योगदर्शन के दो महत्वपूर्ण चरण

April 1991

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अष्टगयोग प्रकरण में जहाँ प्रत्याहार का प्रसंग आता है वहाँ ऋषि का उससे तात्पर्य प्रतिरोध से है। अन्तः क्षेत्र अनेकानेक अनगढ़ताओं से भरा बताया जाता है। मनुष्य अनेकानेक योनियों में परिभ्रमण करते हुए इस सुरदुर्लभ काया में प्रविष्ट होने का सुयोग उपलब्ध करता है। इतने पर भी क्षुद्र स्तर के जीवधारियों में पाई जाने वाली प्रवृत्तियों का प्रभाव अंतर्जगत पर बना ही रहता है। मानवी गरिमा की उत्कृष्टता को दृष्टिगत रख अनुपयोग व अवाँछनीय ये कुसंस्कारों चेतना के साथ किसी न किसी रूप में चिपके रहते हैं, अवसर पाते ही उभर उठते हैं। उनके प्रभाव से मनुष्य ऐसा कुछ सोचने और करने लगता है, जो उसके लिए कभी भी हितकर नहीं होता। प्रतिरोध इन्हीं से जब किया जाता है तो अधोगामिता से उबरकर ऊर्ध्वगामी होने की प्रेरणा मिलने लगती है। पतन सहज व उत्थान कठिन प्रतीत होते हुए भी उससे उबरकर प्रगति पथ पर चल पड़ना सहज ही रुचिकर लगने लगता है।

इन दिनों एक ही प्रश्न सबके समक्ष है कि अनौचित्य की दिशा धारा में चल पड़े प्रवाह को कैसे रोका जाय? मर्यादाओं का परिपालन एवं वर्जनाओं का अनुशासन किस प्रकार निभ सके? इस संदर्भ में यही होना चाहिए कि मदोन्मत्त हाथी पर अनुशासन का अंकुश लगाया जाय। बहाव को बाँध लगाकर रोका जाय। आक्रमणों को रोकने के लिए आत्मरक्षा का समुचित प्रबंध किया जाय। कुकल्पनाओं और दुष्प्रवृत्तियों को सद्विचारों और सत्संकल्पों के सामने खड़ा किया जाय। उद्वेग का समाधान कर सकने वाली विवेकशीलता को उगाया जाय। लाठी का जवाब लाठी से, घूँसे का जवाब घूँसे से देने की, जैसे को तैसा वाली नीति अपनाई जाय। दुष्प्रवृत्ति के उभरने से पहले ही सत्प्रवृत्ति के समुच्चय द्वारा उसे कुचल दिया जाय।

दुष्प्रवृत्तियाँ तभी सक्रिय होती हैं जब उन्हें प्रतिरोध सामने अड़ा हुआ दिखाई नहीं पड़ता। मैदान खाली देखकर ही टिड्डी दल बढ़ता चला आता है। प्रत्येक विचारशील को अपने ज्ञान भण्डार में इतनी सद्विचार सम्पदा भर रखनी चाहिए जो अनौचित्य अपनाने की हानियाँ और औचित्य के पक्षधर लाभों को भली प्रकार प्रतिपादन करने में समर्थ हो। व्यभिचार की ओर झुकने वाले को इसके दुष्परिणाम समझाये जाने चाहिए। नशे जैसे व्यसनों के दलदल में जो फँसता जा रहा है। उसे बाँह पकड़ कर भी गर्त में गिरने से रोकना चाहिए। उसकी भयंकर परिणति का स्वरूप पूरी छवि उभार कर दर्शाना चाहिए। इतने पर भी जो न रुके उसकी राह रोक कर खड़े हो जाना चाहिए। यही है प्रत्याहार।

निजी जीवन में कितनी ही बुरी आदतें जड़ पकड़ लेती हैं। अवाँछनीयताएँ, अनैतिकताएँ, भ्रान्तियाँ, कुरीतियाँ स्वभाव का अंग बन जाती हैं। इन्हें सहन करते रहा जाय तो वे दिन-दिन अधिक गइराई तक जड़ पकड़ती चली जायेगी और पीछे सुदृढ़ होने पर हटने का नाम न लेंगी। इसलिए जब भी होश आवे, तभी सँभल जाना चाहिए। दुर्बलता ओर अवाँछनीयताओं से कमर कसकर जूझना चाहिए। संकल्पपूर्वक उन्हें हटा कर ही चैन लेना चाहिए। यही है प्रत्याहार अर्थात् अनीति के विरुद्ध संघर्ष। महाभारत का आध्यात्मिक स्वरूप यही है। स्वजन जैसे दीखने वाले अनौचित्यों से भिड़ जाने के लिए अर्जुन की तरह गाण्डीव सँभालना चाहिए। गीताकार ने इसी संदर्भ में कहा है “उद्धरेदात्मानात्मानं” अर्थात् अपने द्वारा अपना उद्धार करें। अपने को स्वभाव जन्य दुर्बलता के कारण गिरने न दें। इस प्रकार की प्रतिरोधी चिन्तन व्यवस्था और संकल्प भरी साहसिकता को प्रत्याहार कहा गया है। यह आत्मोत्कर्ष की साधना में निरत होने वाले प्रत्येक मनस्वी के लिए नितान्त आवश्यक है।

