नवयुग की नई आचार संहिता

April 1991

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एक ही कैमरे से एक ही वस्तु के अनेक कोणों से फोटो खींचें जायँ, तो वे सभी एक-दूसरे से भिन्न-भिन्न होंगे, किसी में पीठ आयेगी, तो किसी में चेहरा, किसी में बगल, इनमें से जो जिसे पसंद करेगा, वह उसे अंगीकार करेगा। धर्म के सम्बन्ध में यही बात है। उसका सही स्वरूप अध्यात्म है। इसी को उत्कृष्ट दृष्टिकोण कहते हैं। इस आधार पर जो देखा और जाना जाता है, उसी को सही कह सकते हैं, अन्यथा सम्प्रदाय पक्ष के साथ जुड़ें हुए प्रचलन परस्पर एक-दूसरे से अत्यधिक भिन्न हैं। कई बार तो सत्यान्वेषी विवेक-बुद्धि से उनका निरीक्षण परीक्षण किया जाता है, कि यह सारा जंजाल कहीं अन्ध विश्वासों का जमघट ही तो नहीं है।

कभी यह मान्यता थी कि अमुक सम्प्रदाय के लोगों को ही ईश्वर पसन्द करता है और अन्य सम्प्रदाय वालों के बारे में सोचता है कि जैसे भी बने उन्हें अपने मत में सम्मिलित किया जाय। सहमत न हों तो उनके सिर कलम कर दिये जायं। मध्यकाल के सामंतों को जहाँ लूट-खसोट, राज्य बढ़ाने की हवस थी, वहाँ यह जुनून भी कम न था कि अपनी बात न मानने वाले काफिरों का कत्लेआम किया जाय। इस मान्यता ने कितने निरीहों का रक्तपात कराया, इसे इतिहास के विद्यार्थी भली प्रकार जान सकते हैं।

सम्राटों-सामंतों को दफनाते समय उनके साथ कब्र में कितनी औरतें, कितने नौकर, कितनी दौलत दफन की जाती थी, कि परलोक में यह सभी वस्तुएँ उन्हें उपलब्ध हो सकें। सद्गृहस्थों को पकड़ कर दास-दासी बना दिया जाता, उन्हें खरीदने, बेचने और पशुओं जैसा काम करने के लिए विवश करना किसी जमाने में आम रिवाज था।

अमेरिका के रेड इण्डियनों, अफ्रीका के हब्शियों में पशुओं का ही नहीं मनुष्यों के भारी संख्या में बलिदान का भी भारी प्रचलन था। उसी कारण कितनी ही जातियाँ एक-दूसरे की बलि चढ़ाते-चढ़ाते नाम मात्र के लिए शेष रह गई। इन कृत्यों को करने वाले अपने को धर्मात्मा मानते थे और सोचते थे कि ईश्वर यही चाहता है और इसी से प्रसन्न होता है।

भारत में भी सती प्रथा, विधवा विवाह, बाल विवाह अपहरण जैसे अत्याचार नारियों के साथ किए जाते थे, उन्हें पर्दे में कैद रखा जाता था। मनुष्यों में भी एक चौथाई को अछूत कहकर मनुष्योचित अधिकारों से वंचित किया जाता था। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रतिमाओं के सामने सहस्रों निरीह पशुओं का वध किया जाता था, आदि-आदि ऐसे अनेकों प्रचलन थे, जिन्हें सही माना जाता था, और वैसा करने में शास्त्रकारों की आज्ञा का हवाला दिया जाता था। पिरामिडों के निर्माण में लाखों को मेहनत कराते-कराते उसी में पीस दिया गया। एक पुरुष सैकड़ों हजारों स्त्रियाँ हरम में रखता था। कभी लड़कियाँ बिकती थी, अब लड़के बिकते हैं।

ऐसी-ऐसी अनेक बातें हैं, जिन्हें धर्म, परम्परा, शास्त्र-आज्ञा, ईश्वर की इच्छा मानकर कहा जाता है और अनेकों भावुकों का शोषण किया जाता है। ऐसे धर्म व्यवसायी धन और सम्मान दोनों हाथों से बटोरते हैं और अपने को देवताओं का एजेंट कहकर उनका अनुग्रह दिलाने के लिए महँगी फीस वसूल करते हैं।

