धन के लिए नहीं लोक मंगल के लिए

November 1970

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सोमदत्त नामक एक ब्राह्मण राजा भोज के पास गया और बोला महाराज! आपकी आज्ञा हो तो उज्जयिनी के नागरिकों को भागवत कथा सुनाऊं। प्रजा का हित होगा और मुझ ब्राह्मण को यज्ञ के लिये दक्षिणा का लाभ भी मिल जायेगा।

भोज ने अपने नवरत्नों और सभासदों की ओर देखा और फिर सोमदत्त की ओर मुख करके बोले- आप अभी जाइये कुछ दिन भागवत का और पाठ कीजिये?

पहला अवसर था जब महाराज भोज ने किसी ब्राह्मण को यों निराश किया था। लोगों को शंका हुई कि महाराज की धर्म-बुद्धि नष्ट तो नहीं हो गई, उन्होंने विद्या का आदर करना तो नहीं छोड़ दिया? कई सभासदों ने अपनी आशंका महाराज से प्रकट भी की पर उन्होंने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया।

ब्राह्मण निराश तो हुआ पर उसने प्रयत्न नहीं छोड़ा। उसने सारी भागवत कण्ठस्थ कर डाली और फिर राज-दरबार में उपस्थित हुआ। किन्तु इस बार भी वही उपेक्षापूर्ण शब्द सुनने को मिले। भोज ने कहा- ब्राह्मणदेव! अभी आप अच्छी तरह अध्ययन नहीं कर सके। जाकर अभी और अध्ययन कीजिये। इसी प्रकार सोमदत्त कई बार राज-दरबार में उपस्थित हुआ पर उसे उपेक्षा ही मिली।

ब्राह्मण ने इस बार भागवत के प्रत्येक श्लोक को पढ़ा ही नहीं एक-एक भाव का मनन भी किया जिससे उसकी भगवन् के प्रति निष्ठा जाग गई। उसने आदर, सत्कार, सम्पत्ति और सम्मान की सारी भावनायें छोड़ दी और सामान्य लोगों में ही धर्म भावनायें जागृत करने लगे।

बहुत समय तक भी जब वे दुबारा उज्जैन न गये तो भोज ने उनका पता लगाया। सारी स्थिति का पता लगाकर उन्होंने एक दिन सोमदत्त को बुलाकर प्रणाम किया और विनयपूर्वक निवेदन किया। महाराज! आप उज्जयिनी के नागरिकों को भागवत सुनायें तो इनका कल्याण हो।

भागवत हुई और सोमदत्त को इतनी दक्षिणा मिली फिर कभी यज्ञ के लिये धनाभाव नहीं हुआ। एक दिन एक सभासद ने पूछा-महाराज एक दिन यहाँ ब्राह्मण जब अपनी ओर से आया था तब आपने उपेक्षा बरती थी आज आपने उन्हें उसे प्रणाम भी किया और आग्रह भी सो क्यों?

भोज ने कहा- तब यह धन के लिये भागवत-कथा सुनाना चाहते थे पर अब इनकी भागवत-कथा धन के लिये नहीं लोक-मंगल के लिये हो गई है।


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