उन्मूलन के कारण उत्पन्न हुई रिक्तता को आरोपण प्रयास द्वारा भरा जाना चाहिए। गिलास में भरे गँदले पानी को फेंक देना तो ठीक है। पर उसे खाली ही रहने देने पर अगले क्षणों प्यास बुझाने की आवश्यकता किस प्रकार पूरी हो सकेगी? खालीपन ठीक नहीं है। खाली दिमाग को शैतान की दुकान कहा गया है। दुष्प्रवृत्तियों का हटाया जाना ही उचित है, पर यह उससे भी अधिक आवश्यक है कि उस स्थान की पूर्ति सद्विचारों और सत्कर्मों के समुच्चय द्वारा की जाय। रिक्तता को पूरा किया जाना चाहिए। दुर्गुणों का स्थान सद्गुण ले सकें, इसके लिए रचनात्मक स्तर के प्रबल प्रयास किये जाने चाहिए।

अनौचित्य से बच जाना पर्याप्त नहीं। चट्टान, पर्वत किसी का कुछ बुरा नहीं करते। किन्तु उनकी समुचित उपयोगिता भी तो नहीं होती। ऐसी दशा में वे निरर्थक रूप से जगह घेरते भर प्रतीत होते हैं। किसी उच्चस्तरीय उद्देश्य की पूर्ति नहीं करते। ऐसी दशा में उनका न तो गौरव बढ़ता है और न सम्मान होता है। ऊसर बंजरों के संबंध में भी यही बात है। रेगिस्तान भी ऐसे ही होते हैं। उनका अस्तित्व किसी को प्रसन्नता प्रदान नहीं करता। वरन् एक बड़े भूखण्ड को घेरे पड़े रहने का लाँछन ही लगता है। जो यों ऊसर बंजर किसी पर आक्रमण नहीं करते। न उन्हें शोषण, अपहरण जैसे कुकृत्य करते देखा जाता है। फिर भी उनका दुर्भाग्य जहाँ तहाँ कोसा ही जाता है। यदि वे उपजाऊ स्तर के होते तो कितनी सुन्दरता उभरती, कितनी सम्पन्नता हस्तगत होती। दोनों परिस्थितियों की तुलना करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि उर्वरता का न होना भी एक अभिशाप है। सद्गुणों से रहित होना भी एक लाँछन है। किन्तु भले ही उन अनगढ़ों अपंगों द्वारा किसी का अनहित न किया जाता हो। नशा छोड़ देने भर से स्वास्थ्य नहीं बनता, उसके लिए व्यायाम जैसे उपचार भी आवश्यक हो जाते हैं। उचित आहार विहार का अभिनव प्रबंध भी तो होना चाहिए। इस प्रयास का नाम धारणा है।

योग दर्शन में प्रत्याहार और धारणा का युग्म साथ-साथ चलता है। शरीर पर चिपकी मलिनता तो धोनी चाहिए ही पर इसका अर्थ यह नहीं है कि स्नान के उपरान्त नंगे फिरा जाय। साफ सुथरे वस्त्र न पहने जायँ। उस स्नान करने वाले को कौन सराहेगा जिसने शरीर और वस्त्र तो धो डाले, पर नंगे शरीर फिरने लगा। सभ्य समाज की यह भी मर्यादा है कि मैले कुचैले न रहने की आधी बात पूरी कर लेने के उपरान्त इतना और किया जाय कि वैसे वस्त्र भी पहने जायँ, जो सभ्य समाज में मर्यादा पालन की दृष्टि से आवश्यक समझे जाते हैं। खेत की जुताई करके खरपतवार उखाड़ना आवश्यक है। पर इस जोते गये खेत में कुछ बोया भी तो जाना चाहिए जिससे जोतने में लगे श्रम की भरपाई हो सके। दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन मात्र एक पक्ष है। दूसरा पक्ष तब बनता है जब उसके पूर्वार्ध के साथ-साथ सत्प्रवृत्ति संवर्धन का उत्तरार्ध भी बन पड़े। इस दूसरे प्रयास का नाम धारणा है।

प्रत्याहार अर्थात् दोष दुर्गुणों को स्वभाव का अंग बनकर न रहने देना तथा जो जम गये हों उन्हें उखाड़ फेंकना। यह महाभारत जीतने या लंका विजय प्राप्त करने के समान है। सराहना तो इस पराक्रम की भी की जायगी। पर इसमें भी चार चाँद लगने चाहिए, सोने के धागे में मोती पिरोये जाने चाहिए। जीवन निर्मल निश्छल होना ही चाहिए पर इतने भर से कोई गौरव गरिमा का अधिकारी नहीं बन जाता। पुण्य परमार्थ के लिए पराक्रम भी किया जाना चाहिए। संयमशीलता उचित है पर उसकी शोभा तभी बनती है जब दूरदर्शी चिन्तनशीलता और सदाशयता भरी उदारता का भी उसमें सुयोग हो। प्रत्याहार और धारणा का सार्थक समन्वय इसी प्रकार होता बताया गया है। इसके उपरान्त अपनायी गयी ध्यान धारणा निश्चित ही सत्परिणाम देती है।


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