बतखों का झुण्ड प्रतिदिन आता और रात्रि में उसी तलैया में विश्राम करता। सवेरा होने पर वे सब बत्तखें उसमें स्नान करती और दिनभर के लिये दाने-चारे की खोज में उड़कर वहाँ से चल देती। तालाब की सारी हलचल समाप्त हो जाती, वह दिन भर सूना पड़ा रहता।
पास में ही एक बगीचा था। उसमें रहता था एक माली। फूल-पौधों की कतर-व्यौंत करते-करते काटना जैसे उसका स्वभाव बन गया था। उसने एक दिन एक बत्तख को पकड़ लिया और उसके पंख काट डाले। उड़ान का समय आया तो उस बत्तख ने बहुतेरा प्रयत्न किया कि और सब बत्तखों के साथ वह भी उड़ चले किन्तु वह बेचारी उड़ न सकी। उड़ा हुआ शेष बत्तखों का झुँड कुछ देर तक तो वहीं मंडराता रहा पीछे पूरा झुण्ड नीचे उतर आया। वे जख्मी बत्तख के आस-पास उड़ती और उसे उड़ने को प्रेरित करती रही पर बेचारी का एक पंख ही नहीं था, क्या करती उड़ नहीं सकी।
पूरा झुण्ड तालाब में उतर आया। वे कई दिन तक भूखे-प्यासे वहीं बने रहे उनका उड़ने का बार-बार मन भी करता रहा किन्तु नन्हें जीव भला अपने साथी को छोड़कर कैसे चले जाते। यह तो मनुष्य ही इतना स्वार्थी और छली है कि अपने सुख अपने हित के लिये न तो जीव-जन्तुओं को छोड़ता है और नहीं ही अपनी जाति को। फिर भी दम्भ कि वह अपने आपको सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी समझता है।
बत्तखें उड़ीं पर उस दिन जिस दिन बत्तख को नये पंख आ गये तब तक वे बेचारी वहीं चक्कर काटती रहीं।
-अल्बर्ट श्वाइत्जर के ‘हूम वी से एनिमल्स’ से