मात्र हिन्दू समाज में ही नहीं, अन्य सम्प्रदायों में भी ऐसे बेतुके प्रचलनों की भरमार है, जिनका विवेक की कसौटी पर कोई औचित्य सिद्ध नहीं होता, फिर भी समुदायों को मानने वाले पुरातन मान्यताओं को ही सब कुछ मानते हैं और समीक्षा या सुधार की बात कहने तक को अधर्म मानते हैं।

धर्म सबसे पुरानी परम्परा है। उनके साम्प्रदायिक खंड इतने अधिक हैं, कि उनकी गणना करते कठिनाई होती है, फिर उनके प्रचलन ऐसे हैं, जिनके स्वरूपों और सिद्धान्तों में जमीन-आसमान जैसा अन्तर है, फिर भी आश्चर्य इस बात का है कि उन सभी के अनुयायी अपनी-अपनी परम्पराओं पर इतने कट्टर हैं कि उनकी यथार्थता पर पुनर्विचार करने की तनिक भी गुंजाइश नहीं। अभी भी दहेज न मिलने पर स्त्रियों को जला देने, देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बच्चे चुराकर बलि चढ़ा देने जैसे नृशंस कृत्य आये दिन होते रहते हैं और उन्हें करने वाले अपने को अपराधी नहीं मानते वरन् परम्परा के निर्वाह के लिए अपनाया गया औचित्य ही मानते हैं।

यह धर्म चर्चा का विषय हुआ। अपराधियों की, दुराचारियों की, व्यसनियों की अपनी बिरादरी है और वे अपने कृत्यों को शान दिखाने का प्रसंग मानते हैं, न लज्जित होते हैं और न उन कुमार्गों को छोड़ने की बात मानते हैं। यह दृष्टिकोण ही है, जिसके कारण मनुष्य ऐसे ढाँचे में ढल जाते हैं, कि जो किया-अपनाया गया है, उस पर नये सिरे से विचार करने और उचित-अनुचित का विचार करने तथा ढर्रे में परिवर्तन करने तक की आवश्यकता नहीं समझते। वेश्याएँ अपनी सफलता और चतुरता की डींगे अपने समुदाय में बढ़-चढ़ का मारती रहती हैं। यह बात सभी क्षेत्रों पर लागू होती है।

एक और कठिनाई है कि जिसने जो ढर्रा अपना रखा है, वह उसका औचित्य तर्कों के सहारे भी सिद्ध करने में पीछे नहीं रहता। यों तर्क में भी उचित-अनुचित का निर्णय करने का रिवाज है, पर बुद्धि के विकास के साथ-साथ बढ़े बुद्धिवाद-प्रत्यक्षवाद ने, इस क्षेत्र को भी अप्रामाणिक बना दिया है और विश्व मानव के एकता एक दिशा अपनाने की प्रगति में बाधक ही बना है। यह सुनिश्चित है कि मति भिन्नता के रहते प्रगति की किसी योजना को कार्यान्वित करना और सफलता के स्तर तक पहुँचना कभी भी संभव न हो सकेगा।

भूतकाल के अनौचित्य, वर्तमान के दुराग्रह और भविष्य के अन्धकार को ध्यान में रखते हुए हमें ऐसे उपाय खोजने चाहिए जिनसे विग्रहों के आधार टलें और एकता के, औचित्य के द्वार खुलें। दार्शनिक क्षेत्र की यह आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

आवश्यकता है कि न्याय, औचित्य, विवेक का आश्रय लिया जाय और पूर्वाग्रहों से अपने दृष्टिकोण को मुक्त रखा जाय। अपने आग्रहों को ईश्वर, देवता, पैगम्बर आदि की उक्ति बताने की दुहाई न दी जाय और न अपने मान्य जनों को चमत्कारी, दैवी शक्तियाँ से सम्पन्न-सर्वज्ञ ठहराया जाय। इन आधारों को अपनाने से औचित्य के प्रति अन्याय ही होगा। हमें स्वतन्त्र चिन्तन का आश्रय लेना चाहिए और प्रचलित मत-मतान्तरों में से कौन ज्येष्ठ, और श्रेष्ठ? के झंझट में न पड़ कर नई दृष्टि अपनानी चाहिए। क्या होता रहा है व कैसे वितण्डावाद बढ़ता रहा है इसका उदाहरण शास्त्रार्थों में भाषण प्रतियोगिताओं में ही नहीं अदालत-कचहरियों में भी देखा जा सकता है। झूठे मामले को सच्चा सिद्ध करने के लिए वकील जमीन-आसमान के कुलाबे एक करते हैं और उनमें से कितने ही अपनी चतुरता को सफलता के स्तर तक पहुँचा देते हैं। फैशन, जेवर, खानपान, नशा, व्यसन आदि के सम्बन्ध में जो जिसे सुहाता है वह उसके लिए इतना दुराग्रही होता है, कि सामने वाले पक्ष की उचित बात को भी सुनने के लिए तैयार नहीं होता। शादियों में होने वाली धूमधाम, फिजूल खर्ची, प्रदर्शन, दहेज आदि के विरुद्ध मुद्दतों से आन्दोलन हो रहे हैं पर नये तरीकों से वही बातें दूसरे रूप में सामने आ जाती हैं। कन्या और पुत्र के बीच बरता जाने वाला अन्तर ऐसा है, जिसे विचारशील लोगोँ के परिवारों में भी कार्यान्वित होते देखा गया है।

