प्राणतत्व अनादि और अनन्त है। शास्त्रों में सृष्टि के आरंभ में सर्व प्रथम प्राणतत्व के उत्पन्न होने का वर्णन है। जड़ जगत में पंचतत्वों का और चेतन प्राणियों में विचारशक्ति का आविर्भाव उसी से हुआ है। प्रश्नोपनिषद् 6/4 में उल्लेख है -
“स प्राणमसृजत, प्राणच्छ्रद्धाँ रवं वायुर्ज्योति रुपः पृथिविन्द्रियमनोऽन्नम्।”
अर्थात् उस ब्रह्म ने प्राण उत्पन्न किया। प्राण से श्रद्धा, बुद्धि, मन एवं आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी आदि पंचतत्वों की उत्पत्ति हुई। तब अन्न उत्पन्न हुआ।
अथर्ववेद के प्राण सूक्त में आता है-
“प्राणाय नमो यस्य सर्व मिदं वशे, यो भूतः सर्वस्येश्वरों यस्मिन् सर्व प्रतिष्ठितम्।”
अर्थात् उस प्राण को नमस्कार, जिसके वश में सब कुछ है। जो सब प्राणियों का अधिष्ठाता है, जो सब में समाया है, जिसमें सब समाये हैं। गायत्री का अध्यात्म यह प्राण ही है।
मानवी काया का संचालन एवं स्थिर स्थापना इसी प्राण चेतना पर निर्भर है। यों तो शरीर की प्रकट संरचना पंचतत्वों से विनिर्मित रासायनिक पदार्थों द्वारा होती है। उसके क्रिया-कलापों का संचालन वैद्युतीय चेतना से होता है जिसे अध्यात्म की भाषा में अन्नमय कोश कहते हैं। पर इसका भी संचालन तंत्र अन्यत्र है। इसी को प्राण या प्राणमय कोश कहते हैं। जैसे बिजली का प्रवाह बंद हो जाने पर या घट-बढ़ जाने पर बल्ब, पंखे आदि के कार्यों में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार शरीर के समस्त अवयव यथावत रहने पर भी प्राण विद्युत के क्रमबद्ध संचार में बाधा पड़ते ही मनुष्य भयंकर रोगों से ग्रस्त हो जाता है या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
यों सामान्य भाषा में प्राणवायु ऑक्सीजन को कहते हैं किन्तु वस्तुतः ऐसी बात है नहीं। प्राण एक सचेतन विद्युत है जिसका विस्तार तो ब्रह्माण्ड व्यापी है, पर वह मनुष्य को उसकी चुम्बकीय क्षमता के अनुरूप उतनी ही मात्रा में मिलती है जितनी कि वह खींच सकने, धारण कर सकने या प्रयोग में ला सकने में समर्थ होता है। बहती हुई नदी सामने होते हुए भी उसमें से अपने बर्तन के अनुरूप ही जल ग्रहण कर सकते हैं। उसी प्रकार मनुष्य कितना प्राणवान बने, यह उसकी निजी स्थिति पर निर्भर है।
संस्कृत में प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अन्’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ होता है-जीवनी शक्ति। यह मात्र जीवधारियों में ही काम करती है, जिसे उसका जितना अंश न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध होता है, उसी अनुपात से वह दुर्बल प्राण या महाप्राण कहलाता है।
प्राणतत्व को विज्ञान की भाषा में चेतन ऊर्जा-लाइफ एनर्जी, वाइटल फोर्स, कॉस्मिक एनर्जी आदि कहा गया है। ऊर्जा के कई रूप हैं (1) हीट-ताप (2) लाइट-प्रकाश (3) मैग्नेटिक-चुम्बकीय (4) विद्युत-इलेक्ट्रिकसिटी (5) साउण्ड-शब्द आदि। आवश्यकतानुसार एक प्रकार की एनर्जी दूसरे प्रकार में बदली भी रहती है। इन सबका समन्वय ही जीवन है।
यही ऊर्जा शरीर में चमक, स्फूर्ति, ताजगी, उमंग, साहस, उत्साह, संकल्प आदि विशेषताओं के रूप में दृष्टिगोचर होती है। पेट में भूख और मन में कामोत्तेजना के रूप में भी इसी की प्रखरता का परिचय मिलता है। यह प्राण एक शरीर से दूसरे शरीर में भी आदान-प्रदान की स्थिति में रहता है। जिस प्रकार बिजली एक तार से दूसरे तार में - एक शरीर से दूसरे शरीर में दौड़ जाती है, उसी प्रकार बलिष्ठ का प्राण दुर्बल की ओर दौड़ जाता है। ऊँची सतह के तालाब को नीची सतह के तालाब के साथ जोड़ दिया जाय तो नीची सतह की ओर पानी दौड़ने लगेगा और तब तक दौड़ता रहेगा, जब तक कि दोनों बराबर लेवल पर नहीं पहुँच जाते हैं। बड़ों के चरण छूने, उनके सिर पर हाथ रखने, पीठ थपथपाने के पीछे यही सिद्धान्त काम करता है। बच्चों को गोदी में खिलाने के पीछे भी यही विद्या काम करती है। महाप्राण व्यक्ति स्वल्प प्राण वालों का स्पर्श करके रोग निवारण करते हैं। ब्रह्मचर्य के मूल में प्राण निग्रह ही काम करता है।
