ब्राह्मणत्व का मर्म

April 1991

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श्रुति कहती है-

न ब्रह्मणो वेदपाठान्न शास्त्र-पठनादपि।

देव्यास्त्रिकालाभ्यासाद् ब्राह्मणः स्याद् द्विजऽन्यथा॥

(वृ. संध्या भाष्य)

अर्थात् - वेद और शास्त्रों के पढ़ने से ब्राह्मणत्व नहीं हो सकता। तीनों कालों में गायत्री उपासना से ब्राह्मणत्व होता है, अन्यथा वह द्विज नहीं रहता है।

सभी शास्त्र, अभिमतों में जहाँ गायत्री महाशक्ति की महिमा-महत्ता का गुणगान है, वहाँ उसके साथ परोक्ष रूप से एक शर्त भी लगी हुई है कि साधक को ब्राह्मण एवं तपस्वी होना चाहिए। ब्राह्मण का अर्थ है विचारणा और चरित्र निष्ठ का उत्कृष्ट होना। तपस्वी का अर्थ है- आदर्शों के निर्वाह में जो संयम बरतना पड़ता और कष्ट सहना पड़ता है, उसे दुखी होकर नहीं , प्रसन्नतापूर्वक सहन करना।

स्पष्ट है कि जिन्हें उच्चस्तरीय विचारणा और गतिविधियाँ अपनानी होती हैं, उन्हें विलासिता में, सम्पन्नता में कटौती करनी होती है और औसत नागरिक स्तर का जीवन-यापन करना पड़ता है। अन्यथा बड़प्पन की अहंता प्रदर्शित करने के लिए अधिक धन चाहिए। स्पष्ट है कि भारत जैसे पिछड़े देश की गई गुजरी स्थिति में कोई समृद्ध-सुसम्पन्न जीवन ईमानदारी में व्यतीत नहीं कर सकता। करे भी तो उस प्रयोजन में इतना समय लगाना पड़ेगा कि मानवी गरिमा के अनुरूप गतिविधियाँ अपनाने के लिए समय ही शेष न बचेगा। यही बात परिवार को अधिक विस्तृत करने और उन्हें अधिकाधिक साज-सज्जा-सुविधा प्रदान करने के संबंध में है। वह भी अपना चित्त और समय उसी प्रयोजन के लिए लगाये रहेगा। परमार्थ प्रयोजनों से लेकर आदर्श व्यक्तित्व निर्माण की योजना ऐसी दशा में आधी-अधूरी ही बनी रहेगी। दोनों में से एक भी प्रयोजन ठीक प्रकार न साध सकेगा।

ब्राह्मण को तपस्वी होना चाहिए, इसका तात्पर्य संयमशीलता से है। संयम की चार दिशायें हैं (1) इन्द्रिय संयम (2) अर्थ संयम (3) समय संयम (4) विचार संयम। इन्हें साधने पर दूसरे स्वेच्छाचारी लोगों की तुलना में ब्राह्मण को अभावग्रस्त भी रहना पड़ेगा। उपहास भी सहना पड़ेगा और जिनके स्वार्थों को धक्का पहुँचता होगा, उन्हें उनका विरोध प्रतिरोध करके झंझटों में-कष्टों में भी फँसना पड़ेगा।

जो इस स्थिति को प्रसन्नतापूर्वक सह सकता हो, इन कठिनाइयों को तपजन्य सुयोग मान सकता हो, उसे तपस्वी कहते हैं। शरीर को अकारण कष्टों में डालकर सताना तप नहीं। तप एक उच्चस्तरीय व्रत है, संकल्प है जिसमें प्रतिकूलता के रहते हुए भी अपने निश्चय पर अटल रहना पड़ता है। संयम द्वारा बचाई हुई श्रम, समय और साधनों की शक्ति को लोकमंगल के परमार्थ प्रयोजनों में लगाना पड़ता है। मोटी दृष्टि से यह मूर्खता है। चतुरों की दृष्टि में अपने को मूर्ख सिद्ध होने देना और इस कारण निजी जीवन में अभाव और बाहरी जीवन में विरोध-उपहास सहना भी कष्ट साध्य होता है। इसलिए उसे भी तप की ही एक शाखा माना गया है।

गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है अर्थात् ब्रह्म-परायण-उत्कृष्ट जीवन यापन करने वालों को ही उसका समुचित परिणाम मिलता है। गायत्री उपासक को ब्राह्मण होना चाहिए।

यहाँ जन्म-जाति और कुलवंश की चर्चा नहीं हो रही है। इस दृष्टि से किसी को ऊँचा-नीचा नहीं माना जा सकता। ब्राह्मण जाति के लोगों को ही इसका लाभ मिलता है, ऐसा सोचना सर्वथा निरर्थक है। क्योंकि मनुष्य मात्र एक ही जाति है। मानवी मौलिक अधिकार सबको समान हैं। धार्मिक क्रिया-कृत्यों में, पूजा-उपासना में भी कोई जाति-भेद, लिंगभेद व्यवधान नहीं डालता। ऐसी दशा में एक वर्ण को गायत्री का अधिकार होना और दूसरों को न होना यह न तो बुद्धि संगत है और न न्याय संगत और न भारतीय संविधान के अनुकूल। हिन्दू धर्म की वर्ण-व्यवस्था गुण, कर्म, स्वभाव पर आधारित है। स्तर बदलते ही वर्ण बदल जाते हैं। इसलिए यहाँ किसी को इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए कि शास्त्रकारों का मन्तव्य ब्राह्मण शब्द से किसी जाति विशेष के संबंध में है। वे तो मात्र गुण, कर्म स्वभाव की दृष्टि से उत्कृष्ट व्यक्ति को अध्यात्मवादी, सत्पात्र, साधक, अधिकारी मानते हैं। गायत्री उपासना का यदि वास्तविक प्रतिफल देखना हो तो व्यक्ति को इतनी सुनिश्चित आदर्शवादी जीवनचर्या अपनानी पड़ेगी कि उसे ब्राह्मण या तपस्वी कहने में किसी को संकोच न करना पड़े। यदि सही अर्थों में ब्राह्मणोपम जीवन जिया जा सके तो गायत्री साधना का सम्पुट मिलकर जीवन में चमत्कारी परिवर्तन लाता व ब्राह्मणत्व को सार्थक बना देता है।


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