देवस्थापना क्यों? किसलिए?

April 1991

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युगसन्धि वेला के अन्तिम दशक के इस पहले वर्ष में जो सर्वाधिक आवश्यकता अनुभव की जा रही है, वह है नवसृजन के लिए विशिष्ट आत्माओं का, सुसंस्कारी देवशक्तियों का धरती पर अवतरण। उनकी खोज व मार्गदर्शन , सही वातावरण देकर उन्हें युग प्रयोजन का बोध कराते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ाना। नवसृजन के लिए सहयोगी तो गीध, गिलहरी भी हो सकते हैं, पर युगान्तरीय दायित्वों को देखते हुए अंगद , हनुमान, नल-नील जैसे मूर्धन्यों की आवश्यकता इन दिनों प्रतीत हो रही है। गौ चराने, गेंद खेलने, और लाठी से गोवर्धन उठाने में तो ग्वाल बाल भी अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सके थे, किन्तु महाभारत जीतने में भीम, अर्जुन आदि से ही काम चला। महान् परिवर्तन में योगदान तो हमेशा से असंख्यों का रहा है, किन्तु उसका सूत्र संचालन संस्कार सम्पन्न महामानव ही करते रहे हैं।

जब खण्डहर बन गए, भवन को पूरी तरह विस्मार कर नए रूप में पुनः बनाने जैसा नवयुग सृजन का कार्य सामने हो तो मौलिक संस्कारगत प्रखरता वाले महामानवों की आवश्यकता पड़ती है। प्रशिक्षण, वातावरण एवं संपर्क का प्रभाव अपनी जगह महत्वपूर्ण है, पर महामानव इतने से ही नहीं बन जाते। उसके लिए जन्म-जन्मांतरों से संचित संस्कारगत मौलिकता की आवश्यकता होती है। विश्वामित्र ने राम लक्ष्मण को संस्कार पहचान कर ही आग्रहपूर्वक माँगा व उन्हें बला-अतिबला विद्याएँ सिखाकर महान् परिवर्तन के लिए क्षमता सम्पन्न बनाया था। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त, समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी, बुद्ध ने आनन्द, रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द व मत्स्येन्द्रनाथ ने गोरखनाथ को भारी भीड़ से बड़ी कठिनाई से ढूंढ़ निकाला था।

देव भूमिका निभाने के लिए घुने बीजों की नहीं सही बीजों की, संचित संस्कारों वाली आत्माओं की ही खोज होनी है। खिलौने बालू के नहीं, चिकनी मिट्टी के बनते हैं। हथौड़े की चोट जंग लगे लोहे नहीं, फौलादी इस्पात ही सह पाते हैं। ऐसी भूमिका सम्पन्न कर सकने वाली आत्माएँ ऐसी धातु की बनी होती है कि उनका उपयोग विशेष प्रयोजन के लिए संभव हो सकता है।

ऐसी देव शक्तियाँ अगले दिनों अधिकाधिक संख्या में समाज में जन्म लेने जा रही हैं। जो जन्म ले चुकी हैं, उन्हें सहयोगी वातावरण अभीष्ट है। तभी वह प्रयोजन पूरा हो सकेगा। जिसे युगसन्धि के महत्वपूर्ण समय में किसी भी स्थिति में पूरा होना है। सम्पदा, शिक्षा, श्रमशीलता जैसी विभूतियों से भी अधिक आवश्यकता आज उन देवात्माओं की है जिनमें आन्तरिक वर्चस् विपुल परिमाण में भरा पड़ा है, जिनमें दैवी अनुदान की, संस्कारों की समुचित मात्रा विद्यमान है।

कृषि कार्य में किसान का पुरुषार्थ ही सब कुछ नहीं होता, उपयुक्त भूमि और सही बीज का कहीं अधिक योगदान होता है। शिल्पियों की कुशलता कितनी बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो, उन्हें भी सही उपकरण चाहिए। कच्चा माल सही न हो तो कारखाने बढ़िया सामग्री कैसे बनाएँ? बालू से कोई भी कुम्हार टिकाऊ बर्तन नहीं बना सकता। चिकित्सकों के उपचार रोगी की जीवनी शक्ति के आधार पर ही सफल होते हैं। कच्चे लोहे की तलवार से कितना ही बलिष्ठ योद्धा क्यों न हो, जीत नहीं सकता।

