अपरिग्रही संत पुरन्दर

November 1970

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सन्त पुरन्दर गृहस्थ थे तो भी क्या लोभ, क्या काम और क्रोध उन्हें छू भी नहीं गये थे। दो-तीन घरों में भिक्षाटन करते, उससे जो दो मुट्ठी चावल और आटा मिल जाता उससे वे अपना और अपनी धर्मपत्नी सरस्वती देवी का उदर पोषण कर लेते और दिन भर लोक कार्यों में जुटे रहते।

एक दिन विजय नगर के राजपुरोहित व्यासराय ने महाराज कृष्ण देवराय ने कहा- राजन! सन्त पुरन्दर गृहस्थ होकर भी राजा जनक की तरह विकार मुक्त है दिनभर बेचारे पिछड़ों को ज्ञान देने, कष्ट पीड़ितों की सेवा करने में लगे रहते हैं। स्वार्थ की बात तो उनके मन में ही नहीं आती। महाराज कृष्णदेव राय-हंसे और बोले गृहस्थ में रहकर कौन तो निर्लोभ रहा, कौन काम-वासना से बचा? यदि गृहस्थ में ऐसा संभव हो जाये तो संसार के सभी लोग अपना मनुष्य शरीर सार्थक न कर लें?

कर सकते हैं व्यासराय बोले- यदि लोग संत पुरन्दर और देवी सरस्वती की भाँति निर्लोभ, सेवा परायण व सरल जीवन जीना सीख लें।’ महाराज कुछ खिन्न से हो गये। बोले- ऐसा ही है तो आप उनसे कुछ दिन यहीं हमारे यहाँ भिक्षाटन के लिये कह दें। व्यासराय ने संत पुरन्दर से जाकर आग्रह किया- ‘आप आगे से राजभवन से भिक्षा ले आया करें।’ सन्त पुरन्दर ने कहा- मैं जिन लोगों के बीच रहता, जिनकी सेवा करता हूँ उन अपने कुटुम्बीजनों से मिल गई भिक्षा ही पर्याप्त है। दो ही पेट तो हैं उसके लिये राजभवन जाकर क्या करूंगा? पर व्यावसराय तब तक बराबर जोर डालते रहे जब तक संत ने उनका आग्रह स्वीकार नहीं कर लिया।

संत पुरन्दर राजभवन जाने लगे। वहाँ से मिले चावल ही उनके उदर पोषण के लिये पर्याप्त होते। सन्त अपनी सहज प्रसन्नता लिये हुये जाते, उसका अर्थ महाराज कुछ और ही लगाते। एक दिन तो उन्होंने व्यासराय से कह भी दिया देख ली आपके सन्त की निस्पृहता। आजकल देखते नहीं कितने प्रसन्न रहते हैं। व्यासराय बोले आपका तात्पर्य समझे नहीं। इस पर महाराज ने कहा- आप मेरे साथ चलिये अभी बात स्पष्ट हो जायेगी। महाराज राजपुरोहित के साथ सन्त पुरन्दर के घर पहुँचे देखा उनकी धर्मपत्नी चावल साफ कर रही है। महाराज ने पूछा- बहन! यह क्या कर रही है? इस पर वे बोली- आजकल न जाने कहाँ से भिक्षा लाते हैं, इन चावलों में कंकड़ भरे पड़े हैं। यह कहकर उन्होंने अब तक बीने कंकड़ उठाये और बाहर की तरफ उन्हें फेंकने चल पड़ी। महाराज बोले- भद्रे यह तो हीरे-मोती हैं जिन्हें आप कंकड़-पत्थर कहती हैं। सरस्वती देवी हंसी और बोली पहले हम भी यही सोचते थे पर अब जब से भक्ति और सेवा की सम्पत्ति मिल गई इनका मूल्य कंकड़-पत्थर के ही बराबर रह गया-महाराज यह उत्तर सुनकर अवाक् रह गये, वे आगे और कुछ न बोल सके।


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