अनौचित्य के प्रति कट्टरता अपनाये रहने के लिए प्रचलनों की दुहाई देते रहने की बात ऐसी है, जो मनुष्य को यथार्थता से दूर पहुँचा देती है। प्रचलनों को किसी समय विशेष की आवश्यकताओं के अनुरूप गढ़ा हुआ मानना चाहिए। ग्राह्य और अग्राह्य का निर्णय तर्कों के सहारे नहीं, वरन् मानवी गरिमा के अनुरूप भावनाओं के सहारे करना चाहिए।

अर्थशास्त्र बताता है कि नई पीढ़ी को स्थान देने के लिए पुरानों को बूचड़, खानों कसाई घरों में पहुँचाना चाहिए, यदि यह सिद्धान्त पशुओं के लिए सही है, तो मनुष्यों के लिए गलत क्यों हो सकता है? फिर बूढ़े माँ-बापों को कसाई खाने भिजवाना पड़ेगा। जिसकी लाठी उसकी भैंस का जंगली कानून यदि सही ठहराया जाय तो बड़ी मछली छोटी को निगल लेती है, का सिद्धाँत मनुष्यों पर भी लागू करना होगा और इस संसार के सारे दुर्बलों का एक सिरे से सफाया करना होगा। देश भक्ति की दुहाई दी जाती रही तो क्षेत्र विशेष की सुविधा ही सब कुछ मानी जायेगी और किन्हीं विशेषों के साथ अन्याय होने की बात पर विचार न हो सकेगा।

हमें वास्तविक न्याय का निर्णय करने के लिए स्वयं सृष्टि का सृष्टा बनकर सभी को सन्तान मानते हुए उचित अवसर प्रदान करना पड़ेगा, या फिर अगली शताब्दी की देहरी पर खड़े होकर आदि से अन्त तक नये कानूनों का इस आधार पर निर्धारण करना होगा, जिससे भविष्य में किसी अनुचित विग्रह के लिए गुँजाइश न रहे। मनुष्यों में से प्रत्येक को मानवी मौलिक अधिकारों का संरक्षण मिले, साथ ही सृष्टि के अन्य प्राणियों को भी इस धरती पर रह सकने की सुविधा मिले।

दुर्जन मुट्ठी भर होते हैं, पर वे संगठित गिरोह बनाकर आक्रमण करते हैं और तथाकथित सज्जन मिलजुल कर उनका विरोध नहीं करते, फलतः संसार में अनीति ओर अपराधों की बाढ़ आती है। होना यह चाहिए कि अनाचारियों का सामूहिक बहिष्कार और विरोध हो, साथ ही सज्जन मिलजुलकर उनके विरुद्ध संघर्ष करें। शासन को कहा जाये कि सुधार की आशा से दर गुजर करने वाले या हलका दंड देकर जमानत पर छोड़ देने की अपेक्षा अपराधी के साथ उतनी कड़ाई की जाय, जिसे देखकर दूसरों को वैसा करने का हौसला न पड़े। शासन को जहाँ सत्प्रवृत्तियों का समर्थन, अभिवर्धन करना चाहिए वहाँ यह भी नितान्त आवश्यक है कि आततायी को प्रताड़ना सहनी पड़े और पश्चाताप करना पड़े।

