मंत्र विज्ञान और उसकी संसिद्धि

April 1991

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आत्मोत्कर्ष के लिए जितनी भी साधनाएँ हैं, प्रायः उन सब में मंत्र जप का समावेश किसी न किसी रूप में अवश्य होता है। क्योंकि मंत्र विद्या मनुष्य के अंतरंग में सोई उन शक्तियों और क्षमताओं को जाग्रत करती है जो उसे उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य तक पहुँचाती हैं। अन्य मंत्र साधनाओं में फिर भी अन्यान्य कर्मकाण्ड करने पड़ते हैं, पर गायत्री मंत्र की साधना एक ऐसी साधना है जो अपने आप में सर्वांगपूर्ण है।

अकेला गायत्री मंत्र ही वे सभी उपलब्धियाँ प्रदान करने में समर्थ है जो अन्य बहुत सी साधनाओं के करने से प्राप्त होती हैं। इस मंत्र की साधना को सफल बनाने में चार तथ्यों का समावेश है। 1-शब्द शक्ति 2-मानसिक एकाग्रता 3-चारित्रिक श्रेष्ठता और 4-अटूट श्रद्धा।

गायत्री मंत्र से कितने ही प्रकार के चमत्कार एवं वरदान उपलब्ध हो सकते हैं। यह सत्य है, पर उसके साथ यह तथ्य भी जुड़ा हुआ है। वह मंत्र उपरोक्त चार परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुआ होना चाहिए।

गायत्री मंत्र का प्रथम आधार है शब्द शक्ति। इस में अक्षरों का गुँथन एक ऐसे विशिष्ट क्रम से किया गया है जो शब्द शास्त्र के गूढ़ सिद्धान्तों पर आधारित है। यों अर्थ की दृष्टि से गायत्री मंत्र सरल है। उसमें परमात्मा से सद्बुद्धि की याचना की गई है। इस शिक्षा को भी समझना चाहिए, पर मंत्र की शक्ति मात्र इस शिक्षा में नहीं, उसकी शब्द रचना से भी जुड़ी हुई है। वाद्य यंत्रों का अमुक क्रम से बजाने पर ध्वनि प्रवाह निस्सृत होता है। कण्ठ को अमुक आरोह-अवरोहों के अनुरूप उतार चढ़ाव के स्वरों से युक्त करके जो ध्वनि प्रवाह बनता है उसे गायन कहते हैं। ठीक इसी प्रकार मुख से उच्चारित मंत्र को अमुक शब्द क्रम के अनुसार बार-बार लगातार संचालन करने से जो विशेष प्रकार का ध्वनि प्रवाह विनिर्मित होता है वही मंत्र की भौतिक क्षमता है। मुख से उच्चारित मंत्राक्षर सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करते हैं। उसमें सन्निहित तीन ग्रंथियों, षटचक्रों-षोडश मातृकाओं, चौबीस उपत्यिकाओं एवं चौरासी नाड़ियों को झंकृत करने में मंत्र का उच्चारण क्रम बहुत काम करता है। दिव्य शक्ति के प्रादुर्भूत होने में यह शब्दोच्चार भी एक बहुत बड़ा कारण एवं माध्यम है।

मंत्र विद्या में मुख से तो धीमे और हलके प्रवाह क्रम से ही शब्दों का उच्चारण होता है पर उनके बार-बार लगातार दुहराये जाने से सूक्ष्म शरीर के शक्ति संस्थानों का ध्वनि प्रवाह बहने लगता है। वहाँ से अश्रव्य कर्णातीत ध्वनियाँ या प्रचंड प्रवाह प्रादुर्भूत होता है। इसी में मंत्र साधक का व्यक्तित्व ढलता है और उन्हीं के आधार पर वह अभीष्ट वातावरण बनता है, जिसके लिए मंत्र साधना की गई। मंत्र का जितना महत्व है, साधना विधान का जितना महात्म्य है उतना ही आवश्यक यह भी है कि साधक अपनी श्रद्धा तन्मयता और विधि प्रक्रिया में निष्ठावान रहकर अपना व्यक्तित्व इस योग्य बनाये कि उसका मंत्र प्रयोग सही निशान साधने वाली बहुमूल्य बंदूक का काम कर सके।

शब्द शक्ति का महत्व विज्ञाननुमोदित है। स्थूल, श्रव्य, शब्द भी बड़ा काम करते हैं फिर सूक्ष्म कर्णातीत अश्रव्य ध्वनियों का महत्व तो और भी अधिक है। मंत्र का उच्चारण तो धीमा ही होता है उससे अतीन्द्रिय शब्द शक्ति को ही प्रचंड परिमाण में उत्पन्न किया जाता है।

