भगवान बुद्ध काशी के एक सम्पन्न किसान के पास गये। उससे भिक्षा माँगी। किसान ने भिक्षा-पात्र लिये भिक्षु-प्रवर की ओर देखा और व्यंग्य-भाव से कहा मैं परिश्रम से खेत जोतता-बोता हूँ तब जो फसल उपलब्ध होती है उससे उदर पूर्ति करता हूँ। किन्तु आप बिना खेती किये भोजन पाना चाहते हैं।
मैं भी तो किसान हूँ, खेती करता हूँ, बुद्ध ने प्रशान्त स्वर में उत्तर दिया।
खेती। किसान ने काषाय वस्त्रधारी भिक्षु की ओर अचरज से देखा। हाँ! वत्स तथागत ने कहा मैं आत्मा की खेती करता हूँ। ज्ञान के हल से श्रद्धा के बीज बोता हूँ। तपस्या के जल से सींचता हूँ। विनय मेरे हल की हरिस, विचारशीलता काल और मन नरैली है। सतत् प्रयास का ज्ञान मुझे उस गन्तव्य की ओर ले जा रहा है जहाँ न दुःख है, न सन्ताप। मेरी इस खेती से अमरता की फसल लहलहाती है, वत्स।
मनुष्य का चिरन्तन अस्तित्व आत्मा के रूप में ही रहता है। मनुष्य जीवन में यह आत्मा शरीरगत ऐषणाओं से ऊपर उठकर मनुष्य को अपने शाश्वत स्वरूप के योग्य ही कार्य करने की प्रेरणाएँ देती रहती है। राजपुत्र गौतम को उसी प्रेरणा ने भगवान बुद्ध बना दिया था। यह पथ प्रत्येक आत्मदर्शी के लिए खुला है।