एक राजा के चार बेटे थे। चारों एक से एक बढ़ कर उद्दंड। उनके लिए अध्यापक नियुक्त होते रहते पर वे किसी को भी टिकने न देते। अनुशासन मानना तो दूर वे उनकी बात तक न सुनते। किशोर हो चले थे पर उन्हें फूटा अक्षर तक न आया।
इस पर राजा बहुत दुःखी रहता और सोचता कि वे राजकाज कैसे चला पायेंगे? परम्परा का निर्वाह कैसे कर सकेंगे? बिना विद्या के तो बुद्धि भी साथ नहीं देती।
हताश राजा ने घोषणा की जो कोई अध्यापक इन बच्चों को पढ़ा देगा उसे आधा राज्य इनाम में दिया जायगा। अनेक पंडित आये और असफल होकर वापस लौट गये।
विष्णु शर्मा ने यह कार्य अपने हाथ में लिया उनने शिक्षण की एक नई शैली अपनाई। कहानियों का मनोरंजन करते हुए उसमें घोल कर व्यवहारिक जीवन की गुत्थियों को सुलझाना। इस प्रयोग से उन्हें आरंभ से ही सफलता मिलती रही। उन्हें कहानियाँ सुनने में रस आने लगा। अध्यापक के पीछे लगे रहते और उन्हें नई कहानियाँ कहने का आग्रह करते। विष्णु शर्मा दूसरों की तरह मनोरंजन के लिए कहानियाँ नहीं कहते थे पर उनकी शैली में जीवन विज्ञान, के समाज गठन के हर महत्वपूर्ण पक्ष पर समाधान जुड़ा रहता। बालक तथ्यों में पारंगत हुए। उनने पढ़ने लिखने में ही उत्साह नहीं दिखाया वरन् व्यवहार कुशलता के क्षेत्र में भी पीछे न रहे।
विष्णु शर्मा की उनमें से कुछ कहानियों का संग्रह पंच तंत्र पुस्तक में दिया है। उन्हें पुरस्कृत भी किया गया।
शक्तिशाली ज्वार-भाटे उत्पन्न करता है जिनके आधार पर अभीष्ट परिस्थितियाँ विनिर्मित हो सकें। यही है मंत्र विद्या के चमत्कारी क्रियाकलाप का रहस्य।
शब्द शक्ति के बाद शेष आधार साधक को स्वयं प्रयत्नपूर्वक खड़े करने पड़ते हैं। इन्हें चेतनात्मक आधार भी कहा जा सकता है। चारित्रिक श्रेष्ठता और लक्ष्य के प्रति अटूट श्रद्धा साधक को सफलता की ओर अग्रसर करती है तथा उसे अभीष्ट लक्ष्य तक ले पहुँचती है।
चारित्रिक श्रेष्ठता के लिये मंत्र साधक को यम-नियमों का अनुशासन पालन करते हुए श्रेष्ठता का अभिवर्धन करना चाहिए। क्रूर कर्मी दुष्ट-दुराचारी व्यक्ति किसी भी मंत्र को सिद्ध नहीं कर सकते। ताँत्रिक शक्तियाँ भी ब्रह्मचर्य आदि की अपेक्षा करती है। फिर देव शक्तियाँ का अवतरण जिस भूमि पर होना है उसे विचारणा, भावना और क्रिया की दृष्टि से सतोगुणी पवित्रता से युक्त होना ही चाहिए।
इन्द्रियों का चटोरापन मन की चंचलता का प्रधान कारण है। तृष्णाओं में, वासनाओं में और अहंकार तृप्ति की महत्वकाँक्षाओं में भटकने वाला मन मृगतृष्णा एवं कस्तूरी गंध में यहाँ वहाँ असंगत दौड़ लगाते रहने वाले हिरण की तरह है। मन की एकाग्रता अध्यात्म क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है। उसके संपादन के लिए अमुक साधनों का विधान तो है, पर उनकी सफलता मन को चंचल बनाने वाली दुष्प्रवृत्तियों का अवरोध करने के साथ जुड़ी हुई है। जिसने मन को संयत समाहित करने की आवश्यकता पूर्ण कर सकने योग्य अंतः स्थिति का परिष्कृत दृष्टिकोण के आधार पर निर्माण किया होगा वही सच्ची और गहरी एकाग्रता का लाभ उठा सकेगा, ध्यान उसी का ठीक तरह जमेगा और तन्मयता के आधार पर उत्पन्न होने वाली दिव्य क्षमताओं से लाभान्वित होने का अवसर उसी को मिलेगा।
अभीष्ट लक्ष्यों में श्रद्धा जितनी गहरी होगी उतना ही मंत्र बल प्रचण्ड होता चला जायेगा। श्रद्धा अपने आप में एक प्रचण्ड चेतन शक्ति है। विश्वासों के आधार पर ही आकाँक्षाएँ उत्पन्न होती हैं और मनः संस्थान का स्वरूप विनिर्मित होता है। बहुत कुछ काम तो मस्तिष्क को ही करना पड़ता है। शरीर का संचालन भी मस्तिष्क ही करता है। इस मस्तिष्क को दिशा देने का काम अंतःकरण के मर्मस्थल में जमे हुए श्रद्धा, विश्वास का है। वस्तुतः व्यक्तित्व का असली प्रेरणा केन्द्र इसी निष्ठ की धुरी पर घूमता है। गीतकार ने इस तथ्य का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा है “यो यच्छद्वः स एव स” जो जैसी श्रद्धा रख रहा है वस्तुतः वह वही है। अर्थात् श्रद्धा ही व्यक्तित्व है। इस श्रद्धा को इष्ट-लक्ष्य में साधना की यथार्थता और उपलब्धि में जितनी अधिक गहराई के साथ तन्मयता के साथ नियोजित किया गया होगा, मंत्र उतना ही सामर्थ्यवान बनेगा। याँत्रिक की चमत्कारी शक्ति उसी अनुपात से प्रचण्ड होगी। इन तीनों चेतनात्मक आधारों को महत्व देते हुए जिसने मंत्रानुष्ठान किया होगा, निश्चित रूप से वह अपने प्रयोजन में पूर्णतया सफल होकर रहेगा।
उथली एकाँगी साधना करने से तो उसके सत्परिणाम से वंचित ही रहना पड़ता है। शब्द शक्ति, मानसिक एकाग्रता, चारित्रिक श्रेष्ठता, लक्ष्य के प्रति अटूट श्रद्धा, यह चार आधार ले कर की जाने वाली मंत्र साधना कभी निष्फल नहीं होती।