पंचकोशों की अनावरण साधना

April 1991

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आत्मा के ऊपर पाँच आवरण चढ़े हुए हैं। फूलों में जिस प्रकार रंग, आकृति, गंध, रस, नाम आदि समग्र रूप से समाहित होते हैं, उसी प्रकार कार्य सत्ता में पाँच कोशों का समग्र समावेश कहा जा सकता है। केले के तने की अथवा प्याज की परतों की तरह इन्हीं आवरणों से आच्छादित रहने के कारण आत्मा का प्रकाश प्रत्यक्षतया प्रस्फुटित नहीं होने पाता। इन्हें उघाड़ दिया जाय तो आत्मा के परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन अपने ही अन्तराल में होने लगते हैं और आत्मा के बीच समर्पण के आधार पर एकात्मता स्थापित हो जाने के कारण भक्त और भगवान एक ही स्तर के हो जाते हैं। नाला गंगा में मिलने के बाद गंगाजल ही बन जाता है और वैसा ही प्रभाव दिखाने लगता है।

थियोसोफिकल मान्यता के अनुसार पाँच कोश मनुष्य के पाँच आवरण, पाँच शरीर या पाँच लोक हैं। इन्हें क्रमशः (1) फिजिकल बॉडी (2) ईथरिक डबल या बॉडी (3) एस्ट्रल बॉडी (4) मेण्टल बॉडी (5) काँजल बॉडी कहा गया है और इनमें पाँच प्रकार की विभूतियों का समावेश बताया गया है। अध्यात्म शास्त्रों में इन्हें क्रमशः (1) अन्नमय कोश (2) प्राणमय कोश (3) मनोमय कोश (4) विज्ञानमय और (5) आनन्दमय कोश के नाम से सम्बोधित किया गया है। उपनिषद् के तत्वदर्शी ऋषि पंचकोश सम्बन्धी जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहते हैं -

अन्नमयः प्राणमयः मनोमयः विज्ञानमयः

विज्ञानमयः आनन्दमयश्चेति पंचकोशाः।

अर्थात् अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनन्दमय, यह पाँच कोश हैं। इनमें जो अन्न के रस से उत्पन्न होता है, जो अन्न रस से ही बढ़ता है और जो अन्न रूप पृथ्वी में ही लीन हो जाता है, उसे अन्नमयकोश एवं स्थूल शरीर कहते हैं। प्राण, अपान, बयान, समान, उदान-इन पाँच वायुओं के समूह और कर्मेन्द्रिय पंचक के समूह को प्राणमय कोश कहते हैं। संक्षेप में यही क्रियाशक्ति है। मनोमय कोश मनन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के समूह के मिलने से बनता है। इसे इच्छाशक्ति कह सकते हैं। बुद्धि और पाँच ज्ञानेन्द्रियों का समन्वय विज्ञानमय कोश है। यह ज्ञान शक्ति है। इसी प्रकार कारण रूप अविद्या में रहने वाला, रज और तम से मलिन सत्व के कारण मुदित वृत्ति वाला आनन्देच्छुक कोश आनन्दमय कोश है।

इस प्रकार शरीर को पाँच तत्वों की-चेतना को पाँच प्राणों की मिश्रित संरचना माना जाता है, पर यह दृश्यमान शरीर की विवेचना हुई। शरीर और मस्तिष्क के क्रिया-कलापों से संलग्न एक विशेष विद्युतीय चेतना है। अध्यात्म की भाषा में उसी को अन्नमय कोश कहा गया है। इसे ही वैज्ञानिक भाषा में जैवीय विद्युत-बायो इलेक्ट्रिसिटी कहा जाता है। इसका कार्य शरीरगत क्रिया पद्धति को सुनियोजित और सुनियंत्रित बनाये रहना है।

शरीर की हर इकाई, हर कोशिका- सेल काया की सबसे छोटी इकाई मानी जाती है। हर सेल में एक नाभिक होता है। इसकी बहुमुखी कार्य प्रणालियाँ हैं। कोशों के टूटते रहने पर उनके स्थानापन्न कोशों की निर्माण पद्धति न्यूक्लियोलस एवं क्रोमैटिन नेटवर्क सँभालते हैं। भोजन निर्माण “गाँल्गी बॉडीज” के अधीन रहता है। इसी प्रकार की अन्यान्य शरीरगत सूक्ष्म संचालक पद्धतियाँ अन्नमय कोश के अंतर्गत आती हैं।

