यथार्थतः जीवन है क्या?

April 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“दस्युओं ने आक्रमण कर दिया, जान पड़ता है। इस निरीह ग्राम पर।” लपटें धू-धू करके सारे गगन को जला देने की धमकी दे रही थीं। कुण्डलियाँ लेकर उठती धुएँ की राशि जैसे मानव के भाग्याकाश पर ही छा जाएँगी। बाँस चटाचट चटख रहे थे और बच्चों का रोदन , बूढ़ों की पुकार, अबलाओं की क्रन्दन ध्वनि किसी पत्थर को भी पिघला देने के लिए काफी थी। बीच-बीच में तरुणों की हुँकार और दस्युओं का अट्टहास, गाली-गलौज के कर्कश शब्द सुनाई पड़ जाते। घोड़ों पर इधर से उधर दौड़ते, हाथों में तलवार उठाए, भाला सम्हाले दस्यु आग की लपलपाती लपटों के तेज प्रकाश से साफ देखे जा सकते थे।

लगता है ये बहुत अधिक हैं। कम से कम दो सौ। महाराज शिवाजी को गाँव की ओर घोड़ा बढ़ाते देखकर सहचर ने सावधान किया। महाराज दिल्ली के बादशाह की कैद से अपने कौशल द्वारा निकल चुके थे। सिर्फ एक विश्वस्त सेवक था उनके साथ। इस समय दोनों यवन सैनिकों की वेश-भूषा पहने थे।

तुम्हारा अनुमान ठीक है। महाराज ने घोड़े की लगाम ढीली करके दांतों में पकड़ ली। घोड़ा कदम छोड़कर सरपट दौड़ पड़ा। कन्धे से धनुष उठाकर प्रत्यंचा चढ़ा दी गई उस पर। हम अब भी निरीह प्राणियों की बहुत सहायता कर सकेंगे। दाँतों में लगाम होने से शब्द साफ नहीं सुनाई पड़ रहे थे।

हम लोग सिर्फ दो हैं। सहचर अब अनुगत न रहकर घोड़ा दौड़ाते हुए बगल में पहुँच गया था। उसकी गति के तेवर से साफ पता चलता था कि यदि महाराज ने इस आग में कूद पड़ने का निश्चय न छोड़ा तो उसका अश्व छत्रपति के आगे चलेगा। समूचा महाराष्ट्र बड़ी आकुलता से श्रीमन्त की प्रतीक्षा टकटकी लगाए है। वैदिक संस्कृति को इन्हीं बाहुओं से आशा है। बोलने के लहजे में हृदय का सम्पूर्ण अनुरोध घनीभूत हो गया था। जब तक कोई साहस न दिखावे, सारा समूह निस्तेज पड़ा रहता है। महाराज समझा रहे थे। सज्जनों के साहस के अभाव में दुर्जनों का साहस पलता है। नीति के हमदर्दों के दब्बूपन में अनीति की बर्बर आक्रामकता पोषित होती है। बातों के साथ धनुष पर बाण चढ़ चुका था और केवल इतनी प्रतीक्षा थी दस्यु मार के भीतर आ जाएँ। हमारे इस साहस के साथ विभीषिका से पलायन कर रहे इन्हीं लोगों को उससे जूझने की हिम्मत आ जाएगी और तुम देखोगे कि हम पलक मारते दो से पाँच-सात सौ हो गए हैं। फिर अनीति में हिम्मत ही कितनी?

विजय हमेशा श्रीमन्त के पीछे चली है। साथ चलने वाले को सन्तोष नहीं हुआ था। इतने पर भी निरापद निकल जाना इतना आसान नहीं। आप इस समय यवन पोशाक में हैं। इस तरह तो वेश की कलई खुले बिना न रहेगी। इतनी बड़ी घटना का छिपा रह सकना नितान्त असम्भव है। बादशाह के गुप्तचर और सैनिकों के अनेकों दल पीछा करते हुए ढूंढ़ खोज में जुटे हैं।

शिवा आपत्तियों से डर कर जीवन के महान दायित्व से विमुख नहीं हो सकता। एक क्षण के लिए क्षत्रपति ने बगल में चल रहे उसकी ओर देखा। बड़ी कठोर थी वह दृष्टि। दूसरे ही क्षण धनुष से तीर छूट गया। एक चीख ने वातावरण को गुँजा दिया। हर-हर महादेव का मेघ गर्जन महाराज के कण्ठ से निकला ओर अनुचर के गले में उसकी प्रतिध्वनि हुए बिना न रही।

