मानव अंगों का घृणित व्यापार बंद हो।

April 1991

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आलू , मटर, टमाटर, गोभी आदि के बाजार में बिकने की बात तो अब तक देखी सुनी जाती रही है। इसमें विचित्रता भी नहीं, यह सामान्य बात है, किन्तु जब मानवी अंग अवयवों का क्रय-विक्रय होने लगे, तो इसे गंभीर मामला माना जाना चाहिए, साथ ही अनैतिक और अमानवीय भी। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इस प्रक्रिया द्वारा एक वर्ग द्वारा पैसे के बल पर गरीबों का शोषण और उन्हें अपनी मौत मरने के लिए बाधित किया जा रहा है।

यहाँ कहने का आशय यह कदापि नहीं है कि किसी जरूरतमंद की सेवा-सहायता एवं अंगदान द्वारा जीवन रक्षा करना बुरी बात है। नैतिकता की सीमा के भीतर ऐसा करना अनुचित भी नहीं है, किन्तु सवाल यह है कि ऐसे कितने व्यक्ति हैं, जो स्वेच्छा से परमार्थ परायणता के भाव से प्रेरित होकर ऐसा करना चाहते हैं। अधिकाँश मामलों में ऐसे प्रकरणों में दाता की विवशता और कंगाली ही प्रकाश में आती है। बस यहीं से इस अमानवीय कृत्य की शुरुआत होती है। इससे पूर्व अंग-अवयवों का अभावग्रस्तों को दान वसीयतनामे के माध्यम से मृत्युपराँत पूर्णतः परमार्थ की दृष्टि से किया जाता था, जो निस्संदेह नैतिक भी था और मानवीय भी। जो शरीर मृत्यु के बाद मिट्टी में मिल जाना है और सड़-गल कर नष्ट हो जाना है, उससे यदि किसी व्यक्ति की जीवन रक्षा हो जाय तो दिवंगत होने वाले को इसमें क्या आपत्ति हो सकती है। जीवन के अन्तिम क्षणों में उसका पवित्र कार्य उसे यह संतोष प्रदान करने के लिए काफी होता है, कि जीते जी भले ही किसी की सेवा-सहायता न कर सका हो, पर मौत के बाद तो वह ऐसा कर ही सकेगा, दूसरे किसी मरणासन्न को जीवनदान देकर पुण्य-परमार्थ का भागी बनता है, सो अलग, किन्तु अब जीवित अवस्था में ही मानवी अंगों का व्यापार होने लगे, तो इसे दुर्भाग्य कहना चाहिए और आज के तथाकथित सभ्य समाज के सिर पर काले कलंक का टीका भी।

सर्वेक्षणों से ज्ञात होता है कि अपने देश के बड़े-बड़े शहरों के अस्पतालों में रिक्शा चालक, मजदूर, गरीब किसान, कुली जैसे निर्धन तबके के लोगों की लाइनें लगी हैं। पूछने पर पता चलता है कि यह रक्तदाताओं की पंक्तियां हैं, जो अपनी छोटी कमाई के अतिरिक्त विभिन्न अस्पतालों में माह में अनेक अनेक बार रक्तदान द्वारा अर्थोपार्जन करते और परिवार की गाड़ी किसी प्रकार खींचते-घिसटते जीवन गुजारते हैं। यह व्यापार यहीं तक सीमित होता, तो संतोष की साँस ली जा सकती थी, किन्तु जब व्यक्ति अपने वृक्क (किडनी), त्वचा के टुकड़े, आँख (कार्निया), प्लासेण्टा ऊतक जैसे महत्वपूर्ण अंग-अवयवों को जीवित रहते ही आलू-गोभी की तरह बेच कर पैसा कमाने और अर्थोपार्जन का साधन मानने लगे, तो इसे क्या कहा जाय दुर्भाग्य? दुर्विपाक? अथवा उस समाज-व्यवस्था को दोष दिया जाय जिसने लोगों को अमीर-गरीब के दो खेमों में बाँट दिया।

सम्पन्न लोग तो पैसे के बल पर विलासिता के साधन जुटाते रहते हैं, वहीं दूसरी ओर गरीबों को अभावग्रस्तता की स्थिति में भली प्रकार एक जून का भोजन भी उपलब्ध नहीं हो पाता। ऐसी दशा में उनके पास दो ही विकल्प शेष रह जाते हैं या तो आत्म हत्या कर लें अथवा जीने के लिए कोई ऐसा उपाय-उपचार अपनायें, जिससे अधिक नहीं, तो कम से कम मौलिक आवश्यकताओं की भलीभाँति पूर्ति होती रह सके। आज नौकरी पाना तो जमीन आसमान के कुलाबे छानने की तरह है। महंगाई सर चढ़ कर बोल रही है, जिसमें छोटी पूँजी से कोई वाणिज्य-व्यापार भी संभव नहीं। ऐसी स्थिति में जीवित अंग-अवयवों का विक्रय कर अपना जीवन-यापन करना उनके लिए अस्वाभाविक भी नहीं लगता। प्रति वर्ग इंच त्वचा के लिए उन्हें तीन सौ रुपये प्राप्त होते हैं। बड़े-बड़े शहरों में आज गुर्दे 50 हजार रुपए तथा आँख 80 हजार रुपये में बिकती है। इसके अतिरिक्त सर्वेक्षण के दौरान कई ऐसे व्यक्ति भी प्रकाश में आये हैं जो पैसों के लिए अपना एक हाथ, कान एवं यहाँ तक एक टाँग भी बेचने के इच्छुक थे। हों भी क्यों नहीं, क्योंकि इससे उन्हें इतना धन प्राप्त हो जाता है, जो उन्हीं के कथानुसार तीन जन्मों में भी इतनी सम्पदा इकट्ठी करने की उनकी सामर्थ्य नहीं। ऐसी दशा में इस व्यवसाय का फूलना-फलना स्वाभाविक ही है।