इस कोश का स्थान यों तो मुख है, क्योंकि मुख से होकर ही वह पेट में जाता है और रक्त-माँस बनता है, तो भी इसके परिष्कार की साधना भूख तक सीमित नहीं है। व्रत, उपवास, विशेष आहार या अमुक मात्रा में निर्भरता के कारण समूचे शरीर का ढाँचा बनता है और जैसा अन्न होता है, वैसी ही प्रकृति एवं प्रवृत्ति का सारा शरीर बनता है। काया का कण-कण अन्न से विनिर्मित है। ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता कि मुख ही अन्न का आधार क्षेत्र है।

दूसरा कोश है-प्राणमय कोश। यह एक प्रकार की चार्जर पद्धति है, जिसके द्वारा अन्नमय कोश की अंतरंग क्षमताओं में शक्ति व्यय होते रहने पर उन्हें खोखला नहीं होने देती। वरन् बैटरी को डिस्चार्ज होने के पूर्व ही चार्ज कर देती है। इस प्रकार यह एक डायनेमो सिस्टम बन जाता है।

प्राणतत्व को चेतन ऊर्जा-लाइफ एनर्जी कहा गया है। ताप, प्रकाश, चुम्बकत्व, विद्युत, शब्द , आदि ऊर्जा के विविध रूप हैं। आवश्यकतानुसार एक प्रकार की एनर्जी दूसरे प्रकार में बदलती भी रहती है। इन सबका समन्वय ही जीवन है। इस विश्व-ब्रह्मांड में मैटर-पदार्थ की तरह ही सचेतन प्राण विद्युत भी भरी पड़ी है। प्राणायाम प्रक्रिया द्वारा सविता शक्ति का प्राणाकर्षण करके मनुष्य अपने अन्तराल में उसकी अधिक मात्रा को प्रविष्ट कर सकता है। यह प्राण यों तो साधारणतया नासिका द्वारा खींची गई वायु द्वारा शरीर में प्रवेश करता है, पर उसके साथ संकल्प और चुम्बकत्व भी जुड़ा होता है तभी प्राण की मात्रा बहुलता के साथ शरीर में पहुँचती है और टिकती है। यह प्राण ही विभिन्न अवयवों द्वारा फूटता है। नेत्रों से, वाणी से, भुजाओं से, निर्धारणों से, व्यवहार से प्राण की न्यूनता एवं बहुलता परिलक्षित होती है। इस प्रकार वह नासिका द्वारा प्रवेश करने पर भी इस क्षेत्र में सीमित नहीं किया जा सकता। वह समस्त शरीर व्यापी है।

तीसरा-मनोमय कोश यों मस्तिष्क में केन्द्रित माना जाता है। कल्पनाएँ, विचारणाएँ, इच्छाएँ, गतिविधियाँ उसी क्षेत्र में विनिर्मित होती हैं, तो भी वह उस क्षेत्र तक सीमित नहीं। पंच ज्ञानेन्द्रियों की अपनी-अपनी भूख है। शरीरगत और मनोगत आवश्यकताएँ चिन्तन की अमुक सीमा निर्धारित करती है। इसलिए वह भी आत्मसत्ता के हर क्षेत्र में संव्याप्त माना जाता है।

चौथा विज्ञानमय कोश है। इसका स्थान हृदय माना जाता है, क्योंकि भावनाओं का उद्गम वही माना गया है। सहृदय, हृदयहीन शब्द बताते हैं कि भावनाओं का केन्द्र हृदय होना चाहिए, किन्तु बात इतने छोटे क्षेत्र तक सीमित नहीं है। अपनी आवश्यकताएँ दूसरे का व्यवहार और परिस्थितियों का तकाजा मिलकर भावनाओं का निर्माण करते हैं। देश भक्ति, समाज सेवा, दुखियों के प्रति सहानुभूति, प्रतिशोध, ईर्ष्या आदि का उद्भव समूचे जीवन क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली क्रियाओं की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होता है। वह भी मात्र रक्त संचार की थैली तक सीमाबद्ध नहीं है।

