मनुष्य जन्म को सुरदुर्लभ कहा गया है। इसे जीव के हाथों इस आशा अपेक्षा के साथ धरोहर के रूप में सौंपा गया है कि निजी अपूर्णताओं को विकसित किया जाय और साथ ही विश्व उद्यान को अधिकाधिक समुन्नत-विकसित बनाने की सेवा-साधना में निरत रहा जाय। इस दूरदर्शी विवेकशीलता को व्यावहारिक जीवन में उतारने पर ही कोई सच्चे अर्थों में भक्त या साधक बन सकता है। पात्रता का विकास भी यही है। इसी आधार पर किसी को दैवी अनुग्रह का अनुदान मिलता है। विभूतियाँ, ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ हस्तगत होने का यह सुनिश्चित राज मार्ग है।
ईश्वर की मनुहार करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि अपनी पात्रता-उत्कृष्टता बढ़ाने के प्राणपण से प्रयत्न किये जायँ। आग पर तपाये जाने और कसौटी पर कसे जाने पर खरे सोने की तरह अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने वालों का ही मूल्याँकन संसार में तथा भगवान के दरबार में होता है। साधना-उपासना से जहाँ आत्मशोधन और आत्म परिष्कार का प्रयोजन सधता है, वहीं सेवा-साधना में रत रहकर पुण्य अर्जित किया जा सकता है। इन आचारों को जो जितनी दृढ़ता और तत्परता के साथ अपनाता है, वह अपनी पात्रता बढ़ाते हुए परमेश्वर का प्राणप्रिय बनता और जीवन को धन्य बनाता है।
भगवान देते हैं, पर देने से पहले पात्रता की परख करते और भक्त का लोभ, मोह और अहंकार छीन लेते हैं। खाली बर्तन में ही घी भरा जा सकता है। जिसमें पहले से ही गोबर भरा है उसे कुछ प्राप्त होने की आशा नहीं करनी चाहिए।
एक लालची सेठ के आग्रह पर भगवान बुद्ध उसके यहाँ भिक्षा ग्रहण करने गये। जिस कमंडलु में भिक्षा लेनी थी, गोबर भरा हुआ था। सेठ ने कहा-गोबर भरे पात्र में स्वादिष्ट खीर कैसे भरी जा सकेगी? उसने पात्र भगवान के हाथ से लिया और धो-माँजकर साफ किया। इसके पश्चात उस में खीर भरी। भगवान बुद्ध ने उसे समझाया-यदि भगवान से या संत से कोई महत्वपूर्ण वरदान प्राप्त करना हो तो पहले अपने अन्तराल में से लिप्सा-लालसाओं को निकाल बाहर करना चाहिए।
भगवान ने अपने सभी भक्तों को साधु-ब्राह्मण बनाया है। उनकी कामनाओं-सम्पदाओं का अपहरण किया और बदले में अपना अपार अनुग्रह दिया। गोपियों की दही लूटने के बाद ही कृष्ण उनके आँगन में नाचने को तैयार हुए। बालि का राज्य छीनने के उपरान्त ही राम ने उसे निज धाम भेज था। कर्ण से घायल स्थिति में भी उसके दाँतों में लगे सोने के टुकड़े माँग कर उसे मोक्ष दिया था। सुदामा के बगल में लगे हुए चावलों की पोटली को छीनने के उपरान्त ही उन्हें द्वारिकापुरी की सम्पदा सुदामापुरी में पहुँचाई थी। यही संसार का क्रम भी है। बीज बिना गले वृक्ष के रूप में विकसित कहाँ होता है?
राजा हरिश्चन्द्र, मोरध्वज, शिवि आदि की महिमा-कथा पुराणों में भरी पड़ी है। यह उनके पात्रत्व-विकास का ही चमत्कार था। लालची को, चापलूस को भगवान का सहयोग एवं अनुदान कहाँ मिलता है। नारद मोह की कथा प्रसिद्ध है। उनके मन में सुँदर राजकुमारी को स्वयंवर में प्राप्त करने और उसके पिता का आधा राज्य प्राप्त करने का लालच हुआ। वे भगवान से सुन्दर रूप-यौवन माँगने गये, पर उन्हें निराश ही लौटना पड़ा। उस कामना पूर्ति में नारद का भविष्य गिरता ही।
भगवान के लिए सभी प्राणी समान हैं। सभी उनकी संतान हैं, पर अन्य जीवों को इतनी सुविधा प्रदान नहीं जितनी मनुष्य को। यह एक प्रकार से पक्षपात और अन्याय ही कहा जा सकता है। पर बात ऐसी है नहीं, जो भगवान ने दिया है, वह मनुष्य को विश्वास योग्य समझकर इसलिए दिया है कि उस धरोहर का उपयोग उसकी विश्व वाटिका को अधिक सुन्दर समुन्नत करने के लिए करेगा। यदि ऐसा नहीं किया जायगा तो वह अमानत में खयानत ही मानी जायगी।
मनुष्य जीवन सृष्टा की धरोहर है, उसको साझेदारी की दुकान माना जाय। उसमें भगवान के अजस्र अनुदान जुड़े हैं और साथ ही अपना पुरुषार्थ एवं कौशल भी जिसे एक शब्द में पात्रता भी कहा जा सकता है। इस हिस्सेदारी में यही न्यायोचित है कि जो भी कमाई हो उसका लाभाँश दोनों साझीदारों को मिले। पूँजी लगाने वाला खाली हाथ रहे और पुरुषार्थ करने वाला दोनों का हिस्सा हड़प ले तो यह हर दृष्टि से अनुचित माना जायेगा और कभी न्यायाधीश के दरबार में जाना पड़े तो वह कृत्य दंडनीय भी होगा।