ब्राह्मणत्व की गरिमा (Kahani)

April 1991

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एक भिखारी ने हाथी का शिकार किया। हाथी गिरा तो उसकी चपेट में शिकारी भी आ गया और दबकर मर गया।

उधर से एक सियार निकला। उसने दो बड़ी-बड़ी लाशें सामने पड़ी देखकर प्रसन्नता अनुभव की। बहुत दिनों के लिए इकट्ठा भोजन मिल गया।

खाना कहाँ से आरंभ किया जाय? उसका हल उसने शिकारी के धनुष की डोरी को ठिकाने लगाने से आरंभ किया।

धनुष चढ़ा हुआ था। उसकी डोरी जैसे ही कटी धनुष का एक सिरा उचट कर सियार की गरदन में लगा और उसका भी वहीं ढेर हो गया।

लालच हर किसी से कुकर्म कराता है और उसके ऊपर विपत्ति बुलाता है तथा साथियों के ऊपर विपत्ति बुलाता है।

अरस्तू के इस लम्बे कथन को सुनते हुए वह ऊबने लगा था। उसके चुप हो जाने पर वह मुस्करा कर चल दिया। यहाँ आने पर ब्राह्मण चाणक्य, साधु दण्डायन को देखने पर पता चला अरस्तू की बातों का मर्म। क्या करे? यह सोच रहा था। सैनिक अधिकारी आदेश की प्रतीक्षा में टकटकी बाँधे उसकी ओर निहार रहे थे।

तभी भीड़ को चीरते हुए एक दूत आया। उसके हाथ में एक पत्र था। सिकंदर ने खोला, पढ़ने लगा-सारी बातों की समीक्षात्मक विवेचना करते हुए उस दार्शनिक ने लिखा था उस महान साधु को तत्व जिज्ञासु अरस्तु का प्रणाम निवेदन करना। कहना एक विनीत विद्यार्थी ने शिक्षक को पुकारा है। यद्यपि उनके चरणों में उसे स्वयं हाजिर होना चाहिए। किन्तु उनके वहाँ आने से अकेले उसका नहीं अनेकानेक यूनानवासियों का कल्याण होगा। वे अपनी दरिद्रता मिटा सकेंगे।

पत्र के शब्दों को सुनकर साधु बरबस मुस्कराया। “तू जा” वह कह रहा था, “अपने गुरु से कहना कि दण्डायन आएगा। प्रव्रज्या की उस महान परम्परा को पालन करेगा, जिसके अनुसार जिज्ञासु के पास स्वयं पहुँचना शिक्षक का धर्म है। किन्तु” साधु ने आकाश की ओर दृष्टि उठाई ढलते हुए सूरज को देखते हुए कहा “तेरा जीवन सूर्य ढल रहा है सिकन्दर तू नहीं पहुँच सकेगा पर मैं जाऊँगा-अवश्य। यह उतना ही सच है जितना कल से सूर्य का उदय। अब जा।” कहकर उन्होंने उसकी ओर से मुँह फेर लिया।

सिकन्दर वापस लौट पड़ा। इतिहास साक्षी है इस बात का कि वह यूनान न पहुँच सका। रास्ते के रेगिस्तान में प्यास से विकल मृत्यु की ओर उन्मुख सिकन्दर अपने प्रधान सेनापति से कह रहा था मरने पर मेरे हाथ ताबूत से बाहर निकाल देना ताकि विश्व जान सके कि अपने को महान कहने वाला सिकन्दर दरिद्र था। दरिद्र ही गया। जीवन सम्पदा का एक रत्न भी वह कमा न सका। दण्डायन सत्य था सत्य है।

अपने वायदे के मुताबिक परिव्राजक दण्डायन यूनान पहुँचे। यूनानवासियों ने उनके नाम का अपनी भाषा में रूपांतरण किया “डायोजिनिस।” इस परिव्राजक की उपस्थिति ने यूनानी तत्वचिन्तन को नए आयाम दिये। जीवन की यथार्थ अनुभूति के साथ यह भी पता चल सका-दरिद्रता की परिभाषा क्या है? असली वैभव क्या है? जानबूझ कर ओढ़ी हुई गरीबी में भी आदर्शों का पुजारी कैसे शानदार जीवन जीता रह सकता है? विश्वभर में साँस्कृतिक चेतना की वह पूँजी जो भारत की अमूल्य थाती रही है, ऐसे दण्डायनों ने ही पहुँचायी। आज भी वह परम्परा पुनः जाग्रत होने को व्याकुल है। समय आ रहा है जब सम्पन्नता की सही परिभाषा लोग समझेंगे व ब्राह्मणत्व की गरिमा जानेंगे, अपनाने को आगे बढ़ेंगे।


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