इन सब साक्षियों का निष्कर्ष एक ही है कि मौलिक विशिष्टता अपनी जगह जरूरी है। नवसृजन का दायित्व पूरा करने के लिए उसे ढूंढ़ा जाना, खरीदा जाना व मोर्चे पर सही जगह लगाना जब बहुत जरूरी हो गया है। अवतार प्रयोजन को पूरा करने के लिए देवात्माएँ सदैव उपयुक्त माध्यम चुनती हैं। दुष्ट दुरात्माओं की गन्ध उन्हें नहीं भाती। सदाशयता सम्पन्न माता-पिता के रज बीज का ही वे आश्रय लेती हैं। स्वयं मनु एवं भगवती शतरूपा ने तप करके अपनी काया ऐसी बनायी थी कि देवात्माओं को गर्भ में निवास करने में कष्ट न हो। मदालसा, सीता, शकुन्तला जैसी महान् महिलाएँ ही अपनी कोख से दिव्य आत्माओं को जन्म दे सकने में सफल हुई। दिव्य आत्माएँ धार्मिकता से अभिपूरित श्रेष्ठ वातावरण में ही जन्म लेती रही हैं व आगे भी वहीं अवतरित होंगी। यदि किसी प्रकार कहीं अनुपयुक्त वातावरण में वे आ जाती हैं तो उन्हें वहाँ घुटन अनुभव होती है। इसलिए सन्धिकाल में संस्कारों की महत्ता से लेकर परिवारों में सुसंस्कारिता के अभिवर्धन की महत्ता समय-समय पर बताई जाती रही है।

शान्तिकुँज द्वारा ‘देव स्थापना’ कार्यक्रम इसी निमित्त परम पू. गुरुदेव के कारण सत्ता के मार्गदर्शन में आरंभ हुआ है। चूँकि यह समय विशेष महान आत्माओं के अवतरण का है। वे अपने लिए उपयुक्त स्थान का चयन कर सकें, श्रेष्ठ वातावरण के सान्निध्य का लाभ मिल सके, इसी प्रयोजन से चुने हुए घरों में ये देव स्थापनाएँ इस वर्ष से कराई जा रही हैं। यदि जिले का सर्वोच्च अधिकारी भी हमारे घर आने वाला हो, तो हम घर की सफाई करते हैं। साज-सज्जा की व्यवस्था बनाते हैं, उनकी गरिमा के अनुरूप तैयारी अनिवार्य है। जब प्रसंग संस्कारवान उच्चस्तरीय आत्माओं का हो तो मात्र स्वच्छता ही नहीं-सुसंस्कारिता, आध्यात्मिक ऊर्जा से अभिपूरित वातावरण बनाए जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। देव स्थापना आने वाले मेहमान के लिए, स्तर के अनुरूप तैयारी का ही एक पूर्वाभ्यास है। संत हर घर में नहीं जाते, उन्हें पवित्र तीर्थ ही प्रिय होते हैं। उच्चस्तरीय वातावरण यदि बनाया जा सके तो निश्चित ही वह हवाई पट्टी विनिर्मित हो सकेगी, जहाँ अन्तरिक्ष से आने वाले यानों के उतरने की तरह देवात्माएँ अपने पग धर सकें।

यह प्रतीक मात्र एक चित्र एवं जल-रज की स्थापना के रूप में नहीं है वरन् इसके साथ दिव्य प्रेरणाएँ जुड़ी हैं जो इन्हें मार्गदर्शक प्रकाश स्तम्भ के रूप में विनिर्मित करने जा रही हैं। लाइट हाउस के माध्यम से भटकने वाले जहाज भी गन्तव्य तक पहुँच जाते हैं ध्रुव तारा पथ प्रदर्शक की भूमिका निभाता हुआ घोर घने अन्धकार में भी यात्री को लक्ष्य तक पहुँचा देता है। देवस्थापना जिन-जिन घरों में होगी, वे उच्चस्तरीय आत्माओं के लिए लाइटहाउस की, ध्रुव तारे की भूमिका निभाएँगी। नित्य बलिवैश्व यज्ञ (अग्नि होत्र) नियमित उपासना व सतत् स्वाध्याय अनिवार्य शर्त के रूप में इन स्थापना के साथ जुड़े हुए तीन महत्वपूर्ण कार्यक्रम हैं। ब्रह्मकुण्ड के जल-रज के रूप में प्रतिष्ठित की साकार प्रतिमा प्रतिदिन उपासना का स्मरण करायेगी और ब्रह्मवर्चस् ब्रह्म तेजस्विता प्रदान करेगी। उपासना परिवार के प्रत्येक सदस्य, महिलाओं, बालकों तक के लिए इस देवा स्थापना का अनिवार्य कृत्य है भले ही वह स्थापित प्रतीकों के नमन वंदन जितना संक्षिप्त ही क्यों न हो। देवात्मायें अपनी ब्राह्मी शक्ति को समीप पाकर बिगड़े संसार को सम्हालने आने के अपने लक्ष्य को निरंतर स्मरण रखेंगे।

बलिवैश्व इस स्थापना का दूसरा अनिवार्य कृत्य है मध्याह्न भोजन से पूर्व रोटी के पाँच टुकड़े घृत और गुड़ या चीनी के साथ गायत्री मंत्र के साथ पाँच बार अग्नि में आहुति देने से बलिवैश्व पूर्ण हो जाएगा। जिन घरों में नित्य हवन की परम्परा हो, वे भी एक बरौसी में अग्नि रखकर यह कार्य अवश्य सम्पन्न करें। जहाँ रोटियाँ गैस पर पकती हों, वे छोटी-छोटी समिधाएँ कटी हुई रखें और मिट्टी की बरौसी में पहले उन्हें जला कर अग्नि बना लिया करें।