अध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार प्राणतत्व ही जीवनीशक्ति है। इसका जो जितनी अधिक मात्रा में संरक्षण एवं ब्रह्मांडव्यापी प्राण से आकर्षण-अवधारण कर लेता है, उतने ही अंश में वह जीवनी शक्ति से भरपूर माना जा सकता है। स्त्री शरीर निगेटिव और पुरुष शरीर पॉजिटिव होता है। इस प्रकार के संयोग-मिलन में पुरुष ही घाटे में रहता है। चुम्बन-आलिंगन भी एक प्रकार का संयोग ही है। इसलिए आध्यात्मिक प्रयोजनों के लिए किये गये अनुष्ठानों में इस प्रकार की चेष्टाओं का निषेध है। प्रतिभाशाली प्राणवान लोगों के संपर्क से दुर्बलों को प्राणतत्व का लाभ अनायास ही मिलता रहता है। इसी को मानवी विद्युत या जैव चुम्बकत्व कहते हैं। ओजस्वी, तेजस्वी इसी स्तर के होते हैं।
बैटरी, जनरेटर, मैग्नेट आदि को स्पर्श करने से जिस प्रकार छूने वाले के शरीर में बिजली दौड़ जाती है, उसी प्रकार की प्रतिक्रिया प्राणचेतना के क्षेत्र में भी होती है। प्राण सम्पन्न एक प्रकार का डायनेमो बन जाता है जो अपने में विद्युत उत्पन्न करता और दूसरों को बाँटता रहता है। दुर्बल काया वाले भी तेजस्वी, प्रभावशाली होते देखे गये हैं और मोटे-तगड़ों में भी पस्त हिम्मत, डरपोक पाये जाते हैं। यह प्राणतत्व की न्यूनाधिकता का ही प्रतिफल है।
कभी -कभी प्राण विद्युत शरीर कलेवर में से उछलकर बाहर आने लगती है तो ऐसे व्यक्ति बिजली के आदमी बन जाते हैं। विश्व भर में इस तरह के सैंकड़ों व्यक्तियों की खोजबीन पिछले दिनों वैज्ञानिकों द्वारा की जा चुकी है। उन्हें छूने पर ही नहीं आँखों से आँखें मिलाने पर भी कमजोर व्यक्ति हैरान होता है। इस तरह के मानवी विद्युत के स्त्रोत तथा प्रयोग पर गहरे अन्वेषण करने के लिए संसार भर में कितनी ही संस्थाएँ काम कर रही हैं। जिनमें दि स्कूल आफ मैस्मेरिज्म विशेष रूप से प्रख्यात है।
इसके आधार पर मनुष्य अपने निज के व्यक्तित्व में बहुमुखी प्रखरता उत्पन्न कर सकता है। प्रतिभाशाली बन सकता है। आत्म विकास की अनेकों मंजिलें पार कर सकता है। पदार्थों को प्रभावित करके उन्हें अधिक उपयोगी बनाने तथा इस प्रभाव से जीवित प्राणियों की प्रकृति बदलने में भी सहायता कर सकता है। ऋषियों के आश्रमों के समीप इसी प्रभाव के कारण सिंह और गाय साथ-साथ एक घाट पर पानी पीते थे।
पदार्थ और मैटर की तरह ही इस विश्व-ब्रह्मांड में सचेतन प्राण विद्युत भी भरी पड़ी है। हम सभी प्राण विद्युत के लहलहाते महासागर के मध्य रहते हुए भी प्रायः उससे अनभिज्ञ हैं। हम में से हर कोई मनुष्य प्राणायाम जैसे उपचारों से उसकी अतिरिक्त मात्रा उपलब्ध कर सकता है और महाप्राण बन सकता है। जिस प्रकार फेफड़े गहरी साँस लेकर अधिक मात्रा में वायु उपलब्ध कर सकते हैं और उसमें विद्यमान ऑक्सीजन का लाभ उठा सकते हैं, उसी प्रकार प्राणायाम प्रक्रिया द्वारा प्राणाकर्षण करके उसे अन्तराल में अधिक मात्रा में भरा जा सकता है।
शरीर में इस प्राण विद्युत का अवतरण उस स्थान पर होता है जिसे ब्रह्मरंध्र या सहस्रार कमल कहते हैं। इसी विद्युत उत्पादन केन्द्र को वैज्ञानिक भाषा में “रेटीक्युलर एक्टिवेटिंग सिस्टम” कहते हैं। यहीं से सचेतन स्फुल्लिंग-इलेक्ट्रिक इम्पल्स उत्पन्न होते हैं और मस्तिष्कीय तंत्र द्वारा समस्त मस्तिष्क में फैल जाते हैं। इतना ही नहीं वे काया के विभिन्न अवयवों तक अपनी तरंगें फेंकते हैं। सिर के विभिन्न स्थानों पर यंत्र के रज्जु मेरुदंड के माध्यम से आगे बढ़ते हैं और सर्वत्र प्राण विद्युत का संचार कर उसे नवीन प्राण चेतना से भर देते हैं। सविता द्वारा प्रदत्त गायत्री के द्वारा आकर्षित प्राण चेतना का अवतरण साधक के अन्तराल में जितने अधिक परिमाण में होता चलेगा, उसी अनुपात में वह ओजस्वी, तेजस्वी एवं मनस्वी बनता जायेगा। प्रश्नोपनिषद् में कहा भी गया है।
“य एष विद्वान् प्राणं वेद रहस्य प्रज्ञा हीयते”
अर्थात् जो इस प्राण को जान लेता है उस पर प्रज्ञा के रहस्य भी प्रकट हो जाते हैं।