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November 1970

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दुनिया की प्रत्येक भूल प्रत्येक अपराध की तह में खोजा तो उनका कारण सर्वत्र अहंकार ही मिला।

-रस्किन

इस अहंकार से पीछा छुड़ाने का एक सहज सा उपाय यह है कि मनुष्य अपना कर्त्तापन का भाव छोड़ दें। वह जो कुछ करता है परमात्मा की इच्छा से, उसी के लिए, उसकी सृष्टि के लिए ही करता है-मन में ऐसी दृढ़ प्रतीति धारण कर ले। मनुष्य कर्ता है भी कब? यह उसके अहंकार भाव का ही दोष है जो वह अपने को कर्ता मानता है और ऐसा मानकर अपने को भव बंधनों और आवागमन के चक्र में फैलाता है। अनाधिकार भाव रखने वाले को दण्ड तो मिलना ही चाहिए। यह जड़ जंगम-सारी सृष्टि उस एक परमात्मा, उस एक महाचेतन से ही अनुप्राणित है। संसार की प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सारी गतिविधियाँ एवं कार्यकलापों में उसी की प्रेरणा काम करती है। इस सम्पूर्ण संसार का कर्ता-धर्ता एक वही सर्वाधार परमात्मा ही है। उसी की शक्ति, संकल्प और प्रेरणा से यह सारा प्रपंच अवस्थित भी है और संचालित भी। मनुष्य तो उसकी क्रियाओं का एक माध्यम मात्र है। उसके सृष्टि यंत्र का एक छोटा सा पुर्जा है। अपने को कर्ता मानकर चलने वाले अहंकारी व्यक्ति लोक-परलोक कहीं भी सुखी और सन्तुष्ट नहीं रहते।

विनम्रता का भाव भी अहंभाव से छुटकारा पाने का एक अच्छा उपाय है। इसकी प्रेरणा भी उस परमपिता परमात्मा से पाई जा सकती है। संसार का स्वामी, पालक, संचालक तथा आधारक होने पर भी क्या कभी वह अपना अहंकार किसी रूप में प्रगट करता है। उसने अपनी सारी शक्तियों को संसार की सेवा के लिये नियुक्त कर दिया है, अग्नि, वायु, जल, प्रकाश आदि उसकी सारी दिव्य शक्तियाँ संसार की सेवा में ही नियुक्त रहती हैं। अग्नि ऊष्मा देकर मनुष्य को सक्रिय बनाए रखती है, वायु श्वाँस द्वारा प्राण देती है। जीवनदाता जल के उपकार का तो आभार ही प्रकट नहीं किया जा सकता। प्रकाश सारे संसार को आलोकित करता है। भय और अनर्थ के हेतु अन्धकार को दूर भगाता है। प्रकाश ही आदमी को जगाता और कर्त्तव्यपथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देता है। इतना बड़ा दाता होने पर भी परम पिता परमात्मा कितना दयालु और विनम्र है, इसका अनुमान कर हृदय श्रद्धा से भरे बिना नहीं रहता।

इतनी बड़ी कृपा करने और इतना बड़ा उपकार करने के बाद भी वह हमसे कोई प्रतिपादन नहीं चाहता, चाहता है तो इतना कि सारे जीव ऐसे कर्म करें जिससे सबको सुख और शाँति मिले। सभी अपने-अपने ध्येयपथ पर बढ़ते चलें। संसार में बहुत से ऐसे अभागे भी हैं जो ऐसे उपकारी को भी भला-बुरा कह उठते हैं। उसकी कृपाओं को अपनी विशेषता मान बैठते हैं। उसका आभार मानने के स्थान पर अपने अहंकार का प्रकाशन करते हैं। किन्तु वह विनम्र प्रभु कभी किसी का अहित नहीं करता। अपने पापों से अपना अमंगल कर देने वाले न जाने कितने अबोध उस निर्विकार प्रभु को दोष देते रहते हैं किन्तु वह दया और करुणा का सागर सब कुछ मौन भाव से सुनता और सहन करता रहता है। अहंकार के वशीभूत होकर कभी किसी को हानि नहीं पहुँचाता। धन्य है वह परमपिता परमात्मा और धन्य है उसकी उदारता एवं विनम्रता।

एक हम मनुष्य हैं जो कुछ भी न होते हुए भी अहंकार वश अपने को सब कुछ समझा करते हैं। और इसी अहंकार के कारण अपने एक जन्म में ही नहीं जन्म-जन्म में हानि करते रहते हैं। अहंकार सारे पापों की जड़ है। इसके त्याग से ही मनुष्य पाप से बच सकता है और श्रेय को प्राप्त कर सकता है। परमपिता परमात्मा को अपना आदर्श बनाकर यदि मनुष्य उसी की तरह उदार तथा विनम्र बन सके तो निरहंकार होकर उसी के पूर्ण नाम स्वरूप को प्राप्त कर सकता है- इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं।


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