ध्वनि तरंगें पिछले दिनों उच्चारण से उद्भूत होकर श्रवण की परिधि में ही सीमित रहती थीं। प्राणियों द्वारा शब्दोच्चारों एवं वस्तुओं से उत्पन्न आघातों से अगणित प्रकार की ध्वनियाँ निकलती हैं उन्हें हमारे कान सुनते हैं। सुनकर कई तरह के ज्ञान प्राप्त करते हैं। निष्कर्ष निकालते हैं और अनुभव बढ़ाते हुए उपयोगी कदम उठाते हैं। यह शब्द का साधारण उपयोग हुआ।

विज्ञान ने ध्वनि तरंगों में सन्निहित असाधारण शक्ति को समझा है और उनके द्वारा विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलापों को पूरा करना अथवा लाभ उठाना आरम्भ किया है। वस्तुओं की मोटाई नापने-धातुओं के गुण दोष परखने का काम अब ध्वनि तरंगें ही प्रधान रूप में पूरा करती है। कार्बन ब्लैक का उत्पादन वस्त्रों की धुलाई, रासायनिक सम्मिश्रण, कागज की लुगदी, गीलेपन को सुखाना, धातुओं की ढलाई, प्लास्टिक धागों का निर्माण प्रभृति उद्योगों में ध्वनि तरंगों के उपयोग से एक नया व्यावसायिक अध्याय आरम्भ हुआ है।

इलेक्ट्रोनिक्स के उच्च विज्ञानी ऐसा यंत्र बनाने में सफल नहीं हो सके जो श्रवण शक्ति की दृष्टि से कान के समान संवेदनशील हो। कानों की जो झिल्ली आवाज पकड़कर मस्तिष्क तक पहुँचाती है उसकी मुटाई एक इंच के ढाई हजारवें हिस्से के बराबर है, फिर भी वह कोई चार लाख प्रकार के शब्द भेद पहचान सकती है और उनका अंतर कर सकती है। अपनी, गाय की या मोटर की आवाज को हम अलग से पहचान लेते हैं और उनका अंतर कर सकते हैं यद्यपि लगभग वैसी ही आवाज दूसरी गायों की या मोटरों की होती है, पर जो थोड़ा सा भी अंतर उनमें रहता है, अपने कान के लिए उतने से ही अंतर कर सकना और पहचान सकना संभव हो जाता है। कितनी दूर से, किस दिशा से, किस मनुष्य की आवाज आ रही है, यह पहचानने में हमें कुछ कठिनाई नहीं होती। यह कान की सूक्ष्म संवेदनशीलता का ही चमत्कार है। टेलीफोन यंत्र इतनी बारीकियाँ नहीं पकड़ सकता है।

यह यंत्र कान के समान ही संवेदनशील है। पर सुनता उससे भी ज्यादा है। मनुष्य के कान तो उन्हीं बातों को सुनते हैं जिनमें उसकी दिलचस्पी होती है अन्यथा पास में बहुत कुछ बकझक होते रहने पर भी अपने पल्ले कुछ नहीं पड़ता किन्तु यदि दिलचस्पी की बात हो तो फुसफुसाहट से भी मतलब की बातें आसानी से सुनी जा सकती हैं। प्रकारान्तर से कहा जा सकता है कि श्रवण शक्ति का पूरी तरह संबंध मानसिक एकाग्रता से है।

मनुष्य के कान केवल उन्हीं ध्वनि तरंगों को अनुभव कर सकते हैं जिनकी संख्या प्रति सैकिण्ड 20 से लेकर 20 सहस्र डेसिबल तक की होती है। इससे कम और अधिक संख्या वाले ध्वनि प्रवाह होते तो हैं, पर वे मनुष्य की कर्णेन्द्रिय द्वारा नहीं सुने जा सकते।

इस तथ्य को समझने पर मानसिक जप का महत्व समझ में आता है। उच्चारण आवश्यक नहीं। मानसिक शक्ति का प्रयोग करके ध्यान भूमिका में सूक्ष्म जिव्हा द्वारा मन ही मन जो जप किया जाता है, उसमें भी ध्वनि तरंगें भली प्रकार उठती रहती हैं।

रेडियो यंत्र केवल कुछ सीमित और संबंधित फ्रीक्वेन्सी पर चल रही ध्वनि तरंगें ही पकड़ पाते हैं। समीपवर्ती फ्रीक्वेन्सी के साथ यदि उनका संबंध न हो तो वे यंत्र सुन नहीं सकेंगे। कान की स्थिति उनकी अपेक्षा लाख गुनी अच्छी है। वे अनेक फ्रीक्वेन्सियों पर चल रहे शब्द प्रवाहों को एक साथ पकड़ और सुन सकते हैं।

नादयोग द्वारा आकाश-व्यापी, अन्तर्ग्रही तथा अन्तः क्षेत्रीय दिव्य शक्तियों का सुना जाना संभव है और उस आधार पर वैसा बहुत कुछ जाना जा सकता है जो स्थूल मस्तिष्कीय चेतना अथवा उपलब्ध साधनों से जान सकना संभव नहीं है। विश्व-व्यापी शब्द समुद्र में मंत्र साधक अपनी प्रचण्ड हलचलें समाविष्ट करता है और ऐसे


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