सम्प्रदायों को अनुपयुक्त देखते हुए उनसे निरपेक्ष हो जाना और चाहे जिसको, चाहे जो करने देने की छूट नहीं दे देना चाहिए। ऐसी छूट प्रकारान्तर से अनीति का समर्थन एवं प्रोत्साहन है। हमें उपेक्षापूर्ण रिक्तता उत्पन्न नहीं करनी चाहिए, वरन् एक नवीन मानव धर्म की संरचना करनी चाहिए और उसका परिपालन करने के लिए लोगों से अनुरोध करते रहने की अपेक्षा, बाधित करने की कठोरता अपनानी चाहिए। राजनीतिक दल एवं व्यक्ति भी मात्र शासन की अर्थव्यवस्था की देख भाल करते हैं और मूर्खों के बहुमत का जिस-तिस प्रकार समर्थन प्राप्त करके अपनी मनमानी चलाते हैं। यह सब भी अपूर्ण है। हमें उतनी गहराई तक जाना होगा जिससे मानवी तत्व दर्शन का नवीन शिलान्यास हो। चिन्तन में उत्कृष्टता, चरित्र में आदर्शवादिता और व्यवहार में सज्जनता का समावेश हो। वस्तुतः इसी परिधि में मानव जीवन की समस्त समस्याएँ आती हैं। जिससे इस सुविस्तृत क्षेत्र का समाधान निकले उसी को सच्चे अर्थों में तत्वदर्शन, समाज विज्ञान या शासन तंत्र कहना चाहिए। फिर उसका नाम कुछ भी क्यों न रखा जाय। मनुष्य को सत्प्रयोजन अपनाने की पूरी छूट मिलनी चाहिए। पर उसकी धूर्तता को इतने कड़े शिकंजे में कसना चाहिए कि पीछे हटने या आगे बढ़ने की कोई गुँजाइश न रहे।

बढ़ते हुए विज्ञान और बुद्धिवाद ने दुनिया को सिकोड़कर एक बस्ती जैसी सीमित कर दिया है। इसमें एकता और समता की रीति-नीति ही चल सकती है। मनमौजी खींचतान चलाने की, कलह के सर्वनाशी विष बीज बोने की छूट पिछले दिनों मिलती रही होगी अब उसकी तनिक भी गुंजाइश नहीं है। हमें एक बिरादरी नहीं, एक परिवार बना कर रहना होगा और एक भाषा, एक देश, एक धर्म, एक दर्शन अपनाकर ही शान्तिपूर्वक रहना होगा। इस प्रयास में प्रत्येक वर्ग को अपनी पूर्व मान्यताओं के प्रति दुराग्रह छोड़ना होगा और यह सोचना होगा कि अगले दिनों इस संसार को ऐसा सुन्दर सुसंस्कृत कैसे बनाया जा सकता है जिसमें अमीर गरीब सभी मिल बाँट कर खायें। शक्ति और बुद्धि के सत्परिणामों से सभी लोग मिल जुल कर लाभ उठायें और हँसती-हँसाती जिन्दगी जियें। इसके लिए समुचित साधन भी मौजूद हैं और पर्याप्त अवसर भी। आवश्यकता इस बात की है कि दूरदर्शी, विवेकशीलता के धनी अपने चिन्तन को इस केन्द्र बिन्दु पर एकाग्र करें कि मानवी गरिमा के अनुरूप चिन्तन क्या हो? लोग उसे अपनाने और चरित्र में उतारने की प्रेरणा देने वाला शिक्षण किस प्रकार के विद्यालयों और किस स्तर के साहित्य के सत्संग, स्वाध्याय द्वारा प्राप्त करें।

नये युग की आवश्यकता है कि यह निर्धारण किया जाय कि समाज का स्वरूप क्या हो और उसकी आचार संहिता अपनाने के लिए जन-जन को किस प्रकार सहमत किया जाय। जिनकी नस-नस में धूर्तता भरी पड़ी है, उन्हें कड़ी प्रताड़नाएँ सहने के लिए बाधित किया जाय। अब इतना समय शेष नहीं रह गया है कि फिर पीछे कभी के लिए बात टाली जा सके। हम जीवन-मरण की विभीषिकाओं के बीच जूझ रहे हैं। उपाय एक ही शेष है आध्यात्मिक दृष्टिकोण का स्वरूप निर्धारण और उसका अनुशासनपूर्वक परिपालन। इतना सब कुछ करने पर ही नवयुग का नवोन्मेष संभव होगा।


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