो आकर्षक भी हो और गुणवत्ता से भरपूर भी थी। इष्ट निर्धारण में पूर्वनिर्धारण लक्ष्य पर गरिमा, महत्ता एवं चयन का आरोपण करना पड़ता है। इस दृष्टि से सार्वभौम ध्यान के लिए प्राचीन ऋषि मुनियों द्वारा निर्धारित प्रकाश पुंज प्रभात कालीन स्वर्णिम सूर्य का चयन करना हर मनुष्य के लिए अति उत्तम एवं निर्विवाद है। प्रायः इष्ट निर्धारण में जिन देवी-देवताओं की कथा गाथा होती है, उसके इतिहास में कितने ही उत्साहवर्धक तथ्य रहते हैं तो कई खोट भरे भी। ध्यान के कारण वह सभी भलाइयाँ बुराइयाँ साधना पर सवार होती है और श्रेष्ठताओं के साथ-साथ दोष भी साधक पर हावी होते चले जाते हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए सूर्य को सर्वथा दोष रहित माना गया है। उसमें गुण ही गुण हैं। साथ ही शक्ति का भण्डार एवं आकर्षक सुन्दरता से भरापूरा भी उसे समझा जा सकता है। वह उभय पक्षीय शक्ति का भण्डार एवं आकर्षक सुन्दरता से भरापूरा भी उसे समझा जा सकता है। वह उभय पक्षीय शक्ति धाराओं का उद्गम है। उसमें जीवनी शक्ति का अजस्र भण्डार है। अतीन्द्रिय क्षमताओं का विकास ही इस पर निर्भर है। ऋद्धि-सिद्धियाँ इसी क्षेत्र से उतरती हैं। प्रसुप्ति को जाग्रति में बदलने का कार्य सूर्य द्वारा ही सम्पन्न होता है।

सविता गायत्री का अधिष्ठाता भी है। इसके द्वारा प्राणशक्ति का उद्भव और वितरण होता है। इसी कारण वह प्राणियों का-वनस्पतियों का जन्मदाता माना जाता है। प्रकाश वितरण करने, चर्म चक्षुओं को दृश्य देखने, चक्षुओं को दिव्य दृष्टि से भरने का अनुदान प्रदान करता है। उसे निरन्तर विश्व में निस्वार्थ सेवा में निरत देखा जाता है। वह अनुशासन का धनी है। समय साधना की दृष्टि से उसे आदर्श एवं अनुकरणीय माना जा सकता है। तेजस्विता उसकी विशिष्टता है। इन्हीं सब विभूतियों को ध्यान-धारणा द्वारा आकर्षित और अन्तराल में प्रतिष्ठित किया जा सके तो समझना चाहिए कि साधक की सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुल गया। जिस उद्देश्य के लिए ध्यान किया जाता है उस गन्तव्य तक पहुँचने का राजमार्ग मिल गया।

प्रभातकाल के उदीयमान सूर्य में कुछ समय तक स्वर्णिम आभा रहती है। यही नेत्रों के लिए सह्य भी है। आरंभ में थोड़ी देर आँखें खोलकर देखना और फिर तुरन्त ही पलक बन्द कर लेना चाहिए। सूर्य के अभाव में दीपक की लौ को देखने से भी काम चल सकता है। दोनों ही त्राटक साधना के अंतर्गत आते हैं। खुले नेत्रों से प्रकाश को देखने की अवधि न्यूनतम होनी चाहिए। एक पल की झाँकी भर। इसके बाद पलक बंद कर लेनी चाहिए और उस प्रकाशपुँज की मानसिक अवधारणा करनी चाहिए। कुछ दिन के अभ्यास से सूर्य को या दीपक को खुले नेत्रों से देखने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह ध्यान स्वाभाविक हो जाता है और अनायास ही होता रहता है। उस समय सविता मंत्र गायत्री मंत्र का भी स्वचालित जप होता रहता है। प्राणयोग की ‘सोऽहम्’ साधना में श्वास-प्रश्वास के साथ निरन्तर चलते रहने की आदत स्वभाव का अंग बन जाती है।

प्रकाश पर निग्रहीत किया गया विचारों का एकत्रीकरण दोनों उपचारों के कारण एक विशेष शक्ति से सुसम्पन्न हो जाता है। उससे अन्तः क्षेत्र से दिव्य शक्ति का आविर्भाव होता है। इसका मनः क्षेत्र के किसी भी शक्ति केन्द्र पर आरोपण किया जाय तो वह प्रसुप्त अवस्था में न रह कर जाग्रत होने लगता है। इस जाग्रति का तात्पर्य एक अतिरिक्त शक्ति की उपलब्धि हस्तगत होना। इस प्रयोग को शरीर के किसी अवयव या शक्ति केन्द्र, चक्र, गुच्छक पर, उपत्यिका परिकर पर केन्द्रित किया जा सकता है। टार्च की रोशनी जिस स्थान पर पड़ती है वह परिधि चमकने लगती है। ठीक उसी प्रकार प्रकाशयुक्त ध्यान को जिस भी स्थान के लिए जोड़ा जाता है वहाँ अभिनव हलचल चल पड़ती है। प्रकाश से समाहित एकाग्रता को मन मस्तिष्क के अन्तराल के किसी क्षेत्र पर आरोपण करने से उसमें भरी हुई अवाँछनीयताओं का ठीक उसी तरह निष्कासन होता है। जिस तरह कि आपरेशन करने पर फोड़े से विषाक्त पदार्थ बाहर निकल पड़ता है। साथ ही वहाँ जो कुछ श्रेष्ठ है, प्रसुप्त स्थिति में पड़ा है, वह जाग्रत होकर अप्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष स्तर पर आ जाता है। प्रकाश-ध्यान द्वारा उपलब्ध की गई इस बेधक दिव्य दृष्टि को किस स्थान पर किस प्रयोजन के लिए कितनी मात्रा में नियोजित किया जाय, इसका निर्णय करने से पूर्व यह जानना आवश्यक होता है कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर में किसी दिव्य शक्ति का केन्द्र कहाँ है और उसके साथ सम्बन्ध जोड़ने के लिए बेधक दृष्टि को किस मार्ग से कितने मोड़-मरोड़ो में होकर गुजरते हुए पहुँचाया जा सकता है।

इतनी बारीकी में जा सकने की यदि सिद्धहस्त सर्जन जैसी योग्यता वाले किसी अनुभवी का सान्निध्य प्राप्त करके जान सकना संभव नहीं हो तो फिर सीधा मार्ग यही है कि स्थूल शरीर की दिव्य क्षमताओं को जाग्रत करने के लिए नाभिचक्र-सोलर प्लेक्सस के दिव्य कमल को ऊर्जा प्रदान करते हुए प्रस्फुरण को सूक्ष्म शरीर के केन्द्र हृदय चक्र एवं कारण शरीर की भाव संवेदनाओं का उद्गम मस्तिष्क मध्य अवस्थित सहस्र दल कमल ब्रह्म चक्र तक ले जाया जाय। इन्हें झकझोरने और जाग्रत कर लेने पर मनुष्य अलौकिक दिव्य शक्तियों का स्वामी बन जाता है।


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