एक अध्ययन के अनुसार सन् 83 में 60 और सन् 85 में 600 से बढ़ कर वृक्क (किडनी) व्यापार अब इतना बड़ा हो चुका है कि प्रति वर्ष 2 हजार तक ऐसे जीवित वृक्क खरीदे-बेचे जाते हैं। इसी के साथ अन्य अंगों के क्रय-विक्रय में भी तेजी आयी है। वैसे तो व्यापार विभिन्न राज्यों के कलकत्ता, बम्बई, नाड़ियाद, पुणे, मद्रास, बैंगलोर, जयपुर, मदुरई जैसे सभी छोटे बड़े शहरों में चल रहा है, किन्तु महाराष्ट्र को इसका मक्का कहा जाता है। तमिलनाडु का एक कस्बा है-विलिवक्कम। यहाँ यह धन्धा इतनी तेजी से चल पड़ा है कि लोगों ने इसका नाम बदल कर किडनीवक्कम-किडनीसोल्डम रख दिया है। इस प्रकार के व्यापार के लिए भारत विश्व भर में प्रसिद्ध है। किसी अन्य देश में ऐसा व्यापार चलता हो, इसकी कोई सूचना नहीं है। हाँ, विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार होण्डुरास और ब्राजील से बच्चे इसी प्रयोजन के लिए दूसरे देशों को बेचे जाते हैं, पर अभी तक इसकी पुष्टि नहीं सकी है। भारत में इस अनोखे धन्धे का प्रारंभ विदेशों से हुआ। आरंभ में भारतीय विक्रेता अपने अंग विदेशों में जाकर एजेन्टों के माध्यम से बेचते थे, पर जब वहाँ ऐसे आपरेशनों पर पाबन्दी लगा दी गई तो अब ऐसे जरूरतमंद लोग विदेशों से भारत की ओर आने लगे। सर्वेक्षण में देखा गया है कि खाड़ी देशों के निवासी वृक्क प्रत्यारोपण के लिए प्रायः बम्बई और सिंगापुर एवं थाईलैण्ड के निवासी मद्रास आया करते हैं।

ऐसी बात नहीं कि विदेशों में अंग प्रत्यारोपण कार्य नहीं होता, पर भारत और उसमें मौलिक अन्तर यह है कि उनमें मृतकों से अंग प्राप्त किए जाते हैं और रक्त बैंकों की तरह अन्य अंगों के लिए भी समुचित अंग बैंक स्थापित किये गये हैं। किन्तु भारत में अब तक ऐसी व्यवस्था नहीं हो सकी है। सन् 80 से पूर्व तक यहाँ भी अंग प्रत्यारोपण के लिए अंग प्राप्ति का कार्य मृतकों एवं जीवित व्यक्तियों में सिर्फ रोगी के निकट सम्बन्धियों तक ही सीमित था, पर इसके बाद जब शक्तिशाली इम्यून प्रतिरोधी दवाओं का आविष्कार हुआ तो इनके प्रयोग से गैर सगे-सम्बन्धियों से प्राप्त अवयवों को रोगी के इम्यून सिस्टम द्वारा अस्वीकार करने की प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगा पाने में सफलता प्राप्त कर ली गई। इस प्रकार दूसरे लोगों के भी अवयवों का सफलतापूर्वक प्रत्यारोपण अन्य लोगों में किया जाना संभव हो गया। बस यहीं से इस घृणित व्यापार की शुरुआत हुई। वैसे पैसे की दृष्टि से देखा जाय, तो रोगी, अंग-क्रय से कोई आर्थिक लाभ में रहता हो ऐसी बात नहीं है, क्योंकि आँकड़े बताते हैं कि 50 हजार रुपया एक जीवित वृक्क को खरीदने में खर्च आता है। इसके अतिरिक्त 60 से 70 हजार ऑपरेशन का खर्चा। इसके बाद करीब तीन वर्ष तक 3 हजार प्रति माह के हिसाब से दवाओं का खर्चा। इस प्रकार कुल दो लाख से भी ऊपर का व्यय पूरी प्रक्रिया में आ जाता है। इतने रुपये में डायलिसिस जैसी मशीन से भी गुर्दे का काम लिया जा सकता है, फिर दूसरे व्यक्ति का जीवन खतरे में डालने का कोई औचित्य रह नहीं जाता और दाता की मृत्यु का दोष सिर पर ढोने के पाप से भी बचा जा सकता है, क्योंकि ऐसे आपरेशनों में लापरवाही के कारण कई बार अंग विक्रेताओं की मौत तक होती देखी गई है।

ऐसी दशा में प्रश्न उठता है कि उन निरीह मौतों और घृणित व्यापार के लिए दोषी कौन है? डॉक्टर? विकसित चिकित्सा विज्ञान? अथवा पैसे के बल पर जीवन खरीदने वाले तथाकथित सम्पन्न व्यक्ति का दलाल? आरोप चाहे जिसके सिर पर पड़े, मढ़ दें, पर मूल कारण वहाँ से आरंभ होता है, जहाँ हम संवेदना पक्ष की उपेक्षा-अवहेलना कर निष्ठुरतापूर्वक निर्णय लेते हैं। तब मानवी अंग को निकाल कर प्रत्यारोपण करना भी एक याँत्रिक प्रक्रिया हो जाती है। विज्ञान के विकास को अभी कई मंजिले पार करनी हैं। उसे तो प्रगति करना चाहिए पर संवेदना की नकेल भी उसे पहननी होगी, तभी यह घृणित व्यापार रुकेगा।


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