“शिशुओं के प्राण, नारी का सतीत्व और वृद्धों की करुण चीत्कारें- जीवन का मूल्य इनके सम्मुख भी अधिक है? छिः!” बराबर तरकस खाली होता जा रहा था। जिस समय सामूहिक जीवन पर आपदाओं की घटनाएँ छायी हों उस पल सच्चे मानव की कसौटी यही है कि प्रबल प्रभंजन बन इन घटनाओं को छितराये बिना रहे। समूह के सौभाग्य सूर्य को उदय करने हेतु स्वयं के जीवन की बलि भी महानतम प्राप्ति है। दस्युओं की अथक चेष्टा भी उन्हें एकत्र नहीं कर पा रही थी। प्रतिक्षण प्रतिपल उनकी संख्या घटती जा रही थी।

किन्तु श्रीमान के जीवन का मूल्य-? पार्श्वचर के हाथों की स्फूर्ति महाराज से कहीं कम न थी। उसका अश्व आगे बढ़ चुका था। बिना गर्दन घुमाए उसने शंका की और उसके कानों ने सुन लिया।

मेरे या किसी के भी-यहाँ तक श्री समर्थ के भी जीवन का मूल्य इससे अधिक नहीं। याद रखो कर्तव्य का मूल्य जीवन है जीवन का मूल्य कर्तव्य। दस्यु तब तक पलायन करने लगे थे।

जीवन है क्या? छत्रपति के लौटकर आने के बाद यह पहला दरबार था। सिंहासन के दायीं ओर अष्ट प्रधानों के ऊँचे और भव्य आसन थे। बायीं ओर सामन्तों की पंक्ति, सभी सभासद अपना-अपना स्थान ग्रहण किये थे। आने के बाद से कोई गम्भीर समस्या सामने नहीं आयी थी। शत्रु का समाचार न था और नवीन आक्रमण की कोई योजना अभी थी नहीं। यों इन सबके होने पर भी शिवाजी की निष्काम कर्म वृत्ति उनके मानस-पटल पर चिन्ता की लकीरें नहीं खिंचने देती। प्रश्न तानाबा जी ने उठाया था।

“जय-जय श्री रघुवीर समर्थ।” महाराज के अधरों से समाधान के शब्द निकलने ही वाले थे। तभी तोरण द्वार से यह मेघ गम्भीर ध्वनि उठी। महाराज अस्त-व्यस्त दौड़ पड़े। सभासदों को अनुगमन करना ही था और अगले क्षण महाराष्ट्र का गौरव किरीट-एक लम्ब-तड़ंग जटा जूट धारी कोपीन लपेटे हाथ में लम्बा चिमटा थामे एक साधु के चरणों में लुढ़क गया था।

क्यों रे शिवा। मुझे बाहर ही खड़ा रखेगा क्या? छत्रपति को पैरों से उठते न देखकर स्वामी रामदास हँस पड़े।

प्रभु पधारे। आँखें भरी हुई थी। मस्तक और नासिकाग्र ने धूल से सनकर नवीन छटा धारण कर ली थी। शिवाजी का कण्ठ स्वर गदगद था।

“तानाबा जी जानना चाहते हैं, जीवन का क्या मतलब है।” सबने समर्थ के चरणोदक से अपने मस्तक और गले को पवित्र कर लिया था। संत के चरण चन्दन चर्चित हो चुके थे, कण्ठ पुष्पहार से भर गया था। धूपदानी में सुलग रहा अगरु दोनों ओर सुरभित धूम्र बिखेर रहा था। सभी आसन छोड़कर भूमि पर बिछे गलीचे पर ही बैठे थे।

गति और शक्ति संत ने समाधान दिया प्रश्न का। इन दोनों से संयुक्त ही जीवन है और उसका मतलब है सतत जागरुकता।

सबने मस्तक झुका दिए। अब भी सभी के नेत्र उठकर संत के मुख पर इस तरह लगे थे कि वे अभी तृप्त नहीं हुए हैं। मूक नेत्र भाषा में सबने कुछ और सुनने की प्रार्थना की।

जिज्ञासा, प्रयत्न, विचार और त्याग का अविरल प्रवाह ही जीवन है। समर्थ की वाणी ने पुनः स्पष्ट किया। इनमें से किसी के भी मूर्छित होने का मतलब है जीवन की रुग्णावस्था। इनकी निवृत्ति में मृत्यु है और पूर्णता में मोक्ष। तुम सबको मोक्ष की ओर बढ़ना है। इनकी पूर्णता की परिणति है आनन्द। इस आनन्द की अभीप्सा ही यथार्थ जीवन है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118