पांचवीं कोश आनन्दमय कोश है। इसका उद्गम मस्तिष्कीय मध्यभाग सहस्रार चक्र को माना गया है, जिसे कैलाश मान सरोवर की, शेष शैय्या और क्षीर सागर की, कमल पुष्प पर तप करते ब्रह्मा की उपमा दी गई है। यह आनन्द वस्तुतः दृष्टिकोण के परिष्कृत होने से सम्बन्धित है। कई व्यक्ति जटिल परिस्थितियों में भी हँसते-हँसते रहते हैं और कई पर्याप्त सुविधा साधन होते हुए भी खीझते-खिझाते रहते हैं। यह सुसंस्कारिता और कुसंस्कारिता की प्रतिक्रिया है।

यह पंचकोश किसी स्थान विशेष से यत्किंचित् प्रभावित भले ही होते हों, पर उनका संबंध समूची जीवन चेतना से है। उनका स्थान षट्चक्रों की तरह मेरुदंड और मूलाधार-सहस्रार की परिधि तक सीमित नहीं है। वस्तुतः यह पाँचों कोश दिव्य शक्तियों के भाण्डागार हैं। जिस प्रकार पंच रत्न, पंच देव, पंचगव्य, पंच, वातावरण के पंच आयाम एवं ब्रह्मांडीय सूक्ष्म पंच कणों आदि की गणना होती है, उसी प्रकार पंच कोणों की महत्ता समझी जाती है।

इन्हें जाग्रत करने के लिए साधक को उच्चस्तरीय तपश्चर्यायें करनी होती है। तपाने से मनुष्य कुछ से कुछ हो जाता है। पर सामान्य अर्थों में सीमित संतुलित और सात्विक भोजन करना अन्नमय कोश की साधना कही जाती है। साहस, संकल्प, पराक्रम अनुसंधान को कड़ाई से अपनाने पर प्राणमय कोश सधता रहता है। श्रेष्ठ ही देखने, खोजने ओर सोचने विचारने से मनोमय कोश सध जाता है। इसी तरह संकीर्णता छोड़कर विशालता के साथ जुड़ जाने पर विज्ञानमय कोश सधता है और सादा जीवन उच्च विचार की, बालकों जैसी निश्छलता की आदत डालने पर, हार-जीत में हँसते रहने वाले प्रज्ञावानों की तरह हर किसी अवसर में आनन्दित रहने पर आनन्दमय कोश सध जाता है। यह सर्वसाधारण की अतिशय सुगम पंचकोशी साधना हुई, पर उच्चस्तरीय पंचकोश साधना के लिए एकान्त, मौन, स्वल्पाहार, संयम, लक्ष्य के प्रति तन्मयता जैसे अनुबंध अपनाने पड़ते हैं। तप-तितीक्षा का स्तर ऊँचा करना पड़ता है। और ‘स्व’ को ‘पर’ में पुरी तरह समर्पित करना पड़ता है। इस संदर्भ में ऐसी कष्ट साध्य तपश्चर्यायें करनी पड़ती है जिसके संबंध में अनुभवी मार्गदर्शकों की सहायता से ही योजनाबद्ध कार्यपद्धति निर्धारित की जाती है। इसमें पग-पग पर परामर्श और मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है, जिसकी पूर्ति अनुभवी सिद्ध पुरुष ही कर सकते हैं।

मानव जीवन की क्षमताएँ पाँच कोशों की पाँच धाराओं में विभाजित हैं। यदि यह सम्पदायें समग्र रूप में या न्यूनाधिक मात्रा में सिद्ध हो सके तो समझना चाहिए कि उसी अनुपात से सर्वतोमुखी प्रगति उपलब्ध हो गई और पाँचों प्रकार के सुख, पाँचों स्तरों की विभूतियाँ एवं वर्चस्व हस्तगत हो गये।


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