ज्ञान उपासना को आत्मसात करने की जुगाली है। ज्ञान ही भौतिक जीवन की सर्वोपयोगी शक्ति है, जल-रज उस पवित्रता का, गति का निरंतर बोध कराएँगे। युग साहित्य का न्यूनतम अखण्ड ज्योति-युगनिर्माण योजना या युगशक्ति गायत्री का सतत स्वाध्याय तीसरी अनिवार्यता है। जहाँ-जहाँ भी यह कार्यक्रम चल रहे होंगे, देवशक्तियाँ वातावरण बना देख स्वतः पहुँच जाएँगी। वन्य जीवों को सघन वन में देखना हो तो चुपचाप वहाँ किसी जलाशय के निकट बैठ जाना चाहिए। प्यास बुझाने वे निश्चित रूप से आते हैं, ऐसे जलाशयों की समाज में स्थान-स्थान पर निर्माण करने की आवश्यकता है, जहाँ देव शक्तियाँ अपनी युगों की प्यास बुझाने भगवत् प्रयोजन में स्वयं को निरत करने आ रही हैं।

प्रतीक के रूप में भेजे जा रहे चित्र का भाव यह है कि अंतरिक्ष से देवशक्तियों का अवतरण इस स्थान पर हो रहा है, जहाँ युग ऋषि ने इक्कीसवीं सदी को उज्ज्वल भविष्य के रूप में प्रतिपादित कर गंगा को धरित्री प्रवाहित किया। यह स्थान प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा के रूप में गायत्री तीर्थ में विनिर्मित वे स्थापनाएँ हैं जहाँ पूज्य गुरुदेव के कारण शरीर की सत्ता परोक्ष रूप में विद्यमान है। उनके स्थूल शरीर को जहाँ अग्नि को समर्पित किया गया वह पावन स्थली है यह। यहाँ से उनकी शक्ति सभी परोक्ष जगतधारी देवात्माओं के साथ मिलकर इन सभी के यहाँ सघन रूप में बरस रही है, जो देव प्रयोजनों में निरत हैं। ऐसे घरों में वातावरण सुसंस्कारों से अभिपूरित हो, श्रेष्ठ बनता चला जाएगा।

स्वाधीनता संग्राम के दिनों में महर्षि अरविंद ने अपनी कारण सत्ता से अन्तरिक्ष को मथकर सरदार बल्लभ भाई पटेल, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, लालबहादुर शास्त्री, रफी अहमद किदवई, दादाभाई नौरोजी जैसी महान् आत्माओं को जगाया था, तब स्वाधीनता का प्रयोजन पूर्ण हुआ था। युग को नई दिशा देने का कार्य उससे हजार गुना बड़ा है। परम पूज्य गुरुदेव के कारण सत्ता उसे पूर्ण करने के लिए अन्तरिक्ष को मथ रही है सो इस स्थापना को अहं महत्व का कार्यक्रम समझना चाहिए।

राज्यपाल, राष्ट्रपति के कार्यक्रम ऐन वक्त पर निरस्त हो जाते हैं, तो भी तब तक उस स्थान की स्वच्छता-साज-सज्जा ही मोहक बन जाती है, तब तक निरीक्षण के लिए छोटे मंत्रीगण, कलेक्टर, एस.पी. स्तर के अनेक लोग चक्कर काट जाते हैं, यह आवश्यक नहीं कि जिन घरों में देव स्थापना हो वहाँ देवात्मायें ही जन्म लें, यदि वे न भी आयें तो भी आई.ए.एस., पी.सी.एस., आई.पी.एस. स्तर की मूर्धन्य आत्मायें तो आएँगी ही, यह सुनिश्चित समझा जाना चाहिए।

सुयोग्य-व्यक्तियों के घर पू. गुरुदेव की चेतन सत्ता की प्राण प्रतिष्ठ करने हेतु यह एक सुनियोजित कार्यक्रम देवस्थापना के रूप में बनाया गया है। उसका लाभ हर संस्कारवान व्यक्ति को मिले व उनके माध्यम से देव शक्तियाँ अवतरित हों , समाज की नूतन संरचना हेतु महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें, उसके लिए शान्तिकुँज के देव स्थापना अभियान को उतनी ही गंभीरता से सुपात्रों तक पहुँचाने की आवश्यकता है। इस देव स्थापना का एक अति महत्वपूर्ण पक्ष यहाँ शान्तिकुँज से पूरा किया जा रहा है। वह संस्कार चित्र और जल-रज में स्थापित किए जा रहे हैं। यह स्थापना मंत्र के बीजाक्षरों की भाँति शान्तिकुँज के ब्रह्मबीज की है। उसे उतनी ही श्रद्धा मिलनी चाहिए। चाहे जहाँ से चित्र या गंगाजल मंगाकर की गई स्थापना से उसकी तुलना न की जाए।


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